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Sunday, 24 August 2025

साहित्य और राज्य से इतर मिथिला


मिथिला के इतिहास के नाम पर अधिकांशतः साहित्य विवेचना ही देखी है। चूँकि मैंने कोई किताब नहीं लिखी, और न ही टीवी में आता हूँ, साहित्य से इतर मिथिला का संक्षित इतिहास लिखने की धृष्टता करते डर रहा हूँ। चीज़ें शायद विस्तार से भले न मिलें, क़रीने से भी न मिले किंतु जो हैं वो सच्ची हैं इसकी गारंटी लेता हूँ।

मिथिला की गाँव वापसी

सन १८१२ में पटना की जनसंख्याँ तक़रीबन ३ लाख थी और कलकत्ता की १.७५ लाख. १८७१ में पटना १.६ लाख और कोलकाता ४.५ लाख. पटना की तरह यही हाल भागलपुर और पुरनियाँ का भी रहा. कारण दो थे. इस दौरान अंग्रेजों की मदद से कलकत्ता में फला फुला उद्योग और बिहार/ मिथिला इलाके में देशी उद्योग के विनाश से लोगों का शहर से गाँव की ओर पलायन. मिस्टर बुकानन ने अपने सर्वे में १९ वीं सदी के बड़े हिस्से तक इस पलायन की पुष्टि की है. अंग्रेजी शासन की दोहन निति के कारण शहर के उद्योग धंधे नष्ट होते गए और लोग गाँव में वापस आते गए.

इसका परिणाम गाँव के घरेलु उद्योग और कृषि क्षेत्र में उन्नति लेकर आया. दुष्परिणाम सिर्फ इतना की गाँव में काम कम और लोग ज्यादा हो गए. इस क्रम में अति तब हुई जब अंग्रेजों ने गाँव की जमीन का दोहन भी आरम्भ किया... १८५७ की क्रांति में सरकार के खिलाफ ज्यादा लोगों का जुटना संभवतः इसी करण हुआ. लोग शहर में मारे गए और गाँव में भी शुकुन से न रह पाए तो विरोध लाजिमी था. ऊपर से कुछ स्थानीय लोगों द्वारा अंग्रेजों की चमचई...

इसको लिखने का कारण सिर्फ इतना की मुझे इसी प्रकार की घुटन आज के हिन्दुस्तान में दिखती है. मुझे लगता है की लोग गाँव वापस जायेंगे... गाँव छोटे उद्योग धंधों, शिक्षा और व्यापार का केंद्र बनेगा... सरकारें जलेंगी...

दलान

उद्योग व् पलायन

अक्सर लोगों से सुनता हूँ, बिहार और मिथिला का खस्ता हाल है... लोग खतरनाक तरीके से पलायन कर रहे हैं... ब्ला ब्ला ब्ला. जरा अन्दर घुसिए तो पता चलता है की मिथिला से पलायन का इतिहास हजारों वर्ष पुराना रहा है. विद्वान, व्यापारी, मजदुर... सब बेहतर पारितोषिक के लिए बाहर जाते रहे. इतिहासकारों ने इस बात का सबुत ८०० वीं ईस्वी से बताया है.

जूट, नील और साल्ट-पिटर के नजदीकी उत्पादन क्षेत्रों (फारबिसगंज, किशनगंज दलसिंहसराय आदि) में मजदूरी के अलावा लोग मोटिया या तिहाडी मजदूरी करने नेपाल, मोरंग, सिल्लिगुड़ी और कलकत्ता भी जाते रहे हैं. श्री जे सी झा ने अपनी किताब Migration and Achievements of Maithil Pandits में लिखा है - मैथिल पंडित बेहतर अर्थ लाभ के लिए देश के अन्य क्षेत्रों में जाते रहे हैं.

हालाँकि तब और अब के इस पलायन में फर्क है. तब लोग मूलतः वापसी में अपने साथ कृषि की नई तकनीक सीख कर, स्वस्थ जीवन जीने के गुर सीखकर, घरेलु उद्योग लगाने की नई तकनीक सीख कर आते थे. जबकि अब हम छोटे कपडे, कान फाडू पंजाबी संगीत, प्रेम त्रिकोण और धोखेबाजी की नई तकनीक ज्यादा सीखते हैं.

इस दौर में एक वक़्त मिथिला क्षेत्र में उद्योग फला-फुला भी. अठारहवीं और उन्नीसवी शताब्दी में मिथिला के अलग अलग शहरों में विभिन्न उद्योग लगे. मधुबनी में मलमल, दुलालगंज व् पुरनियाँ में सस्ते कपड़ों का तो किशनगंज में कागज का उद्योग चला. दरभंगा, खगडिया, किशनगंज आदि ईलाका पीतल व् कांसे के बर्तनों के लिए जाना जाता था... भागलपुर सिल्क, डोरिया, चारखाना के लिए और मुंगेर घोड़े के नाल, स्टोव, जूते के लिए प्रसिद्ध था.

इन सबमे आश्चर्यजनक तरीके से पुरनियाँ तब भी काफी आगे था. कहते हैं पुरनियाँ का सिंदूर उत्पादन व् निर्यात तथा टेंट हाउस के सामान बनाने का काम विख्यात था. मेरे शहर दरभंगा के लोगों को बुरा न लगे इसलिए बताता चलूँ की दरभंगा शहर उस वक़्त हाथी दांत से बने सामानों का प्रमुख उत्पादन केंद्र था.


मिथिला में स्त्री

जितना पुराना इतिहास पुरुषों द्वारा मिथिला छोड़ने का रहा है ठीक उतना ही अकेली रहने वाली स्त्रियों के शोषण (विभिन्न स्तरों पर) का भी रहा. मैथिल समाज का छुपा हुआ किन्तु सत्य पक्ष है की स्त्रियाँ सताई जाती रही... परदे के पीछे यौन प्रताड़ना... लांछन... दोषारोपण... आदि करते हुए मैथिल समाज खुद को कलमुंहा साबित करता आया है.

इसका एक सकारात्मक पक्ष भी था. क्षेत्र में मैथिल स्त्रियों में शिक्षा का स्तर बढ़ा और वो स्वाबलंबी बनी. बिहार के औसतन ६% के सामने पूसा में स्त्री शिक्षा का दर १३%, सोनबरसा में ६%, मनिहारी में ९% थी. (जिन्हें % कम लग रहा है उनके लिए – १९९०-२००१ में यह दर २८% था)

स्वाभाविक रूप से गाँव की सत्ता स्त्रियों के हाथ में आ गई थी ऐसे में. गाँव की महिलाएं घरेलु उद्योग, पशु पालन आदि में आगे दिखने लगी थी. संभवतः गांधी का चरखा आन्दोलन इसी वजह से मिथिला के घर घर में पहुँच पाया.

समय के साथ साथ मैथिल स्त्रियों की दुनियां थोड़ी स्वप्निल बनाई गई जब दूर देश के सन्देश उसके पास भौतिक और काल्पनिक तरीके से पहुँचने लगे. इस रंग में भी भंग तब पड़ा जब पुरुष अपने साथ बीमारियाँ भी साथ लाने लगे.


मिथिला में जातियां

यहाँ हिन्दू परंपरा अपने प्रखरतम रूप में सभी जटिलताओं के साथ सदा विद्यमान रहीं. अलग जातियों के अलग अलग देवता और अलग गहबर होते थे. जातियों के देवताओं के नाम रोचक थे.

श्याम सिंह डोम जाति के, अमर सिंह हलवाई व् धोबियों के, गनिनाथ-गोविन्द हलवाइयों के सलहेस दुसाधों के दुलरा दयाल/ जय सिंह मल्लाहों के, विहुला तेली जाती के, दिनाभद्री मुसहरों के तो लालवन बाबा चमारों के देवता थे.

स्वाभाविक तौर पर सामाजिक कुरीतियाँ, अधविश्वास और धारणाएं ज्यादा थीं. तमाम् विरोधी उदाहरण के बावजूद ब्राम्हण, राजपूत या लाला विपदा में दुसाध, मुसहर के गहबर में जाते थे. जातियों के हिसाब से कार्य बंटे थे जो उत्तरोत्तर कम होते गए.

मिथिलांचल के कई इलाकों में मुसलमानों द्वारा मनाये जाने वाले ताजिये में हिन्दुओं का शामिल होना और हिन्दुओं के त्योहारों में मुस्लिमों के साथ होने के उदहारण भी हैं. कालांतर में हम समझदार होते गए और विषमतायें उग्र रूप धारण करने लगी.


ऐसे में यह स्पष्ट है कि हमें हमारे सीमित सोच से इतर मिथिला को बृहत् तौर पर देखे जाने की आवश्यकता है। मिथिला मात्र विद्यापति विद्यापति समारोह और प्रणाम मिथिलावासी और हमर मिथिला महान तक सीमित नहीं है। 

Saturday, 16 August 2025

"न त्वत्समश्चाभ्यधिकश्च् दृश्यते" - खट्टर काका के संस्मरण


मैथिली साहित्यक क्षितिज पर जाज्वल्यमान नक्षत्र सन अहर्निश प्रदीप्त सर्वाधिक लोकप्रिय रचनाकार प्रो.हरिमोहन झाक जन्म १८ सितम्बर १९०८ केँ वैशाली जिलाक कुमर बाजितपुर गाम मे भेल रहनि। हिंदी आ मैथिलीक लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकार जनार्दन झा जनसीदनक तेसर संतान प्रो. झा केँ संस्कार मे पांडित्य आ साहित्य परिवार सँ उपहार मे भेटलनि। बाल्यकालहि सँ 'ननकिङबू' केँ पिताक सानिध्य मे साहित्यक गहन बोध होएब आरंभ भए गेल रहनि आ खेलौनाक स्थान पर ओ शब्दालङ्कार सँ खेलाए लागल रहथि। कहबी अछि जे पिता-पुत्रक संवाद सेहो सानुप्रास पद्य मे होइत रहनि। 

प्रो. झा नियमित शिक्षा सँ दूर रहि पिताक साहचर्य मे विद्योपार्जन करैत रहलाह आ पंद्रह बरख धरि हिनक नामाकरण कोनो विद्यालय मे नहि कराओल गेल। पिताक संसर्ग मे रहैत 'ननकिङबू' पूर्ण मनोयोग सँ साहित्यिक अवगाहन करैत रहलाक आ 'अपूर्णे पंचमेवर्षे वर्णयामि जगत्रयम' चरित्रार्थ करए लगलाह । विद्यालाय मे नामांकनक समय संस्कृत मे धाराप्रवाह वक्तृता सँ अचंभित गुरुजन समाज हिनक विशिष्ट प्रतिभाक आदर कएलनि आ हिनक नामाकरण सोझे मैट्रिक मे कराओल गेल आ १९२५ मे पटना विश्वविद्यालय सँ ई प्रथम श्रेणी मे मैट्रिकक परीक्षा उतीर्ण कएलनि। १९२७ मे इंटरमिडियटक परीक्षा मे तेजस्वी छात्र हरिमोहन बिहार आ उड़ीसा मे संयुक्त रूप सँ सर्वोच्च्य स्थान प्राप्त कएलनि । १९३२ मे दर्शनशास्त्र सँ स्नातक मे सर्वोच्च स्थान प्राप्त कए स्वर्ण पदक सँ विभूषित भेलाह आ १९४८ मे पटना कॉलेज मे प्राध्यापक नियुक्त भेलाह से आगाँ पटना विश्वविद्यालय मे प्रोफेसर तथा विभागाध्यक्ष पद केँ सेहो सुशोभित केलाह ।

बाल्यकालहि सँ साहित्यिक परिवेश भेटैत रहबाक कारणेँ साहित्य मे हिनक विशेष अभिरुचि स्वभावहि भए गेल रहनि। पिता जनार्दन झा जनसीदनक बहुतो काव्यक पहिल श्रोता प्रो. झा भेल करथि। एहि क्रम मे अपने सेहो पद्य रचब आरम्भ कए देने छलाह। पिताक संग भ्रमण मे रहबाक कारण सँ हिनका विभिन्न साहित्यिक विद्वान् ओ पंडित लोकनिक सानिध्य भेटैत रहलनि। जखन पित्तिक देख-रेख मे नियमित छात्रजीवन आरंभ कएलनि तँ हिनक 'पोएट्रिक' स्थान 'ज्योमेट्री' लए लेलक। बहुमुखी प्रतिभाक संपन्न प्रो. झा सदिखन अपन अध्यापक लोकनिक प्रिय पात्र बनल रहलाह आ नियमित अध्ययनक संग साहित्य सेहो पढ़िते रहलाह। ओना तँ साहित्यिक संसर्ग हिनका सबदिना भेटैत रहलनि मुदा प्रो. झा जखन लहेरियासराय पुस्तक भंडार मे रहब आरम्भ कएलनि तखन आचर्य रामलोचन शरणक रूप मे हिनका एकगोट आदर्श साहित्यिक गुरु भेटि गेलनि। एहिठाम सँ ओ साहित्यिक क्षेत्र मे मुखर भए प्रवेश कएलनि। 

पुस्तक भंडार ताहि समय मे महत्वपूर्ण साहित्यिक केंद्र केँ रूप मे स्थापित भए गेल छल जाहि ठाम ओहि समयक अधिकांश विद्वतजनक आन- जान होइत रहैत छल। प्रतिदिन संध्या काल मे विभिन्न साहित्यिक पक्ष पर एहिठाम परिचर्चा होइत छल। एकर खूब अनुकूल प्रभाव प्रो. झाक साहित्यिक जीवन पड़ भेलनि आ हुनक साहित्यिक विकासक श्रीवृद्धि होबए लगलनि आ हिनक आरंभिक रचना सभ मैथिलीक पत्रिका 'मिथिला' मे प्रकाशित होइत रहलनि। मैथिलीक सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यास 'कन्यादान' एही पत्रिका मे पहिलुक बेर क्रमशः छपैत रहल। एही समय मे हिनक किछु छात्रोपयोगी पोथी सभ सेहो प्रकशित भेलनि यथा 'तीस दिन मे संस्कृत' ,'तीस दिन मे अंग्रेजी' आदि। ई पोथी सभ अपन रोचक शैली आ तथ्यक सहजताक कारण सँ छात्र लोकनिक बीच बहुत प्रसिद्ध भेल छल।

हरिमोहन झा जाहि समय मे रचना करैत छलाह से साहित्यिक आ सामाजिक उत्थान आ जनजागरणक समय रहैक । लोकक परिपेक्ष आ सरोकार मे परिवर्तन होएब आरम्भ भए गेल छलैक। एहि प्रभाव सँ समुच्चा विश्व एकटा नव वैचारिक परिवेश मे प्रविष्ट कए रहल छल। वैश्विक प्रभाव सँ भारत मे सेहो एकाधिक रूप मे परिवर्तन दृष्टिगोचर भए रहल छलैक । एहि परिवर्तनकारी समयक प्रभाव मे हिनक लेखनी मे समकालीन समाज मे पसरल धार्मिक रूढ़ीपंथ केर वर्णन प्रखरतम रूप मे भेटैत अछि। एहि समय मे सामान्यतः दूगोट विचारधारा मुख्य रूपेँ सक्रीय छलैक । एकटा वर्ग पाश्यात आदर्श केँ अपनबैत अपन समाज केँ पुनर्गठित आ चेतना सम्पन्न करबाक आग्रही छल तँ दोसर दिस किछु लोक अपन गौरवमय अतीत सँ सकारात्मक तत्व सबकेँ लए ताहि प्रवाभ केँ समेटैत समाज केँ पुनर्गठित आ चेतना सम्पन्न बनेबाक आग्रही छल। मिथिला पर एहि पुनरोत्थान प्रवित्ति केँ विशेष प्रभाव पड़लै। दोसर वर्ग जे पहिलुक स्थापित व्यवहारक सीमा मे रहैत सुधार चाहैत छलाह तिनकर सीमा के तोरैत हरिमोहन झा धर्मसातर पर प्रहारक रुख अपनौलनी। 

हुनक साहित्य में बुद्धिवाद और तर्कवाद केर सर्वोपरि स्थान भेटैत अछि आ हुनक धारणा रहैन जे तर्क नहि कए सकैत अछि से मूर्ख अछि। हिनक रचना मे एक दिस बौद्धक दुख:वाद केर प्रभाव तँ दोसर दिस चार्वाक केर दर्शनक प्रभाव भेटैत अछि। हिनकर लेखनी मे वर्ण व्यवस्थाक निंदा,दलित विमर्शक पक्ष,सामंती शोषणक विरोध आदि बड़ कम भेटैत अछि,तें हिनका मार्क्सवादी किंवा जनवादी तँ नहि मानवतावादी कहब बेसी युक्तसङ्गत होएत आ से हिनक रचना कन्याक जीवन आ पांच पात्र मे देखल जा सकैत अछि। ई धार्मिक पाखंड केँ अपन लेखनीक जड़ि बनौलनि आ किंसाइत एहि केँ सभक बीज मानि साबित करबाक यत्न कएलनि जे नाक एम्हर सँ छुबु वा उम्हर सँ बात एक्कहि।

अपन रचना काल मे प्रो. झा करीब दू दर्जन पोथीक रचना कएलनि। ई मूलतः गद्यकार छलाह। हिनकर लिखल मैथिली कृति मे विशेषतः उपन्यास आओर कथा अछि । यद्यपि पंडित झाक कविता सेहो ओतबे मनलग्गू आ प्रभावकारी होइत छल। कविता सभ मे व्यंग केर माध्यम सँ सामाजिक व्यवस्था पर प्रहार करैत हिनक कविता ढाला झा ,बुचकुन बाबू, पंडित आ मेम आदि सभ एखनहुँ प्रासंगिक अछि । हिनका द्वारा लिखल गेल उपन्यास सभ मे कन्यादान आ द्विरागमन सबसँ बेसी प्रसिद्ध अछि। बस्तुतः ई एके उपन्यासक दू भाग कहल जएबाक चाही । कथा संग्रह सभ मे प्रणम्य देवता,चर्चरी आ रंगशाला प्रमुख अछि । एकर अतिरिक्त हिनक आत्मकथा 'जीवन यात्रा' जे साहित्य अकादमी सँ छपल आ एहि पोथी पर पंडित झाकेँ मरणोपरांत साहित्य अकादमी पुरस्कार देल गेलनि। हिनक रचना सभ 'हरिमोहन झा रचनावली' नाम सँ सेहो प्रकाशित भेल अछि। हिनक सर्वश्रेष्ट कृति भेलनि 'खट्टर काकाक' तरंग' जकर अनुवाद कतेको भाषा मे भेल। प्रो. झा दर्शनशास्त्रक उद्भट विद्वान छलाह। एहि विषय मे हिनक सेहो किछु महत्वपूर्ण पोथी आ अनुदित पोथी सभ अछि। जाहि मे न्याय दर्शन(१९४०), निगम तर्कशास्त्र (१९५२),वैशेषिक दर्शन (१९४३),भारतीय दर्शन (अनुवाद १९५३) आ ट्रेन्ड्स ऑफ लिंग्विस्टिक एनेलिसिस इन इंडियन फिलोसोफी । एहि सभ मे हिनकर शोध ग्रंथ - “ट्रेन्ड्स ऑफ लिंग्विस्टिक एनेलिसिस इन इंडियन फिलोसोफी” सर्वाधिक प्रसिद्ध अछि। हिनक किछु रचना संस्कृत मे सेहो भेटैत अछि जाहि मे 'संस्कृत इन थर्टी डेज ' आ 'संस्कृत अनुवाद चंद्रिका' छात्रोपयोगी आ प्रसिद्ध अछि। एकर अतिरिक्त प्रो झा कतिपय पोथी/पत्रिकाक सम्पादन कएल जाहि मे 'जयंती स्मारक प्रमुख अछि।

प्रो.झा द्वारा लिखल कथा आ ताहि मे वर्णित पात्र लोकक स्मृति मे सहजहि घर करैत अछि आ किछु पात्र तँ एतेक प्रचलित भेल जकर उदहारण एखनहुँ लोकव्यवहार मे अकानल जा सकैत अछि। चाहे तितिर दाई होथि वा खटर काका। के एहन मैथिलीक पाठक हेताह जे एहि पात्र सँ अवगत नहि हेताह। वस्तुतः प्रो झा केँ अपन भाषा पर ततेक मजगूत पकड़ छनि जे अपन शब्द विन्यास सँ कथानक केँ नचबैत लोकक स्मृति मे अपन विशिष्ट स्थान बनबैत अछि। अपन कथा सभ मे क्लिष्ट संस्कृतक शब्द सभक परित्याग करैत लोक मे प्रचलित शब्द आ फकड़ा आदिक प्रयोग करैत रचना सभ केँ जनसामान्यक लगीच अनैत अछि। गामक ठेंठ शब्द आ गमैया परिवेशक वर्णन करैत सामाजिक कुरुति पर व्यंगक माध्यमे अपन भाषाक निजताक पूर्ण व्यवहार करैत अमर रचना सभ करैत रहलाह। रचना सभ पढ़ैत काल वर्णित घटनाक्रम सद्य: घटित आ वास्तविक प्रतिक होइत अछि। पढ़ैत काल कखन हँसी छुटत आ कखन आँखि नोरायत ई अटकर कठिन भए जाइत अछि। 
हिनक रचना सभ मे परिवर्तनक स्वर उठैत अछि। नव परिवेशक झाँकी प्रस्तुत करैत अछि। पाठक केँ उचित -अनुचित सँ अवगत करबैत ओकरा अपन स्वत्व केँ चिन्हबाक मादे प्रेरित करैत अछि। ग्रामसेविका,मर्यादाक भंग ,ग्रेजुएट पुतौह एहने भूमिका मे लिखल कथा सभ अछि जे एकटा परिवर्तित समाज आ ताहि मे स्त्रीक भूमिका केँ सोंझा अनैत अछि। सामाजिक रूढ़ता पर प्रहार करैत कथा कन्याक जीवन , परिवारिक सामंजस्य आ मध्यम वर्गीय परिवारक सुच्चा चित्रण करैत कथा पंच पत्र आ मिथिलाक व्यवहार सँ परिचित करबैत कथा तिरहुताम सन अनेको कथा सभ अपन संवाद शैली आ कथ्य केर लेल विश्व साहित्यक कोनो भाषा केँ समक्ष ठाढ़ होएबाक सामर्थ्य रखैत अछि।

प्रो.झाक पत्र लिखबाक शैली सेहो विलक्षण रहनि। पिता,अग्रज,माए,पुत्र आ पत्नी सँ नियमित पत्राचार होइत छलनि।आगाँ साहित्यिक पत्राचार सेहो खूब होबए लगलनि। एहि पत्र सभ मे एकदिस प्रो.झाक व्यक्तिगत जिनगी केँ बहुत लगीच सँ देखल जाए सकैत अछि तँ दोसर दिस समकालीन परिदृश्य आ परिस्थितिक केँ सेहो फरीछ अवलोकन होइत अछि। आत्मीय भाषा शैली आ लेखनी मे निहित आपकता सहजहि आकर्षित करैत अछि। हिनक एहि विधाक विलक्षणता दू गोट कथा मे खूब प्रमुखता सँ उजागर भेल अछि। पहिल कथा अछि पाँच पत्र आ दोसर अछि दरोगाजीक मोंछ। पाँच पत्र कथा मे पांच गोट छोट -छोट पत्रक सङ्कलन अछि आ विशेषता ई जे पांचो पत्र विभिन्न मनोभावक मे एकटा समयांतरक संग लिखल गेल अछि। कथाक स्वरुप एकदम छोट अछि मुदा जँ भाव पक्षक विस्तार करी तँ एकटा सम्पूर्ण महाकाव्य बनि सोझाँ अबैत अछि। अभिव्यंजनाक शैली मे लिखल ई कथा अपन विशिष्ट शैलीक कारणे मैथिली साहित्य मे पृथक स्थान रखैत अछि। एहि मे निहित यथार्थक बोध ,करुणा ,सम्बन्धक गरिमा ओ आत्मीयता ,वैवाहिक जीवन आ पारिवारिक स्थिति एकहि संह मुखर भए पाठकक सोझाँ अबैत अछि। दोसर कथा अछि दरोग़ाजिक मोंछ। एहि मे संशय आ द्वन्द केर चित्रण भेल अछि जकर जड़ि मे रहैत अछि एकगोट अधटुकड़ी पत्र। ई कथा अपन रोचक सस्पेंश आ विलक्षण शिल्पक एकगोट माइलस्टोन ठाढ़ करैत अछि। प्रो.झाक केँ डायरी लिखब सेहो खूब रुचैत रहनि। प्रतिदिन किछु ने किछु लिखथि। अपन विचार सभकेँ 'My Stray Thoughts' शीर्षक सँ नोटबुक मे लिखल करथि। एहिसभ विधा मे लिखल रचना सभ संकलन आ प्रकाशनक माँग करैत अछि जाहि सँ पाठक अपन लोकप्रिय साहित्यकार केँ आओर लगीच सँ जानि सकताह।

हरिमोहन झाक गद्य सँ हमरा लोकनि खूब नीक सँ परिचित छी। एहन विरले मैथिली साहित्यानुरागी होएताह जे हिनक कथा सँ परिचय नहि हेतनि। गद्यक तुलना मे हिनक पद्य सँ पाठकक परिचय कम भेल अछि। हिनक गद्य ततेक लोकप्रिय भेलनि जे एहि आलोक मे हिनक पद्य हराएल सन लगैत अछि। बाद मे हरिमोहन झा रचनावली भाग ‍१ सँ ४ धरि प्रकाशित भेल आ रचनावलीक चारिम भाग मे हुनक ओ कविता सभ संकलित कएल गेल जे प्रणम्य देवता ओ खट्टर ककाक तरंग नामक पोथीमे नहि आएल छल। हरिमोहन झा समय-समय पर कविता सेहो लिखैत रहलाह जे विभिन्न समकालीन पत्र - पत्रिका सभ मे प्रकाशित होइत रहल। 

मिथिला मे व्याप्त आडम्बर, अर्थाभाव, परिवर्तित होइत समय आदि विभिन्न विषय पर लिखल हिनक कविता सभ अपन विलक्षण शिल्प आ अद्भभुत शैलीक हेतु सर्वथा पठनीय आ चिंतनीय अछि। हरिमोहन झाक कविता सभ सेहो हुनक कथे जकाँ हास्य-व्यंग सँ ओतप्रोत अछि। एहि व्यंगक ई विशेषता अछि जे ई अपन साहित्यिक गरिमाक निर्वहण करैत एकटा नव दृष्टिकोण पाठकक सोझाँ अनैत अछि। स्थापित चलन ओ कोनहुना ढोआ रहल परिपाटीक विरोध जखन एहि विधाक संग पद्य मे अबैत अछि तँ मनलग्गू होएबाक संगहि एकटा गंभीर विमर्श ठाढ़ करैत अछि जाहि मे समकालीन परिस्थितिक संग आँखि मिलेबाक खगता अभरैत अछि। प्रो.झाक कविता कतेको कवि सम्मलेन आ कवि गोष्ठीक आकर्षण रहल अछि।

प्रो झाक जीवन एकटा स्फुट किंवदंती सँ कम नहि कहल जाए सकैत अछि। प्रो.झा सँ संबंधित बहुतो संस्मरण सभ भेटैत अछि। एहि संस्मरण सभ मे हुनकर व्यक्तित्वक विलक्षणता ,आशु प्रतिभा, नामक धाख,साहित्यिक ओजन ,लिखबाक सनक आ अधीत विद्वताक परिचय भेटैत अछि। हिनक सद्यः स्फूर्त कविताक विषय मे एकगोट प्रचलित संस्मरण एहि प्रकार सँ अछि। जखन ई बीस बरखक रहथि तखन भारतीय हिंदी साहित्य सम्मलेनक अधिवेशन ( मुज्जफ्फारपुर) हरिऔधजीक अध्यक्षता मे भेल रहैक आ मंच पर रामधारी सिंह दिनकर,गोपाल सिंह नेपाली,राम वृक्ष बेनीपुरी सन उद्भट विद्वान सभ उपस्थित रहथिन। एहि बीच एकटा ठेंठ भोजपुरिया कवि मंच पर आबि तिरहुतिया केँ बनबए लगलाह आ कविता पाठ करैत कहला : "अइली अइसन तिरहुत देस/मउगा अदमी उजबुज भेस// मन लायक भोजन न पैली,चुडा दही फेंट कर खैली। एकर उतारा मे प्रो. झा अपन कविता मे कहलखिन -"भोजपुरिया सब केहन कठोर ,पुछैथ तसलबा तोर की मोर// सतुआ के मुठरा जे सानथि,चुडा दहिक मर्म की जानथि। सभा भवन करतल ध्वनि सँ गूँज उठल,हरिऔध जी माला पहिरौलखिन,बेनीपुरी जी बजला बचबा खूब सुनाओल,थएथए भ गेल ,आ भोजपुरिया कवि भरि पाँज कए धए कहलखिन आब तिरहुतक लोहा मानि गेलहुँ। ` 

एहने एकटा आओर संस्मरण अछि। एक बेर आकाशवाणी मे प्रतिभागीक चयन करबाक लेल हिनका जज चुनल गेल रहनि। एकटा गायक ऑडिशन मे समदाउन उठओलक "बड़ रे जतन सँ सिया दाए कें पाललहुँ , सेहो रघुबर लेने जाय।" से तेना खिसिया कए गौलकैक जे बुझाए सियाजीक पोसबाक खरचा माँगि रहल हो। जखन हरिमोहन झाकें पूछल गेलनि जे समदाउन केहन लागल तँ ओ अपन उत्तर मे कहलखिन जे हिनक विधा सँ सम हटा दियौ, ई दाउने टा कए रहल छथि।

मैथिली साहित्य मे विद्यापतिक बाद सबसँ लोकप्रिय जँ कोनो साहित्यकार भेलाह तँ से थिकाह हरिमोहन झा। हिनका द्वारा बनाओल साहित्यिक पात्र सभ आमलोकक बीच खूब प्रचलित भेल। जिनका साहित्यिक रूचि नहिओ रहनि सेहो लोकनि एहि पात्र सभसँ परिचित छलाह आ सामाजिक विभिन्न पक्ष केँ एहि पात्र सभक माध्यम सँ बूझैत छलाह। कोनो साहित्यकारक सभ सँ पैघ उपलब्धि ई होइत छैक जे ओकर रचनाक प्रभाव सँ किछु सकारात्मक परिवेशक निर्माण समाज मे होइ आ ई उपलब्धि तखन आओर विशिष्ट भए जाइत छैक जखन रचनाकार केँ प्रत्यक्ष रूप सँ ई दृष्टिगोचर होइत छैक। प्रो. झाक साहित्यक लोक पड़ अकल्पनीय प्रभाव पड़लैक। कन्यादान पढ़लाक उपरान्त बहुतो युवक लोकनि अपन विवाह मे टाका नहि लेलनि। गामक कतेको कन्या लोकनि बुच्चीदाइ सँ प्रभावित भए आधुनिक शिक्षा लेबाक लेल अग्रसर भेलीह। जाहि अभिजात्य वर्गक किछु लोक हिनक विरोध करैत छल ,हिनक साहित्य केँ अश्लील कहैत छल ताही वर्गक बहुतो माए लोकनि अपन कन्याक विवाह मे 'कन्यादान' पोथी साँठए लगलीह। एहन कहबी अछि जे अभिजात्य पंडित वर्ग प्रो. झाक साहित्यक दिन मे खिधांस करैत छलाह ओ लोकनि राति मे लालटेन मे हिनक साहित्य पढ़ैत छलाह। प्रो. झा मिथिला मे व्याप्त आडम्बर,स्त्री शिक्षाक प्रति उदासीनता, कन्या विवाह आ बहु विवाह सन स्थापित कुरीति आ जाति-धर्मक विभेद मे ओझराएल समाजक विभिन्न आयाम केँ अपन साहित्य मे उजागर करैत,अपन तर्क सँ ओकरा खंडित करैत, ताहि सँ होबए बाला हानि केँ उजागर करैत सहज भाषा आ मनलग्गू संवाद शैली मे पाठक धरि आनि एकदिस सूतल समाज मे चेतनाक विस्तार कएलनि आ दोसर दिस मैथिली कथा साहित्य केँ मजबूती दैत स्थापित सेहो कएलनि।

जहिना विद्यापति मैथिली पद्य केँ स्थापित कएलाह आ एकरा आमलोक धरि पहुँचा साहित्यिक प्रतिष्ठा प्रदान कएलनि तहिना हरिमोहन झा मैथिली गद्य केँ एकटा नव आयाम दैत बेस पठनीय बनओलनि आ मैथिली गद्यक विद्यापति कहेबाक अवसर पओलनि। मैथिलीक श्रीवृद्धिक लेल आजीवन साकांक्ष रहल प्रो. झा द्वारा लिखल उपन्यास 'कन्यादान' पर पहिल मैथिली सिनेमा सेहो बनल। एखनधरि मैथिली मे सबसँ बेसी पढ़ल जाए बला लेखकक गौरव सेहो हिनकहि प्राप्त छनि। हिनक बहुत रास पोथी आब अनुपलब्ध भए रहल अछि आ एहि पोथी सभक मात्र फोटोकॉपी उपलब्ध भए पबैत अछि। एहि मादे विशेष पहल करबाक खगता अछि। मैथिलि भाषा केँ स्थापित करबा मे, लोकप्रिय बनएबा मे, एकर एकगोट बजार विकसित करबा मे हिनक योगदान अभूतपूर्व छनि । ई काव्य शास्त्र विनोदेना बला उक्ति केँ पूर्णतः सत्यापित करैत काव्य, शास्त्र आ विनोद तीनू पर सामान अधिपत्य रखैत अपन रचना सभ मे दिगंत धरि जिबैत २३ फ़रवरी १९८४ केँ देहातीत भेलाह। जिनकर एक कान मे सदति वेदक ऋचा गुंजायमान होइत रहलनि आ दोसर कान मे फ्रायड किंवा चार्वाकक सूक्ति समाहित रहनि, जे विनोद मे खट्टर कका रहथि आ दर्शन मे विकट पाहून, जिनका पर कन्यादान दायित्व रहनि आ तकर जे द्विरागमन धरि निर्वाह कएलनि,मैथिली साहित्यक एहि पितृ पुरुषक आयाम केँ प्रणाम।

सन्दर्भ :
१.देसिल बयना –हरिमोहन झा विशेषांक
२.अंतिका – हरिमोहन झा विशेषांक
३. हरिमोहन झा रचनावली
४. जीवन यात्रा
५ . बिछल कथा

विकास वत्सनाभ

आरएसएस आ स्वतंत्रता संग्राम - संक्षिप्त विवरण


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के स्थापना 1925 मे डॉ॰ केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा नागपुर मे भेल छल। संगठनक मुख्य उद्देश्य हिंदू सभके एकजुट करबाक आ समाजक नैतिक मूल्य सभके सुदृढ़ करबाक छल। ध्यान देबऽ जोग बात ई जे स्व. हेडगेवार स्वयं पहिले कांग्रेस-नेतृत्व वाला राष्ट्रीय आंदोलन में सहयोगी छलाह आ ओ लोकमान्य तिलकक विचार सँ बेसी प्रभावित छलाह। विद्यार्थी जीवन मे ओ ब्रिटिश शासनक खिलाफ बहुत आंदोलन मे भाग लेने छलाह जाहि में असहयोग आंदोलन (1920–22) सेहो शामिल अछि।

संघ केँ लय विरोधी इतिहासकार सभक दृष्टिकोण अलग छल। बहुतों इतिहासकार मानैत छथि जे स्थापनाक बाद आरएसएस सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930–34) अथवा भारत छोड़ो आंदोलन (1942) सन नमहर आंदोलन मे भाग नहि लेने छल। हुनक सबहुक मतानुसार ताहि समय संगठन राजनीतिक टकरावक बजाय सामाजिक कार्य, अनुशासन आ वैचारिक प्रशिक्षण पर बेसी ध्यान देने छल। 1930–40 दशकक ब्रिटिश खुफिया रिपोर्टक मुताबिक़ आरएसएस केँ राजनीतिक रूप सँ ब्रिटिश शासनक लेल खतरा नहि मानल गेल छल। बल्कि संगठन समाज सुधार, भविष्यक भारत आ हिंदू एकजुटता के लय के बेसी मुखर छल। 

अहि सभ में पूर्वोत्तर राज्य आ पटना में व्याप्त देह व्यापार रोकब आ तखन के पाकिस्तान में स्त्री सब के सुदृढ़ आ एकजुट करब आरएसएस महिला विंग के प्रमुख काज छल। 

आरएसएस समर्थक आ ओहि सँ जुड़ल इतिहासकार मानैत छथि जे संगठन अप्रत्यक्ष रूप सँ स्वतंत्रता संग्राम में अपन योगदान देने छल। संघ सामाजिक अनुशासन, एकता आ राष्ट्रीय गौरवक भावना जागृत करब, जकरा ओ औपनिवेशिक शासनक खिलाफ दीर्घकालीन तैयारीक हिस्सा मानैत छलाह- अहि दिशा में प्रयासरत छलाह। अहि वर्ग के इतिहासकार लोकनि हेडगेवारक स्वतंत्रता आंदोलन में व्यक्तिगत योगदान आ किछु स्वयंसेवक द्वारा क्रांतिकारी गतिविधि सह स्वतंत्रता संग्राम संगठन में शामिल हेबाक बात सेहो कहैत छथि।

सारांश ई जे प्रत्यक्ष सशस्त्र वा जन-राजनीतिक संघर्ष में आरएसएसक भूमिका सीमित रहल मुदा अप्रत्यक्ष योगदानक तौर पर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, सामाजिक एकता आ नैतिक दृष्टि सँ समाजक तैयारी द्वारा राष्ट्र-निर्माण में संघ के भूमिका मुखर आ अग्रणी रहल।

Tuesday, 29 July 2025

बिहार की बाढ़ : कितनी ईमानदारी

बात 2018-19 सत्र की है। बिहार (असल में मगध) के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी ने विधान सभा में बिहार के वर्तमान बाढ़ के ऊपर काफी लंबा चौड़ा और उत्तेजक भाषण दिया। इससे पहले सिंचाई और जल संसाधन मंत्री संजय कुमार झा जी ने भी विधान भवन में बाढ़ सुरक्षा पर बड़ी बड़ी बातें की थीं। वो वर्तमान में तटबंधों के सुरक्षित होने और आगे बाढ़ नियंत्रण हेतु बड़ी बड़ी आगामी योजनाओं के बारे में बता रहे थे। हालांकि आर जे डी के एक विधायक ने उनसे सारी रिपोर्ट झूठी होने की बात कही, किन्तु मंत्री जी ने एक सिरे से उनको नकार दिया।

यदि तथ्यों को देखें तो कुल मिलाकर नीतीश कुमार जी ने विधान सभा में भ्रामक और अर्ध सत्य बातें की थी और फिर बाद में उनके मंत्री जी ने भी सायं काल तक इस झूठ के पुलिंदे को जारी रखा था उस वक़्त।


मंत्रालय और मुख्यमंत्री दोनों बिहार में बाढ़ के इतिहास और नेपाल में अतिवृष्टि को बाढ़ का कारण बताते रहे। मंत्री जी को आजादी से पहले और फिर 1947, 1951, 1991, 2004 और 2011 कि बातें याद थी। उन्हें जो बात या तो नहीं याद थी या फिर उन्होंने जिस बात का जिक्र जानबूझकर नहीं किया वो बात थी राष्ट्रीय आपदा विभाग द्वारा लगभग 5 साल लगाकर तैयार की गई रिपोर्ट। 

ख़ैर, तो थोड़े दिनों बाद हालात ये होता है कि बिहार के कई इलाके बांध टूटने से गांव में घुस आये पानी से तबाह हो जाता है, NDRF मुस्तैद होता है किन्तु उनकी संख्यां और आवश्यक नाव आदि काफी कम मात्रा में मौजूद होती है। अधिकतर स्थानों पर सरकारी तंत्र राहत के नाम पर झूठ और दिखावा अधिक कर रहा होता है और अधिकतर अधिकारियों के कान पर जूं तक नहीं रेंगता है। 

इन सब बातों के बावजूद मेरी समझ से संजय झा जी को कम से कम साल 2019 के बाढ़ का दोषी नहीं कहना चाहिए हमें। हालांकि उनके भूतकाल की वजह से उनकी नियति और किस्मत ऐसी है कि उनका हर एक काम विवादित और निंदनीय हो ही जाता है। संजय झा जी दोषी हैं किंतु बाढ़ की तैयारी और उससे निबटने के दोषपूर्ण तरीके के लिए नहीं बल्कि बिना सारी बात जाने, पूर्वग्रह में बड़ी बड़ी बातें और वादे करने के। 

आगे बढ़ने से पहले जान लें कि मंत्री जी की यह बात बिलकुल सच है कि २०१९ की बाढ़ का पानी 2004 से अधिक था। किन्तु इन्हीं सरकारों द्वारा अधिक संख्यां में निर्मित सड़क पुलों की वजह से एक दो जगह छोड़कर यह अधिक जगह नहीं ठहरा। यही वजह भी है कि अभी तक हुआ नुकसान 2004 की अपेक्षा में काफ़ी कम है। 

अब बात राष्ट्रीय आपदा विभाग के रिपोर्ट और केंद्र सह राज्य सरकार को बढ़ नियंत्रण की अनुशंसा की - बात 2007 की है, राज्य में जेडीयु और भाजपा की सरकार के आरक्षित मुख्यमंत्री थे श्री नीतीश कुमार जी। उस साल भी राज्य में बाढ़ की समस्या विकराल थी। जैसे तैसे बुरा समय कटा और कुछ भले लोगों की वजह से देश के गृहराज्य मंत्री ने बिहार की बाढ़ पर विस्तृत अध्ययन और समाधान के लिए NIDM (National Institute of Disaster Management) को आदेश जारी किया। 

प्रोफेसर संतोष कुमार, अरुण सहदेव और सुषमा गुलेरिया की एक कमिटी बनी जिन्होंने अपनी रिपोर्ट 2013 को केंद्र और राज्य सरकार को सौंपी। पूरी रिपोर्ट विस्तृत शोध से भरी और काफी लंबी है किन्तु इसकी अनुसंशा कमाल की, सच के काफी करीब और मेहनत से लिखी गयी है। 

मेरी समझ में किसी भी सरकार या मंत्रालय को अलग से बाढ़ नियंत्रण पर शोध पर समय व पैसा नहीं फूंकना चाहिए। जो भी लोग ऐसा कहते हैं कि हम ऐसा करेंगे या वैसा करेंगे उनको पहले कम से कम एक बार यह रिपोर्ट अवश्य पढनी चाहिए। इसे पढ़कर आपको समझ आएगा कि दरसल कुछ नहीं करना है किसी को, सब किया हुआ है और सिर्फ इम्पलीमेंट करना है। सारे जरूरी एहतियात और क़दम इस रिपोर्ट में मौजूद है, बस आवश्यकता है तो दृढ़ इच्छा शक्ति वाली सरकार और मंत्री की। 

इस रिपोर्ट में बाढ़ का सबसे बड़ा कारण हमसे सटे नेपाल की ऊंचाई और वहां से बहने वाला पानी बताया गया है और नियंत्रण के लिए मुख्य रूप से ये उपाय बताए हैं: 

- ऊंचाई वाले डैम का निर्माण (रिपोर्ट में इसके स्थान भी बताए गए हैं)
- डैम पर हाइड्रो इलेक्ट्रिसिटी का निर्माण,
- पानी के बहाव की मुख्यधारा से सिंचाई के नहरों का निर्माण,
- नदियों के रास्ते में किनारों पर वृक्षारोपण,
- तटबंधों का निर्माण, (1954 की रिपोर्ट के हिसाब समुचित तटबंध नहीं हैं)
- जल पथ में ऊँचे हाइवे जैसे अवरोधक रोकना,
- ऊंचाई वाले इलाके पर रिहायशी स्थान बनाना,
- नदियों के पेट से गाद की सफाई,
- अधिक प्रभावी क्षेत्र में कंप रोधी मकान बनाना,
- बाढ़ की स्थिति में बचने को शेल्टर का निर्माण और
- नाले व पोखरों की साफ सफाई. 

आगे यह रिपोर्ट बाढ़ आ जाने की स्थिति में उससे निबटने के उपाय भी बताती है। ऐसे में यदि हमारा सिंचाई मंत्रालय और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जो की अब मात्र मगध के मुख्यमंत्री माने जाते हैं, सचमुच इस क्षेत्र में बाढ़ नियंत्रण को लेकर चिंतित है तो बजाय बड़ी बड़ी बात करने के और बाढ़ नियंत्रण के नाम पर करोड़ों फूँकने के पहले शांत मन से इस रिपोर्ट को पढ़ें और धीरे-धीरे ही सही, एक एक कदम उठाएँ... अन्यथा तो पचासियों साल से इस क्षेत्र में बाढ़ राहत और बाँध में चेपी साटने के नाम पर हजारों करोड़ की लूट होती ही आ रही है... आप आगे भी लहरिया लूटते रहिए।

Monday, 7 July 2025

मुखिया चुनाव - रमौली पंचायत - प्रवीण कुमार झा

मेरे जन्मस्थान में पंचायत चुनाव है। मेरा 'बेलौन' गाँव रमौली पंचायत में पड़ता है। रमौली, बेलौन और किशनपुर (नवादा) के कुल चार उम्मीदवार चुनाव में खड़े हैं जिसमें से एक उम्मीदवार मेरा भाई मनीष झा भी है।

चार उम्मीदवारों में से एक किशनपुर से उगन झा, निवर्तमान मुखिया हैं जिन्हें दो पद के लाभ में दोषी करार कर पदच्युत कर दिया गया। दूसरे उम्मीदवार रमौली निवासी और पूर्व मुखिया कुमुद मिश्रा हैं जो स्वयं चुनाव आयोग के द्वारा चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित हैं, सो उन्होंने अपनी आदरणीया माता जी को उम्मीदवार बनाया है। तीसरे उम्मीदवार रमौली से ही रौशन झा हैं जो पेशे से वकील हैं किन्तु क्षेत्र में कुछ करने से अधिक सबकी शिकायत करने और काम रोकने को लेकर अधिक चर्चित हैं।

वोट की संख्या के हिसाब से रमौली यदि एकजुट हो जाए तो किसी भी उम्मीदवार के लिए कोई चांस नहीं, किन्तु हमारा पंचायत जागरूक और समझदार लोगों का पंचायत है और इसका ही उदाहरण पेश करते हुए सबसे कम वोट वाले किशनपुर क्षेत्र से उगन झा विजयी हुए थे पिछले मुखिया चुनाव में।

मेरा परिवार तकरीबन चार पुश्तों से इलाके भर में समाज सेवा और लोकन्याय के लिए जाना जाता है। आज के चर्चित नेता रविशंकर प्रसाद जब वकालत सीखने के क्रम में स्व. ताराकांत झा जी के यहाँ रहते तो उन्होंने हमारा केस हाई कोर्ट में लड़ा था। मुझे याद है जब लैंड लाइन पर रविशंकर प्रसाद जी ने मुझे कहा था - चाचा जी को कह दीजिए वो जीत गए, वही मुखिया थे और वही रहेंगे।

परिवार में मेरे पिता और अब स्व. चाचा जी के "अतुल्य" रिश्ते का उदाहरण लोग आज कि मतलबी दुनिया में दूर दूर तक देते हैं। उन्हीं चाचा जी के लड़के मनीष के साथ मैं उसी भाई की तरह का संबंध रखने के प्रयास में हूँ। मनीष कमियों से पड़े नहीं है और यह मुझसे अधिक कोई नहीं जानता। वो लोग भी नहीं जो लोग मुझे फोन कर उसके किस्से बताते हैं और यह भी कहते हैं कि उन्हें पता है इसीलिए मनीष के लिए मैंने कोई प्रचार नहीं किया।

ऐसे सभी भाइयों से मात्र इतना कहूँगा की वो मनीष है जो चौबीस घंटे समाज सेवा को तैयार रहता है, अपने काम के लिए लड़ने वाला आदमी है, इलाके में किसी से भी अधिक पहुँच रखने वाला है, समाज के हर एक वर्ग और पंचायत के सभी गाँव में हर एक परिवार से जुड़ा है, उस तक किसी की भी पहुँच आसान है, वो किसी को झूठा आश्वासन नहीं देता, नकारात्मक राजनीति नहीं करता और ना ही नशेड़ी है... अंत में मैं उसका अभिभावक हूँ जो उसे समाज सेवा में कहीं भी पथभ्रष्ट होने नही देगा।

मनीष ने चुनाव में बहुत जमीनी और प्रौढ़ मुद्दे चुने हैं हैं जिसमें किसान चौपाल, पुस्तकालय, मवेशी सुरक्षा और सड़कों पर जल जमाव प्रमुख हैं। आगे जल और बिजली संबंधी समस्याओं के लिए हेल्पलाइन नंबर जारी करने की योजना भी है उसकी।


संप्रति मात्र चौदह महीने के इस कार्यकाल हेतु आप सभी पंचायत वासियों द्वारा मनीष झा को वोट कर पंचायत का मुखिया चुनने का आग्रह रहेगा। चुनाव 9 जुलाई को है और उसका चुनाव चिन्ह EVM क्रमांक दो पर है - ढोलक छाप !

Thursday, 16 January 2025

श्रेष्ठ शासक, दानवीर, धर्म रक्षक और दूरदर्शी उद्योगपति राजा - रामेश्वर सिंह ठाकुर

एक #मैथिल थे... जो 1878 में भारतीय सिविल सेवा में भर्ती हुए थे और फिर क्रमशः दरभंगा, छपरा तथा भागलपुर में सहायक मजिस्ट्रेट रहे। वो लेफ्टिनेन्ट गवर्नर की कार्यकारी परिषद में नियुक्त होने वाले पहले भारतीय भी थे।

वह 1899 में भारत के गवर्नर जनरल की भारत परिषद के सदस्य थे। बिहार लैंडहोल्डर एसोसिएशन के अध्यक्ष, ऑल इंडिया लैंडहोल्डर एसोसिएशन के अध्यक्ष, भारत धर्म महामंडल के अध्यक्ष, राज्य परिषद के सदस्य, कलकत्ता में विक्टोरिया मेमोरियल के ट्रस्टी, हिंदू विश्वविद्यालय सोसायटी के अध्यक्ष और भारतीय पुलिस आयोग के सदस्य भी थे वो मैथिल।

ये मैथिल कामाख्या मंदिर के प्रबंध न्यासी भी थे... भारतीय उद्योग संघ के अध्यक्ष भी थे, मैथिल महासभा के अध्यक्ष भी थे और गंगा केनाल कमीशन के सदस्य भी थे। 

इस मैथिल भाई ने बिहार में चीनी कारखाना लगाया, बंगाल में जुट कारखाना लगाया, कानपुर में कपड़ा कारखाना भी लगाया, असम में चाय बगान भी डाला और पटना में प्रकाशन की स्थापना भी की।

ये गैर झा / मिश्रा मैथिल ऐसे दानी थे की कोलकाता यूनिवर्सिटी, पटना मेडिकल कॉलेज, दिल्ली के लेडी हार्डिंग कॉलेज, अलाहाबाद यूनिवर्सिटी और अलीगढ़ यूनिवर्सिटी को जमीन, मकान और अकूत धन दे दिया।

इतनी विविधताओं का नेतृत्व करनेवाला भारत में तो क्या दुनियाँ भर में शायद ही कोई दूसरा होगा। शासन, धर्म, स्वास्थ्य, उद्योग और शिक्षा के तत्कालीन सर्वोच्च संस्थाओं का एक साथ अध्यक्षीय पद का निर्वाहन करने की क्षमता भारत के दूसरे किसी व्यक्ति में नहीं है। 

कहते हैं रामेश्वर सिंह जब 1898 में राज दरभंगा यानी 'आरडी ग्रुप आफ कंपनी' की कमान संभाले तो कंपनी का वेल्थ 19 करोड़ के करीब था. 1929 में उन्होंने अपनी कारोबारी सूझबूझ से कंपनी को लगभग 2 हजार करोड़ की कंपनी बना दिया था. इस मैथिल का रिकार्ड रतन टाटा भी नहीं तोड़ पाये...

किन्तु... किन्तु, किन्तु, किन्तु साहिबान... हम मैथिल महान कविता पाठ, माला-दोपटा-पाग और झा-2 की आड़ में इस महापुरुष को भुला बैठे हैं। हम इनके द्वारा निर्मित बिल्डिंग्स के सामने फोटो सेशन और रील मेकिंग तो कर लेते हैं किन्तु इस महान विभूति सह उनकी कीर्तियों को बिसार देते हैं।

आज ही के दिन 16 जनवरी 1860 को जन्में दरभंगा महाराज स्व. रामेश्वर सिंह ठाकुर को नमन !


#DarbhangaMaharaj #RameshwarSingh #MithilaState

Wednesday, 18 December 2024

अहाँ के अहाँ से निकालि नाटक बनायब - अकादमी को बधाई

मिथिला में उम्र का आखरी पड़ाव आसन्न देख लोग जल्दी जल्दी से यथासंभव पुण्य कर्म करने लगते हैं। उनकी कोशिश रहती है कि जीवन भर के गलत को यथासंभव सही कर लें, नहीं नहीं, मैं यह बिल्कुल नहीं कह रहा की मैथिली साहित्य अकादमी अपने उम्र के आखरी पड़ाव में हैं... हालांकि जिस हिसाब से पहले #मैथिली शिक्षा को समाप्त किया गया, फिर इसमें अवधि आदि को मिश्रित करने की साजिश हुई, इसे शास्त्रीय भाषा होने से दूर किओय गया... हालिया दरभंगा रेडियो स्टेशन से इसके प्रसारण पर रोक भी लगी, संभव है, मैथिली में साहित्य अकादमी भी समाप्त कर दिया जाए...

विषयांतर पर अवरोधक का इस्तेमाल करते हुए, वर्ष 2024 का मैथिली भाषा में मैथिली साहित्य अकादमी पुरस्कार आदरणीय महेंद्र मलंगिया सर को देने की घोषणा अकादमी द्वारा जीवन भर के किए पापों को कुछेक पुण्यों से ढंकने की कोशिश दिखती है मुझे। सर की पुस्तक प्रबंध-संग्रह को इस पुरस्कार के रूप में चयनित किया गया है। विभिन्न कारणों से पिछले तकरीबन दस वर्षों से विवादित रहा यह पुरस्कार इस बार निर्विवाद रूप से न केवल एक सुयोग्य व्यक्ति को दिया गया बल्कि इसे एक Delayed या फिर Justice Due की तरह का निर्णय भी कहा जाएगा।

मैथिली के सुपरिचित नाटककार, रंग निर्देशक एवं मैलोरंगक के संस्थापक अध्यक्ष महेंद्र सर ने जितना कुछ मैथिली साहित्य को दे दिया है उसे देखकर अकादमी ने उन्हें पुरस्कृत कर खुद को सम्मान दिया ऐसा कहना तो यथोचित होगा ही साथ साथ इस पुरस्कार की घोषणा के बहाने साहित्य अकादमी दो अन्य बातों के लिए भी बधाई का पात्र है -
  • पहली बात - इधर बीते कुछ वर्षों से फैल रहे मैथिली काव्य संस्कार के प्रदूषण से मुक्ति हेतु और
  • दूजी बात - 1991 में रामदेव झा रचित "पसिझैत पाथर" के बाद 33 वर्ष उपरांत नाटक केटेगरी में पुरस्कार हेतु।

मिथिला-मैथिली से रत्ती भर सरोकार रखने वाला भी महेंद्र मलंगिया जी से परिचित होगा ही। नाटक और उसके मंचन के लिए ख्याति सह जनस्नेह पा चुके महेंद्र सर का रचना संसार एक साहित्यकार द्वारा People Connect का श्रेष्ठ उदाहरण है। इस संबंध में एक डाक्यूमेंट्री में उनका ही एक ग्रामीण कहता है - "वो गाँव घर के वाद-विवाद को देखते भी नोट बनाते रहते। किसने क्या कहा, कहते हुए उसका भाव, भाव-भंगिमा और उतार चढ़ाव... सब पर नजर रहती महेंद्र जी की जिसे वो हूबहू अपने नाटकों में उतार दिया करते थे।"

20 जनवरी 1946 को जन्में श्रीमान महेंद्र झा जी अपने गाँव के नाम मलंगिया से महेंद्र मलंगिया बने। मैथिली साहित्य में कमोबेश सभी पुरस्कार पा चुके मलंगिया जी ने अपने साहित्य संसार का पसार सीमा पार के मिथिला से आरंभ किया और फिर हमारी पार वाले मिथिला के हो गए। उत्तरोत्तर अपने नाटक, शोधकार्य और अन्यान्य साहित्यिक रचनाओं के अलावा मलंगिया जी एक सहज, सुलझे और सामाजिक सरोकार वाले व्यक्ति हैं। रेखांकित करने वाली बातों में - इनकी पुस्तक “ओकरा आँगनक बारहमासा” और “काठक लोक” ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा के मैथिली पाठ्यक्रम में है। साथ ही इनकी दो पुस्तक त्रिभुवन विश्वविद्यालय, काठमाण्डू के एम.ए. पाठ्यक्रम मे भी है।

विडंबना देखिए की इनके नाटक जिस दरभंगा रेडियो स्टेशन पर सुनाए जाते थे, अभी हफ्ते भर पहले उसे बंद करने का फरमान जारी हो गया है... मैं नहीं कह रहा कि ये उसकी भरपाई है किन्तु अब महेंद्र मलंगिया जी के नाटक वहाँ नहीं सुना जा सकेगा। 


मलंगिया जी के संबंध में मैथिली साहित्य के जीवित पितामह स्वयं भीमनाथ झा जी द्वारा कही गई कुछ बातें काबिल-ए-गौर है। मलंगिया जी के एक जन्मदिन की बधाई पर भीमनाथ सर के शब्द -

"कोनों स्थिति उकरु नै, कुनो लोक अनचिन्हार नै, उकरुओ के सुघड़ आ अनचिन्हारो के आप्त बना लेबअ बला गुण छनि हिनका में, महा गुणझिक्कू छथि, सोझा बला के गुण सुटट् सs झिक लैत छथिन, अहाँ के पतो नै लागअ देता आ अहाँ के खखोरि लेता। आ ओहि खोखरन के तत्व के सत्यक नाटक में फिट क देता। ई बनबय कहाँ छथि, रचैत कहाँ छथि, ई त हमरा अहाँ सs, चिन्हार आ अनचिन्हार स, गाम सौं, ल लैत छथि या नाटक में ओहिना के ओहिना राखि दैत छथि। त अहिना में हिनक नाटक, टाटक कोना भ सकैत अछि। 

हरदम अनमोनायल लगता, कखनो ओन्घायलयक सीमा धरि, तेजी न चलबा में न बजबा में। मुदा रेजी चक्कू थिका ई, कोन बाटे नस्तर मारि के अहाँ से अहाँ के निकालि लेता आ अहाँ के पतो नै चलय देता। ओहि अहाँ के ई धोई पोईछ के नाटक में पीला दैत छथि आ असली चेहरा ठाढ़ क दैत छथि। अहाँ ठामहि छी आ अहाँ के 'अहाँ' पर ओहि समेना में हजारों लोक ढहक्का लगा रहल छथि। जे नै देखैत छी से देखा देब, असंभव के संभव बना देब। येह त हिनक नाटक थीक। 

कतेको नाटककार जादूगर बनि जाइत छथि आ रंगमंच पर जादू देखबैत छथि। जादू लोक जतबा काल देखैत अछि ततबे काल चकित होईत छथि। खीस्सा खतम या पैसा हजम। मलंगिया जी के मुदा जादूगर नै कहबनि। किएक त पैसा हजम भेलाक बादो हिनक खीस्सा जारिए रहैत छनि। ओ अहाँ में खीस्सा के लस्सा साटि जाइत छथि आ हिनक ठस्सा ई, जे लस्सा लगा देल बक टिटियाई'या, ओ अपने टघरि जाइत छथि दोसर शिकार में। हम त पक्का शिकारी कहैत छियनि हिनका, अचूक निशानेबाज... पक्का खिलाड़ !"

रीति-रिवाजों के मुताबिक हम सब मलंगिया जी के साथ लिए अपनी अपनी तस्वीरों को चस्पा कर उन्हें बधाई दें... ईश्वर उन्हें निरोग रखते हुए दीर्घायु बनाए... उनके साथ वाली तस्वीर न लगा कर उनके कंजूस हस्ताक्षर की तस्वीर चेप रहा हूँ और साथ साथ उनके ही मित्र श्री भीमनाथ झा जी द्वारा दिए टास्क "वर्ण रत्नाकर" पर उनके कार्य की प्रतीक्षा में - एक प्रसंशक ! 



Thursday, 4 April 2024

केदार नाथ चौधरी - रिटायर उम्र के फायर साहित्यकार

हमारे मिथिला में एक गाँव है - "नेहरा" - कहते हैं सुबह -सुबह इस गाँव का नाम लेना अशुभ होता है. इस 'अशुभता' से बचने को कोई इसे "बड़का गाँव" कहता है, कोई "पुबारि गाम" तो कोई "चौधरी गाम". इसी गाँव के अभिभावक कुसुम-किशोरी के यहाँ दिनांक ३ जनवरी १९३६ को एक पुत्र रत्न का जन्म हुआ. यह गाँव आरम्भ से ही तुलनात्मक रूप से आस पास के गाँवों से अधिक विकसित गाँव रहा है. हालाँकि मिथिला में विकास की परिभाषा पढ़ लिख कर परदेश में नौकरी रही है. बालक पहले अर्थशास्त्र में उच्च शिक्षा और फिर लॉ की डिग्री उपरान्त कलकत्ता जाकर नौकरी करने लगा.  

जैसा की होता आया है. उम्र के भिन्न पड़ाव पर लोग अपनी मान्यताएं और ज्ञान कोष अपग्रेड करते हैं. एक ब्रिटिश कंपनी में काम करते बालक ने खुद को अपग्रेड किया और उसे इस बात का भान हुआ की सफलता यह नहीं है. मंजिलें और भी हैं... ये तो छोटी पहाड़ी चढ़ा हूँ... आगे और भी कई ऊंचे पहाड़ हैं. हाँ, यहाँ नौकरी करते हमारे बालक ब्रो मैथिली आन्दोलन में भी सहभागी होते रहे.

नए मुकाम की राह में तक़रीबन सात-आठ वर्ष की नौकरी के उपरांत १९६९ में यह बालक अर्थशास्त्र पढने कैलिफोर्निया चला गया. तदोपरांत सन-फ्रांसिस्को विश्वविद्यालय से मैनेजमेंट की पढ़ाई कर १९७८ में भारत लौटा और फिर ईरान सह फ़्रांस के संस्थानों में कार्य करते स्वदेश के मुंबई और पुणे में कार्य कर रिटायर हुए. 

मिथिला में रिटायर होने के बाद बहुसंख्यक अभिभावक अपने इर्द गिर्द का समाज और अपने ही बालक वृन्द को "मैनेज" करने का शौक पाल लेते हैं...धर्म-कर्म, वेद-पुराण और गाँव अधिक याद आने लगता है उन्हें... उनपर स्वयं को महान साबित करने का दवाब ठीक वैसे ही हावी हो जाता है जैसे उम्र के ४५ वसंत के बाद सुन्दर लगने का दवाब महिलाओं को और आज स्वयं को नेहरु सा बड़ा साबित करने का दवाब मोदी को है. (इन पंक्तियों पर कुतर्क को तैयार मैथिल से कहूँगा - कुएं का मेढक कब तक बने रहोगे, दुनियां देखो, व्यावहारिक बनो, सच स्वीकारो) 

हाँ तो बात रिटायर होने के बाद की थी. अब तक देश समाज में केदारनाथ चौधरी के नाम से जाने माने हो चुके बालक ने मिथ तोड़ा और अपने गाँव से दूर लहेरियासराय में अपना ठिया बनाकर कथित मैथिल बुजुर्गों से अलग राह चुनी. इस तरह से लगभग सत्तर वर्ष की आयु में उन्होंने आगे का जीवन मैथिली के लिए समर्पित किया. 

मेरे हिसाब में डिग्री, उम्र (अनुभव वाली, काटी गयी नहीं), पैसे खर्च करना और यात्राएं करना आपका ज्ञान बढाते हैं... संयोगवश केदार बाबु में यह चारों था. उनकी मैथिली में यह सब झलका भी. उनका साहित्य सहज भाषा, प्रवाह और व्यावहारिकता के करीब रहा. कई जागृत पाठक को ऐसा कहते/लिखते सुना - उनका लिखा पढ़ते ऐसा लगता है जैसे घटना सामने घट रही हो.  

केदार बाबु के साहित्य की शुरुआत मिथिला समाज को हिलोरने की कोशिश में "चमेली रानी" और "माहुर" से हुई. उनकी साहित्य यात्रा के दुसरे फेज में ग्राम्य जीवन सह आध्यात्म को ध्यान में रख लिखी पुस्तक आयी - "करार" - इस पुस्तक के माध्यम से अपने गाँव में पाए "छोटका काका" की उपाधि को चरितार्थ किया उन्होंने... आगे "हिना" अबारा नहितन" और अंत में "अयना" - इसमें "अबारा नहितन" मैथिली फिल्म "ममता गाबय गीत" के बनने की गाथा है. मैथिली क्षेत्र के बड़े और गरिष्ठ विद्वान् इस सम्बन्ध में बोलते ही आये हैं. खासकर उनकी मृत्यु के बाद उन्हें मैथिली सिनेमा का पुरोधा कहने वाले लोग, आज सिनेमा के नाम पर खुद को महान बनाते लोग और फिल्म के बहाने अपना छुपा एजेंडा साधते लोग जीते जी उनके संपर्क से दूर ही रहे... यह नया भी नहीं है, स्व. रामदेव झा जी इसके उदाहरण रहे हैं जब दरभंगा में रहते लीजेंड लोग उनका हाल जानने नहीं गए और मृत्यु के बाद "बवाल" काटते खलिया पैर नाचे.

चूँकि अपनी उम्र के लगभग ७० वर्ष की उम्र में मैथिली सेवक बने, सो कॉल्ड एलीट मैथिली साहित्यकार सह गरिष्ठ मैथिलों के बीच स्वीकारोक्ति नहीं मिली. ऐसे उदाहरण आज भी हैं जब खुद को साहित्यकार कौम से और दूजे को "विदेह" धर्म का मानते हैं... इस पर आगे लिखकर आपका और मेरा जी कसैला नहीं करना चाहता...

एक सम्मान समारोह में मंजर सुलेमान जी ने गलत नहीं कहा था - "जैसे हरिमोहन झा अपने उपन्यास के लिए प्रसिद्ध हुए, केदार बाबु की कीर्ति भी वैसी ही है."  श्रीमान कामेश्वर चौधरी ने श्री केदारनाथ चौधरी के बारे में कहा था  "अंग्रेजी पढ़े ही मैथिली का सम्मान बचा सकते हैं"  - मेरे हिसाब से मैथिली को वर्तमान सो कॉल्ड मैथिली पुत्रों से बचाए रखने की आवश्यकता भी है सर... 

आजन्म उर्जावान और कर्मठ व्यक्ति के लिए असहाय बिस्तर बहुत कष्टकारी होता है... नमन ! श्रद्धांजलि ! #सर 

Wednesday, 20 March 2024

पुस्तक समीक्षा - ललना रे (दीपिका झा)

"ललना-रे" - बाल-साहित्य के तौर पर लिखी इस किताब की साज सज्जा, आवरण, छपाई, पेपर क्वालिटी और इन सब से ऊपर इसका फॉण्ट साइज़ दर्शनीय सह सुपठ्य है. नवारम्भ प्रकाशन ने छपाई को बेहतर करने का उत्तरोत्तर प्रयास किया है जिसका एक उदाहरण है यह पुस्तक. हाँ, अध्याय/ कथाओं के शीर्षक को बेहतर फॉण्ट दिया जा सकता था. 

शुरुआत पुस्तक की प्रस्तावना से जिसे लिखा है सुपरिचित अजित आजाद जी ने. होता क्या है कि जब हम  लगातार रूटीन वर्क करते हैं तो हम चीजों का सामान्यकरण कर देते हैं, अलग अलग तरह के साहित्य का पृथककरण नहीं कर पाते. अजित जी द्वारा लिखित प्रस्तावना का यही हाल हुआ है. उनके लेखन की समग्रता का कोई सानी नहीं किन्तु यहाँ प्रस्तावना लिखते एक तो वो ये भूल गए की यह बाल-साहित्य  है और दूजे प्रस्तावना लिखते वो पुस्तक समीक्षा सा लिख गए जिसमें समूचे पुस्तक का कौतुहल उजागर कर दिया है उन्होंने. संभवतः पुस्तक की लेखिका से अपनी कोई ख़ास दुश्मनी निकाली हो उन्होंने. :)...  एक तरह से पुस्तक में मौजूद हर एक रचना का पोल-खोल उन्होंने यहीं कर दिया है. नि:संदेह वो सुयोग्य हैं, आगे ध्यान रखेंगे. 

अब बात कथाओं की. कुला जमा अठारह कहानियों वाली यह पुस्तक पांच से पंद्रह वर्ष के बच्चों को केन्द्रित कर लिखी गयी है. यहाँ प्रकाशकों को मेरी एक सलाह रहेगी की सिनेमा की तरह पुस्तकों को भी उम्र के हिसाब से UA, UA16, A आदि सर्टिफिकेट दी जाये. 

पुस्तक की कुछ बातें जो आकर्षित करती हैं उनमें से एक है कि लेखिका ने किसी भी कथा में अनावश्यक भूमिका नहीं लिखी और ना ही जबरिया कोई भारी-भरकम शब्द ही घुसाया है. सभी कहानियां काफी सहज, सरल और सुपठ्य हैं. हाँ पहली कहानी में एक करैक्टर "शकूर-अहमद" अनावश्यक लगा मुझे. यह एक नया चलन है संभवतः मैथिली साहित्य में... इसे अनदेखा करते हुए बात पुस्तक की. 

विष्णु शर्मा द्वारा लिखी प्रसिद्ध पुस्तक है "पंचतंत्र" जंगली जीवों को पुस्तक के चरित्र बना कर लिखी कहानियों द्वारा बाल मन को सीख देना इस पुस्तक का लक्ष्य था जिसमें कई दशकों से यह पुस्तक सफल भी रही है. अब जबकि हमारे विद्यालयों में नैतिक शिक्षा की पढाई बंद है, आज भी अभिभावक अपने बच्चों को नैतिक शिक्षा के लिए "पंचतंत्र" उपहार देते हैं.

दीपिका झा जी द्वारा लिखी इस पुस्तक की सभी कहानियों में रोचक घटनाक्रम के द्वारा एक अच्छी सीख देने का प्रयास दिखा है मुझे. जबकि आज के दौर में बच्चे अपनी जन्मभूमि से कट रहे, उन्हें अपनी सभ्यता, ग्रामीण परिवेश और मानव मूल्यों से परिचय करवाती है यह पुस्तक. "अतू" कथा में बाबा द्वारा पालतू कुत्ते को रोटी या चावल का कौर खिलाने का जिक्र नाना की याद दिला गया मुझे जो नित भोजनोपरांत यही  करते थे.  

सभी कथाओं में नैतिक शिक्षा से जुडी एक सीख को आप कहानी की ही एक पंक्ति में पा सकते हैं. कुछ उदाहरण देखें - 

उपयोगी पात - अहाँ के त किताबो स बेसी बुझल अहि बाबा. 

सुआद आ की स्वास्थ्य - जीवन में सुआद आवश्यक छैक मुदा स्वास्थ्य स बेसी नै.

आमक गाछी - आम (सुफल) भेटबाक ढंग सबके लेल अलग अलग होईत छैक.

रंगोली - अपन कला आ संस्कृतिसं प्रेम करब आवश्यक छैक मुदा ताहू स बेसी आवश्यक अपन कला के विस्तार.

वाची-प्राची - कखनो ककरो अपनासं कमजोर नै बुझबाक चाही... कठिन परिश्रमक कोनो विकल्प नहि.  

ऐसे में जबकि मैथिली विद्यालयों से दूर है ही, बच्चे सिंगापूर, दुबई और अमरीका की ओर तक रहे, इस पुस्तक के प्रचार प्रसार से हम अपनी भाषा-संस्कृति के लिए इन दोनों ही राक्षसों पर वार कर सकते हैं. मैं कम से कम दस बच्चों में इस पुस्तक को बांटने का प्रयास करूँगा... आप सब भी पढ़ें. 

Saturday, 9 March 2024

मेरे प्यारे मैथिल मित्रों

अरे नहीं नहीं, मैं कुछ सुनाने वाला नहीं... चूँकि किसी ने सुनना नहीं सो मैंने भी अब कहना छोड़ दिया है... सो आप सब यूँ ही कमाल करते रहें, धोती फाड़ कर रुमाल करते रहें.... पाग-दोपटा पहनाते और पहनते रहें.... मिथिला महान गाते रहें, आयोजन के नाम पर मिथिला-मैथिली के विस्तार का दंभ भी भरें और मैथिली भाषा के नाम रुदन करते दो टके का नेता भी बनते रहें. मुझे किसी से कोई शिकवा गिला नहीं इसे लेकर. 

हाँ तो जय जय सिया राम आप सबों को. असल में कुछ बातें याद दिलाने का मन हुआ, आखिर मैं भी मैथिल हूँ, थोडा थेथड़पना तो होगा ही मेरे भी अन्दर. कई वर्ष पहले की बात है, टीवी शो "इंडियन आइडल" में बेटी मैथिली ठाकुर के नाम पर मैथिलों की एक मुहीम चली थी. उसको स्टार बनाने की मुहीम.  मैंने अपने "सच बात कहीं बोलें" वाले स्टाइल में इसका विरोध करते लिखा था - "उसे आकाश छूने लेने दो, मिथिला की नहीं देश की बेटी बन लेने दो उसे... तभी जीतेगी" - लाजिमी था, अभियानियों को मेरी बात अरुचिकर लगी. किसी ने दबी जबान तो किसी ने बदजबानी से मेरा पुरजोर विरोध किया. आगे जो कुछ भी घटा अब ईतिहास है. 

खैर, दिन बीते, कई मौकों पर बेटी मैथिली ने अभियानियों को निराश किया. या फिर यूँ कहें की उनकी अपेक्षाओं पर खड़ी नहीं उतरी (उनके धुन पर नाचने से इनकार कर दिया) और वही हुल्ले-लेले करने वाले अभियानी मैथिली को मिथिला विरोधी बताने लगे. आदतन मैंने इसका भी विरोध किया. मेरा मानना है कि भले तुमलोग कितना भी उछल लो कोई भी मिथिला का बेटा या बेटी मिथिला से पहले अपने परिवार का होता है, उसके निजी जीवन की अपनी प्राथमिकताएं होती हैं, उसका खुद का संघर्ष होता है, इस संघर्ष में हमारा तुम्हारा कोई भी सकारात्मक योगदान नहीं होता, सफ़लता प्राप्ति उसकी पहली मंजिल होती है और इसे पाने को सिर्फ मिथिला नहीं अपितु समूचे राष्ट्र और फिर विश्व को उसका फलक बनने दो. 

अब तक आपको फिर से मेरी बात बुरी लगने लगी होगी... अभी रुकिए थोडा, थोड़ी देर और पढ़िए, संभव है आप मेरे इनबॉक्स में अपशब्द तक पहुँचने तक पहुँच जाएँ. हाँ तो जब कोई मिथिला का बेटा या बेटी अपने मुकाम को पा जाये, जब वो कुछ करने लायक हो जाए, जब उसके खुद के ख्वाब पुरे हो जाएँ तो फिर आप उसका आंकलन करें की उसने मिथिला-मैथिली हेतु क्या योगदान किया. क्योंकि तब वो सबल और उन्मुक्त होता है... अभी त्वरित मेरे दिमाग में भास्कर-ज्योति का नाम आ रहा है जो इसका बढियां उदाहरण हैं. अपना पैर जमाने के बाद वो मैथिली भाषा साहित्य और मिथिला समाज हेतु सदेह योगदान को तैयार होते हैं. 

इसी सन्दर्भ में बात कल के एक घटनाक्रम की करना चाहूँगा. देश में चुनाव का माहौल है, प्रधानमंत्री मोदी ने क्षेत्रीय इलाकों में सांस्कृतिक योगदान हेतु एक आयोजन किया मंडपम. इसमें बेटी मैथिली ठाकुर भी सम्मानित हुयीं. प्रधानमंत्री ने इस कार्यक्रम में क्षेत्रीय भाषा के गीत संगीत के महत्व की बातें की और मैथिली से कुछ गाने का आग्रह भी किया. मैथिली अब सबल और उन्मुक्त हो चुकी हैं, उस फलक पर उनका मैथिली में गाना उनको नया आयाम देता... अफ़सोस, उन्होंने हिंदी में गाया... संभवतः मैथिली की अपनी कोई मज़बूरी रही होगी, उनके मार्गदर्शकों का दवाब भी रहा हो शायद किन्तु वो आन्दोलनकारी जनता पता नहीं किधर है फ़िलहाल. 

यह एक मात्र उदाहरण है, इस कड़ी में कई स्थापित नाम और संस्थाएं दोषी हैं. जब हम मात्र फेम के लिए मिथिला-मैथिली का नाम लेते हैं और जब हमें मिथिला मैथिली के लिए कुछ योगदान देना होता है तो हम अपनी औकात पर आ जाते हैं. मैथिल साहित्यकार और नामचीन हस्तियाँ आयोजनों में भाग लेते हैं... हासिल क्या होता है, अपनी अज्ञानता वश मुझे इसका भान नहीं किन्तु जिस हिसाब से साहित्यकार आने-जाने और रहने की सुविधाओं का भाव बट्टा करते हैं वो आजकल कोई नव विवाहित अपने ससुराल में भी न करता होगा. ऐसे ही नामचीन लोग जो मंचासीन होने को आते हैं और आदर्श बातें करते हैं, काश अपने संस्थानों में भी कम से कम मैथिलों के लिए आदर्श व्यवहार करते. इन दोनों ही केस के कई उदाहरण सबूत समेत मेरे पास हैं... सो इस मुद्दे पर बहस कर पंगा न ले कोई... मेरी सेहत के लिए अच्छा ही होगा.     

यही हाल अब उन आन्दोलनकारियों का भी है जो कल तक मिथिला की हर समस्या को लेकर तलवार भांजते थे. मिथिला क्षेत्र में शिक्षा, स्वास्थ्य और सुविधाओं के लिए आफन तोड़ने वाले आज पद प्राप्ति के बाद न केवल शिक्षा और स्वास्थ्य को भुला बैठे हैं बल्कि स्वयं की सुख सुविधाएँ अर्जित करने में ऐसे लगे की खुद अपने संगठन की नहीं सुनते.  

एक दुसरे के नीक कार्य को हम कितना सराहते हैं, हमारे नामचीन कितना साहित्य पढ़ते हैं, हम कितना मैथिली सिनेमा देखते हैं... हमारा कितना निस्वार्थ त्याग समाहित होता है आयोजनों में... किसी से छुपा है क्या ?

तो मेरे मैथिल संगी साथियों, आपने लोड बिलकुल नहीं लेना है... खड़े हो जाना है, "जय-जय भैरवि" गा लेना है, आहा-आहा, विलक्षण, वाह वाह से कुछ शब्द बोल लिख देना है और आस पास देखकर वायु त्याग कर आनंद लेते रहना है. 

बांकी मैं तो हूँ ही आपका शुभचिंतक !  

प्रवीण कुमार झा 

Thursday, 7 March 2024

जलती लकड़ी से भगवान शिव की पिटाई मिथिला में


भगवान शिव की कोई जलती लकड़ी से पिटाई करे ऐसा कोई सोच भी नहीं सकता लेकिन, यह बात बिल्कुल सच है। बात कुछ 1360 ई. के आस-पास की है। उन दिनों बिहार के मिथिला क्षेत्र में विस्फी गांव में एक कवि हुआ करते थे। कवि का नाम विद्यापति था। कवि होने के साथ-साथ विद्यापति भगवान शिव के अनन्य भक्त भी थे। इनकी भक्ति और रचनाओं से प्रसन्न होकर भगवान शिव को इनके घर नौकर बनकर रहने की इच्छा हुई।
 
भगवान शिव एक दिन एक जाहिल गंवार का वेश बनाकर विद्यापति के घर आ गये। विद्यापति को शिव जी ने अपना नाम उगना बताया। विद्यापति की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी अतः उन्होंने उगना को नौकरी पर रखने से मना कर दिया। लेकिन शिव जी मानने वाले कहां थे। सिर्फ दो वक्त के भोजन पर नौकरी करने के लिए तैयार हो गये। इस पर विद्यापति की पत्नी ने विद्यापति से उगना को नौकरी पर रखने के लिए कहा। पत्नी की बात मानकर विद्यापति ने उगना को नौकरी पर रख लिया।
 
एक दिन उगना विद्यापति के साथ राजा के दरबार में जा रहे थे। तेज गर्मी के वजह से विद्यापति का गला सूखने लगा। लेकिन आस-पास जल का कोई स्रोत नहीं था। विद्यापति ने उगना से कहा कि कहीं से जल का प्रबंध करो अन्यथा मैं प्यासा ही मर जाऊंगा। भगवान शिव कुछ दूर जाकर अपनी जटा खोलकर एक लोटा गंगा जल भर लाए।
विद्यापति ने जब जल पिया तो उन्हें गंगा जल का स्वाद लगा और वह आश्चर्य चकित हो उठे कि इस वन में जहां कहीं जल का स्रोत तक नहीं दिखता यह जल कहां से आया। वह भी ऐसा जल जिसका स्वाद गंगा जल के जैसा है। कवि विद्यापति उगना पर संदेह हो गया कि यह कोई सामान्य व्यक्ति नहीं बल्कि स्वयं भगवान शिव हैं अतः उगना से उसका वास्तविक परिचय जानने के लिए जिद करने लगे।
 
जब विद्यापति ने उगना को शिव कहकर उनके चरण पकड़ लिये तब उगना को अपने वास्तविक स्वरूप में आना पड़ा। उगना के स्थान पर स्वयं भगवान शिव प्रकट हो गये। शिव ने विद्यापति से कहा कि मैं तुम्हारे साथ उगना बनकर रहना चाहता हूं लेकिन इस बात को कभी किसी से मेरा वास्तविक परिचय मत बताना।
 
विद्यापति को बिना मांगे संसार के ईश्वर का सानिध्य मिल चुका था। इन्होंने शिव की शर्त को मान लिया। लेकिन एक दिन विद्यापति की पत्नी सुशीला ने उगना को कोई काम दिया। उगना उस काम को ठीक से नहीं समझा और गलती कर बैठा। सुशीला इससे नाराज हो गयी और चूल्हे से जलती लकड़ी निकालकर लगी शिव जी की पिटाई करने। विद्यापति ने जब यह दृश्य देख तो अनायास ही उनके मुंह से निकल पड़ा 'ये साक्षात भगवान शिव हैं, इन्हें जलती लकड़ी से मार रही हो।' फिर क्या था, विद्यापति के मुंह से यह शब्द निकलते ही शिव वहां से अन्तर्धान हो गये।

इसके बाद तो विद्यापति पागलों की भांति उगना -उगना कहते हुए वनों में, खेतों में हर जगह उगना बने शिव को ढूंढने लगे। भक्त की ऐसी दशा देखकर शिव को दया आ गयी। भगवान शिव, विद्यापति के सामने प्रकट हो गये और कहा - "अब मैं तुम्हारे साथ नहीं रह सकता। उगना रूप में मैं जो तुम्हारे साथ रहा उसके प्रतीक चिन्ह के रूप में अब मैं शिव लिंग के रूप विराजमान रहूंगा।" - इसके बाद शिव अपने लोक लौट गये और उस स्थान पर शिव लिंग प्रकट हो गया। उगना महादेव का प्रसिद्ध मंदिर वर्तमान में मधुबनी जिला में भवानीपुर गांव में स्थित है।

Thursday, 1 February 2024

मकर संक्रान्ति - मिथिला - तिल-चावल - बहना


मकर संक्रान्ति को देश के भिन्न इलाक़ों में नाना विधियों से मनाया जाता रहा है। हमारे मिथिला में कोई पिछली रात से ही गुड के पकवान बनाता है, अगले दिन कोई चूड़ा दही, कोई तिलकोर तडुआ तो कोई ठंड में नहाने के नए तरीक़े इजाद करता है... और अब नई पीढ़ी खिचड़ी और लोहड़ी भी लेकर आ गयी है मिथिला में।

तक़रीबन ७५ साल के एक सायकल में एक निश्चित तारीख़ को मनाया जाने वाली संक्रान्ति अब अगले लगभग ७५ वर्षों तक १५ जनवरी को मनाये जाने की सम्भावना है।

जब हम प्रकृति के दुश्मन नहीं थे, कथित विकास ने हमें उन्मत्त नहीं किया था, हमने नदी नाले, पहाड़ व जंगलों को अपना अवरोधक नहीं माना था, जब हमारे संस्कारों में प्रकृति को प्रधानता थी, जब हम ग्लोबल वॉर्मिंग और कार्बन इमिशन नामक शब्दों से अनभिज्ञ थे तब उस वक्त ऋतुएँ समय पर संतुलित तरीक़े से आया जाया करती थीं। हालाँकि कथित रूप से वन, पहाड़ और जंगलों के लिए आंदोलन करते वामपंथी इन सनातन पद्धतियों के ही ख़िलाफ़ हैं किंतु... अब आज के इस भेड़िया धसान युग में कौन किसको क्या कहे। हाँ तो मैं कह रहा था कि हमारे पर्व त्योहार वैज्ञानिक तरीक़े से हमारी ऋतुओं, संस्कारों और प्रकृति से जुड़े हुए हैं। मकर संक्रान्ति को शरद ऋतु की समाप्ति का पर्व कहा जाता रहा है।

अन्य बातों (खान-पान और स्नान) के अलावा हमारे मिथिला में इस दिन का एक मुख्य विधान है - "घर के बड़ों द्वारा अपने से छोटे को तिल-चावल खिलाना और साथ में पूछना - बहोगे ?" इस बहोगे का अर्थ अब मात्र यह रह गया है कि अगर छोटे ने कह दिया की हाँ बहूँगा मतलब वो उनकी आज्ञा मानेगा और उनकी वृद्धावस्था में उनका ध्यान रखेगा। थोड़ी समझदार पीढ़ी इसे "निबाहना" भी कहती है जिसमें हाँ, मैं चलूँगा आप लोगों के कहे पर ही। यह कमोबेश सही भी है किंतु सम्पूर्ण सच नहीं।

मुझे याद है, कुछेक वर्ष पहले अपने पिता के साथ "कंथू" गाँव में उनके एक गुरुजी से मिलने गया था। दो बुज़ुर्ग और पिताजी आपस में बातें कर रहे थे और उनकी समझ में कथित युवा "जिसको इस सबसे कोई मतलब नहीं" बन कर मैं सुन रहा था।उनकी बातों का सार ये था कि बहने का अर्थ मात्र आज्ञा पालन नहीं था बल्कि सम्पूर्णता में आपके संस्कार को लेकर आगे चलने की बात होती थी। इसका अर्थ होता था आप अपने धर्म, अपने कुल व पूर्वजों की सभ्यता, संस्कृति, मान्यताओं और समाज सह प्रकृति के प्रति अपनी ज़िम्मेवारी को निबाहेंगे। तिल के बहाने हमारे श्रेष्ठ हमें यह प्रतिज्ञा दिलवाते हैं कि बेटा हम जिस धर्म को यहाँ तक ले आए हैं उसे आगे तुम्हें भी जारी रखना है और इसी तरह पीढ़ी दर पीढ़ी इसे चलाते रहना है।

सार ये कि "तिल-गुड और चावल" खाते लिए संकल्प में हमारा कर्तव्य मात्र अपने परिवार तक सीमित नहीं बल्कि अपने संस्कार, सामाजिक और प्राकृतिक कर्तव्यों के लिए लिया गया संकल्प है। आज जबकि हम मात्र "हमर मिथिला महान" और "मिथिला संस्कृति से ऊपर कुछ नहीं" जैसे विचारों को गाते भर हैं उसमें न जाने ये निबाहना कहाँ गुम हो गया है।

ऐसा नहीं है कि इसमें मात्र नई पीढ़ी का दोष है। हमें भी लोहड़ी गाते, कानफोड़ू संगीत में कमर मटकाते अपने बच्चों को लोहरी/ लोढ़ी की बधाई देते अच्छा लगने लगा है। इसे एक और पिकनिक का दिन हमने ही बनाया है। अपने संस्कार बच्चों में क्या दें हम जब हम ख़ुद ही अपनी सनातन पद्धतियों से अनभिज्ञ हैं... हमारे स्वयं के आचरण में हम रामचरितमानस और गीता पर संदेह करते हैं, ज़रा सी संपन्नता से हम सामाजिक व्यवस्था को विपन्न करने लगे हैं तो निबाहने/ बहने को कैसे पूछेंगे बच्चों से आख़िर।

नतीजतन नई पीढ़ी यूरोप, अमरीका से संस्कार सीख रही, उसे सनातन व्यवस्था दकियानुस/ उबाऊ और लव-जिहाद टाइप चीज़ें रोमांच से भरे लगने लगी हैं... गुड-तिल के बहाने ज़िम्मेवारी का भान करवाने के बजाय हमारे बुज़ुर्ग जहाँ तिल तिल को मर रहे वहीं नई पीढ़ी महबूब के गाल/ होठों के तिल पर फ़ोकस्ड है। हमें स्वयं नहीं पता की जरौड़ और तूसारि क्या होता है तो हम क्या बताएँगे नई पीढ़ी को...

तो साथियों... आइए मनाइए एक और छुट्टी और निबाहिए नकारात्मक वामपंथ की बातों को... अपने खोखले आडंबर को महान कहते हुए पहनाइए पाग माला और बस गाइए भर कि - "स्वर्ग से सुंदर मिथिला धाम, मंडन अयाची राजा जनक के ग़ाम" - बाद बाँकि पूजिए संजयों, प्रभातों, गोपालों को !

आप सबों को शुभकामनाएँ, बुजुर्गों को चरण-स्पर्श, बच्चों को आशीष और हम उम्रों को आलिंगन !

Sunday, 28 January 2024

मैथिल साहित्यकार सबहुक नाम एकटा पाती

नमस्कार मैथिल्स !
 
सभ कथित सह स्वघोषित साहित्यकार लेल अछि हमर ई पाती ! सभ ओहि लेखक लेल सेहो जे पुस्तक नै बिकबाक आ मैथिली में कम होईत पाठकक चिंता में दुबरा रहल छथि.
 
एक त समाज में लेखक आ प्रकाशक 'हमस्टरो" से कम अवधि में जनमि रहला हाँ आ ऊपर स लोक कहत - "होमय न दियौ, यौ प्रचारे न भ रहल छैक." - बिडम्बना ई जे येह कहनाहर सब बजैत छथि - "मैथिली विलुप्त भ रहल." - मूढ़ साहित्य चिंतक सब के मात्र अतबे कहब जे स्टालिन कहने छलैथ - "Quantity has quality of its own."
 
संसार में सब किछु परिवर्तित आ उन्नत होइत अछि. लोक के जीवन शैली आ स्वाद सेहो बदलि रहल. गैंचा भेटतो कहाँ छै आब. बरफ स जनसंख्याँ नियंत्रणक सब चीज फ्लेवर में आबि गेल अछि. नारीवाद स आगाँ बढि के अपन समाज ओर्गास्म तक पहुँच गेल अछि. मुदा मैथिली साहित्य अपवाद बनल अहि. ओ मिथिला महान आ विद्यापति सौं आगा बढिए नै रहल.

दिल्ली बम्मई आ अमरीका के मजा नेनिहार साहित्यकारक साहित्य में एखनहु गाम, चुनौटी, बाबा, खेत-खरिहान आ डीहबार के प्रधानता छैक. अनेकानेक सम्बन्धरत आ दू-चारि साल में दाम्पत्य सौं अकच्छ भ रहल समाज के एखनहु साहित्य में सीता दाय आ लछुमन भाय पढ़ाओल जा रहल. शैक्षणिक संस्थान आ संस्कार में वैश्विक हवा केर समावेश भ चुकल मुदा बच्चा के मैथिली किताब में एखनहु बाबा आ हुनक खुट्टा के हाथीये टा भेटैत छनि. बच्चा के Pre-Wedding shoot and trip चाही... बरियाती के भरि पोख "चहटगर चखना" मुदा हमरा अहाँ के साहित्य एखनहु सिंदूर-दाने क रहल.
 
लोक के चाही "जश्न-ए-रेख्ता" सन तात्कालिक सुख आ अहाँ ग्रन्थ-समग्र लेल उताहुल छी. यदा-कदा चोरा-नुका Play-Boy आ Debonoir देखनिहार लोक वेद के सुलभे मियां-खलीफा आ जॉनी सिन एक क्लिक पर भेट रहलनि हाँ आ अहाँ साहित्य में मीना कुमारी, नूतन आ देवानंद पर टिकल छी.
 
हमरा आहां के लोक वेद दुनियां संसारक कंपनी में मजदूरी क रहल मुदा साहित्य के एखनहु खेत में हर-कोदारि चलबैत मजदुर मात्र देखा रहलनि अछि. घर-आंगन में बर्थडे पर केक-आइसक्रीम चाही मुदा अहाँ के साहित्य एखनहु पेन-अलता आ पारले-G गिफ्ट द रहल. गाम में नीक पेट चलेनिहार लोक के शहर बाजार में दस हजारक नौकरी चाही किएक त ओहि ठाम मॉल संग सेल्फी आ संग घुमाबय लेल टेम्पररी दिल्ली वाली भेटैत छनि हुनका मुदा हाय रे अपन साहित्य, ओकरा एखनहु गामक मेला आ ओहि में केस में ललका फीता वाली मात्र देखा रहल.
त साहित्यकार लोकनि अपग्रेड होऊ... समयक संग चलू, किताब के कलेवर बदलू, अपने सन धोती-पैजामा छोईड़ जींस पहिराऊ अपना साहित्यो के.... सोशल मीडिया पर नित लगबैत स्टेटस सन साहित्यक स्टेटस सेहो बदलल जाऊ... तखने बढ़त प्रेम आ संगहि लाइक कमेंट आ साहित्यक बिक्री !

उम्मीद अहि पाती के सकारात्मक पहलु पर ध्यान देब अपने लोकनि.


अपनेक शुभचिंतक
स्वघोषित आचार्य.