Showing posts with label Politics. Show all posts
Showing posts with label Politics. Show all posts

Saturday, 16 August 2025

आरएसएस आ स्वतंत्रता संग्राम - संक्षिप्त विवरण


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के स्थापना 1925 मे डॉ॰ केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा नागपुर मे भेल छल। संगठनक मुख्य उद्देश्य हिंदू सभके एकजुट करबाक आ समाजक नैतिक मूल्य सभके सुदृढ़ करबाक छल। ध्यान देबऽ जोग बात ई जे स्व. हेडगेवार स्वयं पहिले कांग्रेस-नेतृत्व वाला राष्ट्रीय आंदोलन में सहयोगी छलाह आ ओ लोकमान्य तिलकक विचार सँ बेसी प्रभावित छलाह। विद्यार्थी जीवन मे ओ ब्रिटिश शासनक खिलाफ बहुत आंदोलन मे भाग लेने छलाह जाहि में असहयोग आंदोलन (1920–22) सेहो शामिल अछि।

संघ केँ लय विरोधी इतिहासकार सभक दृष्टिकोण अलग छल। बहुतों इतिहासकार मानैत छथि जे स्थापनाक बाद आरएसएस सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930–34) अथवा भारत छोड़ो आंदोलन (1942) सन नमहर आंदोलन मे भाग नहि लेने छल। हुनक सबहुक मतानुसार ताहि समय संगठन राजनीतिक टकरावक बजाय सामाजिक कार्य, अनुशासन आ वैचारिक प्रशिक्षण पर बेसी ध्यान देने छल। 1930–40 दशकक ब्रिटिश खुफिया रिपोर्टक मुताबिक़ आरएसएस केँ राजनीतिक रूप सँ ब्रिटिश शासनक लेल खतरा नहि मानल गेल छल। बल्कि संगठन समाज सुधार, भविष्यक भारत आ हिंदू एकजुटता के लय के बेसी मुखर छल। 

अहि सभ में पूर्वोत्तर राज्य आ पटना में व्याप्त देह व्यापार रोकब आ तखन के पाकिस्तान में स्त्री सब के सुदृढ़ आ एकजुट करब आरएसएस महिला विंग के प्रमुख काज छल। 

आरएसएस समर्थक आ ओहि सँ जुड़ल इतिहासकार मानैत छथि जे संगठन अप्रत्यक्ष रूप सँ स्वतंत्रता संग्राम में अपन योगदान देने छल। संघ सामाजिक अनुशासन, एकता आ राष्ट्रीय गौरवक भावना जागृत करब, जकरा ओ औपनिवेशिक शासनक खिलाफ दीर्घकालीन तैयारीक हिस्सा मानैत छलाह- अहि दिशा में प्रयासरत छलाह। अहि वर्ग के इतिहासकार लोकनि हेडगेवारक स्वतंत्रता आंदोलन में व्यक्तिगत योगदान आ किछु स्वयंसेवक द्वारा क्रांतिकारी गतिविधि सह स्वतंत्रता संग्राम संगठन में शामिल हेबाक बात सेहो कहैत छथि।

सारांश ई जे प्रत्यक्ष सशस्त्र वा जन-राजनीतिक संघर्ष में आरएसएसक भूमिका सीमित रहल मुदा अप्रत्यक्ष योगदानक तौर पर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, सामाजिक एकता आ नैतिक दृष्टि सँ समाजक तैयारी द्वारा राष्ट्र-निर्माण में संघ के भूमिका मुखर आ अग्रणी रहल।

Monday, 7 July 2025

मुखिया चुनाव - रमौली पंचायत - प्रवीण कुमार झा

मेरे जन्मस्थान में पंचायत चुनाव है। मेरा 'बेलौन' गाँव रमौली पंचायत में पड़ता है। रमौली, बेलौन और किशनपुर (नवादा) के कुल चार उम्मीदवार चुनाव में खड़े हैं जिसमें से एक उम्मीदवार मेरा भाई मनीष झा भी है।

चार उम्मीदवारों में से एक किशनपुर से उगन झा, निवर्तमान मुखिया हैं जिन्हें दो पद के लाभ में दोषी करार कर पदच्युत कर दिया गया। दूसरे उम्मीदवार रमौली निवासी और पूर्व मुखिया कुमुद मिश्रा हैं जो स्वयं चुनाव आयोग के द्वारा चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित हैं, सो उन्होंने अपनी आदरणीया माता जी को उम्मीदवार बनाया है। तीसरे उम्मीदवार रमौली से ही रौशन झा हैं जो पेशे से वकील हैं किन्तु क्षेत्र में कुछ करने से अधिक सबकी शिकायत करने और काम रोकने को लेकर अधिक चर्चित हैं।

वोट की संख्या के हिसाब से रमौली यदि एकजुट हो जाए तो किसी भी उम्मीदवार के लिए कोई चांस नहीं, किन्तु हमारा पंचायत जागरूक और समझदार लोगों का पंचायत है और इसका ही उदाहरण पेश करते हुए सबसे कम वोट वाले किशनपुर क्षेत्र से उगन झा विजयी हुए थे पिछले मुखिया चुनाव में।

मेरा परिवार तकरीबन चार पुश्तों से इलाके भर में समाज सेवा और लोकन्याय के लिए जाना जाता है। आज के चर्चित नेता रविशंकर प्रसाद जब वकालत सीखने के क्रम में स्व. ताराकांत झा जी के यहाँ रहते तो उन्होंने हमारा केस हाई कोर्ट में लड़ा था। मुझे याद है जब लैंड लाइन पर रविशंकर प्रसाद जी ने मुझे कहा था - चाचा जी को कह दीजिए वो जीत गए, वही मुखिया थे और वही रहेंगे।

परिवार में मेरे पिता और अब स्व. चाचा जी के "अतुल्य" रिश्ते का उदाहरण लोग आज कि मतलबी दुनिया में दूर दूर तक देते हैं। उन्हीं चाचा जी के लड़के मनीष के साथ मैं उसी भाई की तरह का संबंध रखने के प्रयास में हूँ। मनीष कमियों से पड़े नहीं है और यह मुझसे अधिक कोई नहीं जानता। वो लोग भी नहीं जो लोग मुझे फोन कर उसके किस्से बताते हैं और यह भी कहते हैं कि उन्हें पता है इसीलिए मनीष के लिए मैंने कोई प्रचार नहीं किया।

ऐसे सभी भाइयों से मात्र इतना कहूँगा की वो मनीष है जो चौबीस घंटे समाज सेवा को तैयार रहता है, अपने काम के लिए लड़ने वाला आदमी है, इलाके में किसी से भी अधिक पहुँच रखने वाला है, समाज के हर एक वर्ग और पंचायत के सभी गाँव में हर एक परिवार से जुड़ा है, उस तक किसी की भी पहुँच आसान है, वो किसी को झूठा आश्वासन नहीं देता, नकारात्मक राजनीति नहीं करता और ना ही नशेड़ी है... अंत में मैं उसका अभिभावक हूँ जो उसे समाज सेवा में कहीं भी पथभ्रष्ट होने नही देगा।

मनीष ने चुनाव में बहुत जमीनी और प्रौढ़ मुद्दे चुने हैं हैं जिसमें किसान चौपाल, पुस्तकालय, मवेशी सुरक्षा और सड़कों पर जल जमाव प्रमुख हैं। आगे जल और बिजली संबंधी समस्याओं के लिए हेल्पलाइन नंबर जारी करने की योजना भी है उसकी।


संप्रति मात्र चौदह महीने के इस कार्यकाल हेतु आप सभी पंचायत वासियों द्वारा मनीष झा को वोट कर पंचायत का मुखिया चुनने का आग्रह रहेगा। चुनाव 9 जुलाई को है और उसका चुनाव चिन्ह EVM क्रमांक दो पर है - ढोलक छाप !

Saturday, 10 May 2025

युद्ध अभी आरंभ हुआ है - शास्त्री को भी याद कर लें

विश्व की सबसे बड़ी महाशक्ति आपके साथ नहीं है और दूसरी महाशक्ति खुलकर आपके दुश्मन के साथ है... आपको बचे हुए मात्र दो कट्टर मित्र स्वयं युद्धरत हैं... आपको सामरिक और आर्थिक रूप से आगे बढ़ता देख कई देश जो खुलकर सामने नहीं आ रहे, आपके खिलाफ छुप छुप कर टोटके कर रहे... विश्व अब 1970 या 1990 वाला नहीं रहा। हमारा देश फिलहाल एक बड़े कूटनैतिक संकट के मुहाने पर खड़ा है, जहां जबान से अधिक दिमाग चलाने की आवश्यकता है। यहाँ मुझसे और आपसे बड़े ज्ञानी बैठे हैं... बड़े सुरमा चुप्प हैं, समझिए। आप और हम भी सोच कर बोलें या फिर चुप रहें।


ऐसे में एक कदम गलत होने पर देश 25-30 वर्ष पीछे जा सकता है जब हम फिर से मेट्रो, हाई-स्पीड ट्रेन और अंतरिक्ष में जाने की बात भुला कर फिर गरीबी उन्मूलन की बात करते नजर आएंगे। हम भावना प्रधान देश हैं, सही भी हैं हमारी भावनाएं, किन्तु भावनाओं से देश-परिवार नहीं चलता है। स्थायित्व, पैसा और दूरगामी योजनाओं का ख्याल रखना होता है।

हमारे मिथिला में एक कहावत है जिसमें सावन में जनमा गीदड़ भादव में हुई बारिश को देखकर कहता है कि बाप रे ऐसी बारिश इस जनम में नहीं देखी।

बीस-पच्चीस-तीस साल के लोगों को आज इंदिरा गांधी याद या रहीं, वो इंदिरा जिसने सत्ता कायम रखने को पूर्वोत्तर राज्य में उल्फ़ा, पंजाब में खलिस्तान, दक्षिण में एलटीटीई और कश्मीर में कई आतंकी संगठनों को संपोषित किया। वही जो पीओके वापस नहीं ला पाईं, वही जो इतनी मजबूत थीं की स्वयं की रक्षा नहीं कर पाई। नए जन्मे भाई-बंधुओं से छोटी गुजारिश रहेगी, थोड़ा परिश्रम करें, देश के नामचीन पत्रकार रहे कुलदीप नैयर जी की किताब है - 'ईमरजेन्सी की इनसाईड स्टोरी' - इसको पढ़ें और इंदिरा जी को समझें। और हाँ, वो मैथिल तो अवश्य ही पढ़ें जो ललित बाबू को अपना पहला विकास पुरुष मानते हैं। वैसे यदि हम समझना चाहते तो हमें लाल बहादुर शास्त्री भी याद आते... वो शास्त्री जिन्होंने गुदरी में लाहौर फतह किया था... जिन्हें साजिश से मार दिया गया था... लेकिन खैर नहीं समझ आएगी हमें आपको यह बात।

देख रहा हूँ लोगों को अटल जी भी बहुत याद आ रहे। खुद को ऐसा लग रहा जैसे मुझे तो आज ही पता चला की अटल जी इतनी बड़ी तोप थे जिनसे अमरीका डर गया था। जो लोग पोखरण के बाद अमरीका की पाबंदियों से आई मंहगाई पर अटल को मूढ़ कह कर गाली दे रहे थे आज वो लोग अटल-जिन्दाबाद कह रहे। वो लोग जो प्याज जैसी चीज के लिए अटल को चुनाव हरवा गए थे, वो लोग जो अनैतिक रूप से एक वोट से अटल को पदच्युत कर गए थे... और वो लोग भी जो अटल के मरणोपरांत उसे ऐय्याश, बेवडा आदि आदि कहते नहीं अघाते थे, सब के सब आज अटल को याद कर रहे हैं। कसम से आँखों में आँसू आ रहा।

अंत में, वर्तमान परिस्थिति अति संवेदनशील है जिसके एक्सपर्ट हम और आप दोनों ही नहीं, जिसके लिए हमने सरकार को चुना है और सरकार ने अधिकारियों को... हम आप उनके साथ खड़े भले न हों कम से कम दिखें - फिलहाल यही राष्ट्रधर्म है।

भारत ने आतंकी हमले के जवाब में संभवतः दुनियाँ का अब तक का सबसे सटीक और मारक हमला कर बदला लिया, वो सैन्य रूप से पाकिस्तान को तबाह कर चुका था, उसके परमाणु गढ़ तक पहुँच चुका था, अपनी अभेद्य सुरक्षा को विश्व भर में प्रदर्शित कर चुका था... ऐसे में पाकिस्तान के बहाने पुनः विश्व का चौधरी बनने को अमरीका और उसकी जमीन पर अपना अरबों लगाए चीन और तुर्की का आना स्वाभाविक है।

स्वाभाविक तो यह भी होगा कि कल को नरेंद्र मोदी की भी बहुत याद आएगी अगली जनरेशन को... फिलहाल ध्यान रहे, मोदी विरोध के चक्कर में देश विरोध वाला गियर ना लगाएं। थोड़े समय जबान से अधिक कान और दिमाग चलाएं हम लोग, कूटनैतिक युद्ध अभी शुरू हुआ है, जिसमें मोदी जी फिलहाल फेल हुए हैं, पढ़ रहे हैं... क्या पता पास हो जाएँ। फिलहाल काफी कुछ धुंधला है, कोहरा छँटने का इंतजार करें !


Sunday, 7 April 2024

भाजपा स्थापना दिवस विशेष - चुनाव जीतना नहीं समाज सुधारना उद्देश्य

एक समर्थ राष्ट्र और बेहतर समाज निर्माण के लक्ष्य के साथ भाजपा का गठन 6 अप्रैल, 1980 को नई दिल्ली के कोटला मैदान में आयोजित एक कार्यकर्ता अधिवेशन में किया गया था जहाँ प्रथम अध्यक्ष श्री अटल बिहारी वाजपेयी निर्वाचित हुए थे. 

कभी आरएसएस की पार्टी से अब मोदी-शाह की पार्टी बन चुकी भाजपा के स्थापना दिवस पर जबकि देश भर में दो लाख बड़े झंडे फहराने का लक्ष्य रखा गया था, एक समय था जब भाजपा कार्यकर्ता की जेब में दो रूपये नहीं थे, उसके पास स्वयं के भोजन की गारंटी नहीं थी. आज लाखों की भीड़ एक कस्बे में जुटाने वाली पार्टी के पास कभी अनुमंडल में दस कार्यकर्त्ता नहीं थे. 

इस अवसर पर जबकि नई पीढ़ी भाजपा को अमीरों, ऐशबाज़ों और राजनैतिक निश्चिंतता की पार्टी मात्र मानती है, बीते जमाने के कुछ ऐसे क़िस्से प्रस्तुत हैं जो मैंने अलग अलग समय में लिखे थे. उद्देश्य तब की भाजपा और अब की भाजपा को बताना है... जबकि आज राजनीती ठेका और शोशेबाजी प्रधान हो चली है. किसी का कोई विरोध या समर्थन भी उद्देश्य नहीं. पढ़ें - दस रोचक कथाएं.

(१) भाजपा तब और अब

राजनीति में सूचिता और धर्म का पालन करने की बात की थी भाजपा ने अपने #स्थापना पर. आपने दो दशकों तक इसका पालन भी किया... फिर आपलोगों ने आज एक राष्ट्रीय दल को गुजरात का दल बना दिया. आप बनिया पार्टी कहे जाते थे, आज बनियागिरी मात्र उद्देश्य है. तब आप भले दो सीट वाले थे, सिद्धांतों के पक्के और विचारधारा पर अडिग माने जाते थे, आप सच में कांग्रेस के एंटी विचारधारा वाले माने जाते थे. दुर्भाग्य, आज आपने अपने अन्दर न केवल कांग्रेसी लोग बल्कि उनकी दूषित विचारधारा का भी समावेश कर लिया... पहले दिल जीता करते थे, अब चुनाव मात्र और वो भी उन्हीं सब सब हथकंडों को अपना कर जिसका विरोध आपकी राजनीति थी.

(२) जक्शन पार्टी से जनसंघ और फिर भाजपा

जनसंघ से पहले जनता पार्टी और भी भारतीय जनता पार्टी. इस सफ़र की शुरुआत से पहले का सर्वाधिक स्कोर था ३२ जो भाजपा के २ से आरम्भ हुआ था. भाजपा उस वक़्त कैडर बेस दल हुआ करता था. उसका कार्यकर्ता चना फाँक कर और सतुआ पी कर वो कमाल कर जाता था जो आज के महँगे पोस्टर और टेकी प्रचार से नहीं होता.

एक घटना मिथिला से है कि दरभंगा जिला अंतर्गत गाँव नवानगर के स्व. उमाकान्त झा जी अपने एकमात्र माइक ऑपरेटर को लेकर बैलगाड़ी से गाँव गाँव प्रचार करते. साथ में थोड़ा चना और सत्तू बांधा होता बाँकि गाँव वालों पर निर्भर होता था अगर वो कुछ खिला दें तो. उस वक़्त गाँव का गाँव कांग्रेसी ही था. जनसंघ से नई नई बनी भाजपा को कई सालों तक लोग जक्शन पार्टी कहते रहे. एक गाँव (देकुलि) में ऐसा हुआ की 'जक्शन पार्टी' की टायर गाड़ी पर गाँव के एक दबंग कांग्रेसी ने झबड़ा कुत्ता हुलका दिया और कहा गया कि आप इस गाँव में प्रवेश नहीं कर सकते हैं. मिथिला के एक और प्रसिद्ध गाँव नवादा में गाँव से बाहर की गाछी में बड़ी मुश्किल से सभा करने की अनुमति मिली...वहाँ बने एकमात्र सदस्य ने उमा बाबु को चुरा दही भी खिलाया.

इसी तरह की कथाएँ देश के कई अन्य स्थानों की भी है। जहाँ आज के कार्यकर्ता बड़ी गाड़ी के बिना टुसकते नहीं वहीं उस वक़्त सायकल से ७०-८० किलोमीटर नाप दिया जाता था. इसी त्याग और समर्पण की बुवाई आज पार्टी काट रही है.

(३) स्वदेशी जागरण मंच

जब आपकी #स्थापना हुई थी... आपके साथ आरएसएस का एक मंच हुआ करता था, "स्वदेशी जागरण मंच". असल में यह मंच अभी भी है... कहीं दबा कुचला कोने में पड़ा हुआ, मगर उस वक़्त इसकी बहुत चर्चा थी. ख़ुद को कांग्रेस से अलग आर्थिक नीति वाला साबित करते थे ये लोग. स्वदेशी अपनाओ, विदेशी छोड़ो, कृषि को व्यवसाय बनाओ.. यही नारा था इनका. कई जगह विदेशी सामान की होली जला देते थे ये लोग... इनका दावा था, एक बार इनका दल सत्ता में आ जाए, स्वदेशी और कृषि के प्रसार से देश की आर्थिक दशा दुनिया में सबसे बेहतर होगी.

आज आपके और मेरे सामने है... मनमोहन सिंह की आर्थिक नीति से एक क़दम आगे नहीं बढ़ पाए हैं ये लोग... अब स्वदेशी जागरण मंच का नाम भी नहीं लेता कोई. स्वदेशी के नाम पर रामदेव बाबा ने इस दल का चुनाव ख़र्चा विभाग मात्र खोल लिया है. खेती की बात करने की ज़रूरत है क्या

(४) दरभंगा में गोविन्दाचार्य जी - समाज सुधरे का मकसद

बात संभवत: 1980 के आस पास की है. उन दिनों दरभंगा आरएसएस दफ़्तर में गोविंदाचार्य जी रहा करते थे. स्व. उमाकांत जी कार्यालय प्रभारी थे. दरभंगा टावर पर कुछ मनचले लड़के कॉलेज की लड़कियों को छेड़ते थे. ये दोनों व्यक्ति दरभंगा पुलिस दफ़्तर में शिकायत लेकर गए और उमा बाबू मैथिली में शिकायत करने लगे तो पुलिस के बड़े साहब अंग्रेज़ी में बोलने लगे... जवाब में गोविंदाचार्य जी साहब के सामने बैठ गए और उन्हें सात भाषाओं में अपनी शिकायत बताई. पुलिस दफ़्तर के साहब का जवाब था - "भाई हम तो कुछ नहीं कर सकते, देख लो जो तुम लोग हीं कुछ कर सकते हो तो" उमा बाबू, गोविंदाचार्य जी के साथ चुपचाप वहाँ से निकल आए.


अगले दिन कॉलेज का वक़्त समाप्त हुआ, लड़कियाँ आई, वो लड़के भी... और छेड़ने लगे. अचानक से उन लड़कों को कुछ लोग पिटने लगे और यूँ पीटा की कहते हैं, दरभंगा टावर पर अगले 15 साल तक कोई छेड़ छाड़ नहीं हुई. कांड के बाद सभी लड़के संघ के दफ़्तर में अपना अपना हथियार (छड़ी, पेना और लाठी) रख आए.

तो वो भी एक दौर था, ये भी एक दौर है, वसूलों का... जब गोविंदाचार्य कहते थे - हम चुनाव जीतने मात्र को नहीं आए हैं... हमारा मक़सद है समाज सुधरे. #स्थापना दिवस मनाने वालों... चुनाव जीतना और सत्ता हथियाना मात्र मक़सद बना लिया है आज तुम लोगों ने.

(५) जब सड़क पर मंत्री जी को कार्यकर्त्ता ने रोका

दल में कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाने की बात याद आ गयी.भाजपा में इस गुण का अविष्कार हुआ था शायद. 1978, राँची. स्वर्गीय कैलाशपति मिश्रा नए नए मंत्री बने थे. अंबेसडर कार से झक्क सफ़ेद धोती कुर्ते में आ रहे थे. रास्ते में मटमैले धोती कुर्ते में कोई खड़ा था. सेक्योरिटी ने कहा - साहब, कोई कार्यकर्ता है, बोल रहा है - "ये कार, ये झक्क सफ़ेद कपड़े सब मेरी वजह से हैं, दिया है तो उतारना भी आता है. बोलो अपने मंत्री को की मिलें पहले फिर आगे जाने दूँगा"

कैलाशपति जी कार से उतरे, उमा जी को गले लगाया और सब बात चीत ख़त्म कर उनके ठिकाने तक छोड़ा... एक कार्यकर्ता की यह इज़्ज़त थी उस वक़्त. आज कार्यकर्ताओं को गाली देकर, डंडे बरसा कर भाग दिया जाता है... किसी किसी राज्य में तो कार्यकर्ता जिनसे चुनाव रूपी युद्ध लड़ते हैं बाद में दल के बडे लोग उन्हीं के साथ मिलकर सरकार बना लेते हैं... कार्यकर्ता ख़ून के घूँट पी कर रह जाता है... कल जब उसे उम्मीद होती थी की ईमानदार प्रयास और सूचिता उसे पार्टी में ऊपर पहुँचा देगी वहीं आज ऊपर पहुँचने का क्रायटेरिया दल के लिए पैसा जमा करने की औक़ात और अन्य दलों में पहुँच मात्र है. #स्थापना दिवस पर आप करोड़ों खर्चें, ठीक है.. मगर एक बार तो सुन लेते कार्यकर्ता की.

(६) बहेड़ा, दरभंगा - यज्ञ स्थल पर महिलाएं लड़ी

स्व. उमा जी गाँव में रहते, अटल, आडवाणी, गोविन्दाचार्य, कैलाशपति मिश्रा आदि से जुड़े रहे. देश के अलग अलग राज्यों में सरस्वती शिशु विद्या मंदिर की स्थापना, दुरूह ईलाकों में संघ के शाखा की शुरुआत, कच्छ का रण, आदिवासी इलाकों में धर्म परिवर्तन की लड़ाई, उग्र कम्युनिस्ट द्वारा फसल की लुट-पाट के खिलाफ आवाज, इलाके के आतंक "मालवर डाकू" का खात्मा.. इमरजेंसी में गाँव के हर परिवार से एक सदस्य को न केवल जेल ले जाना बल्कि वहां जेल के अन्दर गुंडों की पिटाई.. हर जगह उमा बाबु न के केवल अग्रणी रहे बल्कि संघ और भाजपा के मूल मन्त्र "समाज में सुधार" को जी कर दिखाया.

इस सम्बन्ध में दरभंगा जिले के बहेड़ा क्षेत्र में आयोजित एक यज्ञ में सांप्रदायिक शक्तियों द्वारा उत्पन्न विघ्न बाधा और प्रशासन द्वारा लगाए प्रतिबन्ध के समय की एक कथा बड़ी रोचक है जब उन्होंने यज्ञ में आयीं महिलाओं को वहां के बर्तनों और लकड़ियों से अपनी लड़ाई करना सिखाया.

(७) नावानगर के संघी उमा बाबु जो गाँव के हर एक परिवार से आदमी जेल ले गए

दरभंगा बेनीपुर को केंद्र में रखकर एक साधारण कार्यकर्त्ता नावानगर वासी उमाकांत बाबु पुरे प्रदेश की भाजपा को "सँभालते" कभी अध्यक्ष रहे स्व. ताराकांत झा जी इनको गुरु जी कहते, पाँव छूते. उनको उमा बाबु ने चुनाव लडवा दिया. बोले - आप बस नमस्ते करना जनता को, मैं देख लूँगा आगे, दरभंगा में बाये बने वकिल स्व. शिवनाथ वर्मा को संघ के कार्यकर्ताओं की मदद से जाना पहचाना नाम बना दिया... आज के कट्टर लालू दल समर्थक "अब्दुल बारी सिद्दकी" कभी उमा बाबु के चेले हुआ करते थे. कहते हैं आज तक पटना सिद्दकी के आवास पर लोग उमा बाबु के नाम से काम निकलवाते हैं.


हमारे इलाके में हावीभुआर, महिनाम, नवादा और मझौडा बड़े गाँव थे. कांग्रेसी और दबंग स्व. महेंद्र झा आजाद के आगे जाने की हिम्मत नहीं होती किसी की. ऐसे में वहां शाखा लगवा देना, स्व. रामाश्रय राय (धरौरा), पवन ठाकुर (मझौडा), बिमलेंदु जी (पौड़ी), महेंद्र झा (महिनाम), सुरेश सिंह, (बेनीपुर), हरिश्चंद्र झा (नवादा), जीतेन्द्र बाबु (देकुली) .... ये उमा बाबु की पहली फसल थी. आज के दरभंगा शहर विधायक संजय सरावगी हर महीने आशीर्वाद लेने आते, वर्तमान दरभंगा सांसद गोपला जी ठाकुर कभी इनका झोला उठाने वालों में से रहे, पूर्व सांसद कीर्ति आजाद ने उमा बाबु के सम्मान में उनका गाँव गोद लिया...

हालाँकि इनके गाँव को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा, विकास कार्य अवरुद्ध रहे किन्तु सूबे भर में गाँव की इज्जत थी.. पटना भाजपा कार्यालय से रणनीति हेतु तलब होती इनकी... हालाँकि आज के धुरंधर भाजपाई सब भुला बैठे हैं.

(८) अल्पसंख्यक चेहरा - सिकंदर बख्त


भाजपा में एक चेहरा हुए सिकंदर बख़्त। जैसे आज मुख़्तार अब्बास नकवी हैं वैसे उस वक़्त दल में अल्पसंख्यक चेहरा रहे सिकंदर बख़्त। हालाँकि सिकंदर बख़्त मलाई नहीं खा पाए. बख़्त साहब हाकी के अच्छे खिलाड़ी थे और जीवन का पहला चुनाव दिल्ली नगर निगम का जीते किंतु कांग्रेस के नेता के रूप में. बाद में १९६९ के कांग्रेस के विभाजन से इनका मोहभंग हो गया और इमर्जेन्सी में लगभग साल भर जेल में रहे. इसके बाद बख्त साहब जनता पार्टी के टिकट से चाँदनी चौक के सांसद बन गए. १९८० में भाजपा की स्थापना के बाद वो महासचिव बने और फिर ४ वर्षों के बाद पदोन्नत होकर उपाध्यक्ष. केंद्र सरकार में कई बार मंत्री भी रहे और मृत्यु के वक़्त वो केरल के राज्यपाल थे.


इनका ज़िक्र इसलिए क्योंकि उस वक़्त अल्पसंख्यक का मुखौटा भी परिणाम देने वाला था ना कि मात्र अल्पसंख्यक होने के नाम पर राज्यसभा की लालसा पाले आज के थकेले.

(९) आडवाणी थे पहले मेनेजर (प्रबंधक)

कांग्रेस एक बड़ी पार्टी थी किंतु उसका हर एक विभाग और क्षेत्र गांधी परिवार से शुरू होता, वहीं विस्तार पाता और वहीं उसका क्रियाकलाप और लेखा जोखा रहता. आडवाणी जी के नाम यह एक और बड़ी उपलब्धि रही की उन्होंने दल में न केवल अलग अलग विभाग बनाए बल्कि उनका अघोषित विभागाध्यक्ष भी बनाया. जैसे दल में सदस्यता के लिए कौन कार्य करेगा, दल के लिए पैसे कौन लाएगा, प्रचार प्रसार का कार्यभार किसका होगा, दल के संचालन में टेक्नॉलजी कौन लाएगा, आगामी नीतियाँ कौन बनाएगा, विदेश विभाग या अर्थ नीति संकोष्ठ... यहाँ तक की ग्रामीण क्षेत्र कौन देखेगा और शहरी कौन ? आडवाणी अलग अलग स्तर की मीटिंग में नयी पीढ़ी के नेताओं को प्रोत्साहन देते रहे जो की मेरी समझ से आप फिर लुप्त है.

दरअसल भारतीय राजनीति में लाल कृष्ण आडवाणी दृढ़ निश्चय के साथ प्रबंधन के प्रथम उदाहरण रहे।

(१०) भाजपा का शरीर

भाजपा का बेस अटल आडवाणी मुरली मनोहर रहे. बाद में इसमें कई चेहरे जुड़े जिनमें भैरोसिंह शेखावत, उमा भारती, कल्याण सिंह, कैलाशपति मिश्रा आदि हुए. किंतु तीन प्रमुख नाम यही रहे. यदि मैं एक शरीर से इसकी तुलना करूँ तो वाजपेयी इसके आवरण थे, आडवाणी जी मैकेनिजम तो मुरली मनोहर इसके पीछे की इंजीनियरिंग.


शुरुआत के कई सालों तक कांग्रेस और वाम दल भाजपा को अछूत साबित करती रही तो इस धारा के विपरीत प्रतिउत्तर की तेज़ धारा बहाने वाले हुए आडवाणी जी. आडवाणी न केवल देश में उपलब्ध सबसे बेहतर संगठनकर्ता थे बल्कि उनमें आवश्यक श्रम के लिए ऊर्जा भी थी. कभी अपनी ऊर्जा को दल की भलाई से ईतर ख़र्च किया हो ऐसा उदाहरण नहीं मिलता है. इस ऊर्जा से जब उन्होंने भाजपा के शरीर को खड़ा किया तो वाजपेयी ने चमकाया.

यह एक विवादास्पद बयान होगा किंतु वाजपेयी में नेतृत्व क्षमता नहीं थी. मैं बुराई नहीं कर रहा, वाजपेयी वाकपटू और कवि हृदय थे सो नि:संदेह आडवाणी से अधिक लोकप्रिय रहे. बाद में वाजपेयी का यही गुण अन्य दलों के बीच भाजपा की स्वीकार्यता में काम आया. किंतु भाजपा विजय के मैच में मैन ऑफ़ दी मैच #आडवाणी थे और रहेंगे.

Saturday, 27 January 2024

पिछड़ों के पहले नेता कर्पूरी ठाकुर की कहानी

२४ जनवरी को कर्पूरी ठाकुर जी का जन्मदिन है। वो कर्पूरी ठाकुर जो मेरी समझ से बिहार में पिछड़ों के पहले नेता थे। हालाँकि पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के राजनैतिक गुरुओं की समस्या है कि वो अपने समाज के दबे कुचले होने की बात तो करते हैं किन्तु इनकी ऊर्जा मुलभुत समस्याओं को दूर करने के बजाय अगड़ों या बहुसंख्यकों को नीचा दिखाने में अधिक खर्च होती है।


मुझे आज भी उम्मीद है इस वर्ग से उस नेता के उभरने की जो द्वेष और हीन भावना से ऊपर उठकर अपने समाज का हित करे। पता नहीं क्यों हम ओबैसी और चंद्रशेखर ही पैदा करते हैं जिनकी राजनीती सिर्फ विरोध के इर्दगिर्द घूमकर शुरू होती है और फिर किसी न किसी की भक्ति में समाप्त हो जाती है।

कर्पूरी जी उस वक़्त अपने समाज में दसवीं की पास करने वाले बिरले होंगे। उनके पिता उन्हें लेकर गांव के धनाढ्य (कथित उच्च वर्ग) के पास ये खुशखबरी देने गए तो जवाब मिला - "वाह, मैट्रिक पास केलें, पैर दबा हमर कने" दो सवाल हैं कि उनके पिता वहां क्यों गए और क्या सभी उच्च वर्गीय ऐसे होते हैं ?

ये शायद इसी बात का परिणाम था कि कर्पूरी बिहार की राजनीती में चल रहे अगड़ों के वर्चस्व को समाप्त करने में आजन्म लगे रहे। वो राजनीती, शिक्षा और नौकरियों में पिछड़ों की हिस्सेदारी हेतु शार्ट कट अपनाते रहे। शार्ट कट इसलिए क्योंकि दूरगामी परिणाम वाली चीजें न करने की वजह से उनके हिस्से का फोकस किया समाज आज भी बेहतर हालत में नहीं है।

खैर, तो प्रथम मुख्यमंत्रित्व काल में यशवंत सिन्हा जी इनके मुख्य सचिव रहे। कर्पूरी बाबू सर्वप्रथम पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण का प्रस्ताव रख इसे अमल में लाया। दूसरे कार्यकाल में मुंगेरी लाल कमीशन को लागु कर इन्होने बैकवार्ड राजनीती में भी दो धरा बना दिया जो कर्पूरी फार्मूला के नाम से प्रसिद्द हुआ। आगे इन्होने ३ % महिला और ३% अगड़ी जाती के पिछड़ों के लिए भी आरक्षण का प्रस्ताव रखा जो की काबिले तारीफ़ था।

कर्पूरी शिक्षा मंत्री भी रहे। दसवीं में अंग्रेजी की अनिवार्यता को समाप्त कर के बिहार की शिक्षा व्यवस्था को बर्बाद करने का पहला कदम कर्पूरी ठाकुर ने ही लिया। उर्दू को राज्य की दूसरी राजकीय भाषा बनाने का श्रेय भी इनको ही जाता है। कर्पूरी ने शिक्षा के क्षेत्र में एक अनोखा काम किया था। पहली बार मिशनरी स्कूल में हिंदी को अनिवार्य विषय बनाने का निर्णय उनका ही रहा। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि मैथिली को अष्टम सूची में शामिल करने को सबसे पहली बार इन्होने ही केंद्र को लिखा था जिसे लोकसभा में तब के सांसद गौरीशंकर राजहंस ने पढ़ा भी था।

उनके कई करीबी लोग अंत समय में कर्पूरी के भ्रष्ट होने की बात भी करते हैं। लोग यह भी कहते हैं कि दूसरी पारी में कर्पूरी बाबू सुबह ब्रश तभी करते जब अकाउंट में कुछ पैसे आ जाते थे। ये वक़्त था जब कर्पूरी यादव जैसी कौम को छोड़कर मलाह, कुर्मी, चमार आदि से जुड़ने की कोशिश करने लगे थे. अपनी मौत से ३ दिन पहले ही इस वर्ग के लिए बड़ी रैली भी की। आज की राजनीती के बड़े धुरंधर लालू, राम विलास आदि ने पिछड़ों से कनेक्ट करने का तरीका इनसे ही सीखा। लालू जी तो इन्हें कॉपी में इतने आगे निकल गए की लोग इन्हें "कपटी ठाकुर" कहने लगे।

आंदोलनरत युवाओं को उनसे सिखने लायक काफी कुछ है। कर्पूरी बाबू पहले बिहारी राजनीतिज्ञ थे आंदोलन में "जिहाद" शब्द का इस्तेमाल किया था। हालाँकि यह जिहाद कांग्रेस के खिलाफ था। नुक्कड़ सभाओं के द्वारा छोटे छोटे समूहों को जगाना उन्होंने ही आरम्भ किया था। उनका दिया नारा - "पूरा राशन पूरा काम, नहीं तो होगा चक्का जाम" बहुत अधिक प्रसिद्ध रहा। जन आंदोलन के दौर में लोहिया की इच्छा के विपरीत ये जनसंघ के साथ भी गये।

मैं आज भी इसकी वजह नहीं ढूंढ पाया की आखिर क्यों बेटे को अमरीका ईलाज का इंदिरा गाँधी का प्रस्ताव ठुकरा कर इन्होने जे पी के कहने पर न्यूजीलैंड में इलाज करवाया था। शायद ये उनका कट्टर कांग्रेस विरोध हो.... आखिर पहली गैर कांग्रेसी सरकार के नेता बनने का सौभाग्य प्राप्त था उन्हें जिसे मेंटेन करना चाहते हों वो। दीगर बात है कि आज उनके चेले फट चुके कांग्रेस के पिछवाड़े में ही सुकून महसूस कर रहे।

इन सभी बातों से दीगर कर्पूरी ठाकुर की मौत संदेहास्पद रही। उनकी लोकप्रियता कई लोगों के लिए नागवार थी और यही वजह है कि इनके मौत की जांच आवश्यक है। अफ़सोस बड़े बड़े दलित चिंतक और इनके किसी चेले ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। यह सवाल आज भी जिन्दा है कि आखिर क्यों जबकि उच्च रक्त चाप व दिल के मरीज के लिए नमक खाना जहर के समान है, बावजूद उन्हें सांख्य योगक्रिया के तहत अतुलानंद ने 16 फरवरी 1988 को पानी में सेंधा नमक मिलाकर तेरह लीटर पानी पिलाया और 17 फरवरी को अस्पताल में उनकी मौत हो गयी?