Showing posts with label #Professional. Show all posts
Showing posts with label #Professional. Show all posts

Sunday, 28 January 2024

दफ्तर का अनुभव - Situational Leadership & Communication


मेरे एक बॉस हुए - मिस्टर साके। नहीं, नहीं, वो हिंदुस्तानी ही थे। आंध्रप्रदेश के विशुद्ध हिंदुस्तानी। मटन में मिर्च बहुत खाते थे और अनलिमिटेड पार्टी करते थे। इतने लिमिटलेस की रात दो बजे होटेल में चिकन ख़त्म होने पर पहले वेटर को धमकाया फिर पचास अंडे ऑर्डर कर दिया।

साके साहब धुन के पक्के थे। सुबह आठ से रात आठ कड़ी मेहनत वाले। खूब काम करो, खूब पार्टी करो। वैसे पियाक लोग साके का मतलब जानते होंगे। साके एक जापानी ड्रिंक है जो टकिला शॉट से मिलता जुलता है। मुझे याद है चीन के जापानी रेस्टोरेंट में यह परोसते तो साथ में छिलके समेत उबला अंडा देते... उसमें लहसन और मिर्च भी। माफ़ कीजिएगा पियाक शब्द ग़लत लिख गया। आवश्यक नहीं सब वही पियाक वही वाले हों... नैनों से/ के पीने वाले भी होते हैं।

उप्स, विषयांतर हो गया। तो साके सर ने काफ़ी कुछ सिखाया। मैं अधिक अग्रेसिव एम्प्लॉई था। अपना काम सही करने को अक्सर लड़ भी जाता। कोशिश की आख़िरी सीढ़ी तक जाता। लक्ष्य की प्राप्ति को सौ से अधिक प्रतिशत देने की कोशिश रहती। यहाँ तक की कोई ईमेल जब आए रिप्लाई तभी करने को तत्पर। एक बार आधी रात को मेल का रिप्लाई पाकर एक बड़े अधिकारी ने जवाब दिया था - सो जाओ, ऑफिस टाइम में जवाब दो बस। लेकिन मुझे तो तभी के तभी सब सुलटाना होता था। मैं कोई बात कहता तो डंके की चोट पर कहता। ज़ोर से कहता। हर जगह वही कहता। ना कम और ना ज़्यादा। जूनियर के साथ मीटिंग में भी और सीनियर के साथ भी... एक आध बार तो MD के सामने भी वही बात।

साके साहब ने समझाया। प्रवीण, ज़ोर से बोलना, दूसरे को चुप कर देना... इससे हासिल क्या होता है उस पर सोचना। उन्होंने उदाहरण देकर कहा - "एक ही बात को अलग अलग प्लेटफ़ॉर्म पर अलग तरीक़े से रखनी होती है। श्रोता की श्रेणी, कहने का माध्यम और हमारा प्रारब्ध अलग अलग होता है अलग अलग प्लेटफ़ॉर्म पर… हमें ये सब सोचकर एक ही बात को अलग अलग तरीक़े से रखना होता है। किसको कितना बताना है ये तय करना सीखो।"

दूसरी बात जो उन्होंने बताई - "ग़ुस्से में ईमेल या किसी भी संवाद का जवाब मत दो। अधिक ग़ुस्सा हो तो जवाब लिख कर रख लो, सेंड ना करो। कोशिश ये रहे की आधे दिन के बाद ही ईमेल आदि का रिप्लाई करो... सुबह अपने साथ लायी सकारात्मक ऊर्जा का उपयोग करो…"

ईमानदारी से कहूँगा। ये दोनों सीख अब तक काम आ रही। शत प्रतिशत ऐसा नहीं कर पाता... ग़लतियाँ होती है, किंतु कोशिश रहती है। सोशल मीडिया पर सार्वजनिक कम्यूनिकेशन, मैसेंजर पर, फ़ोन पर, सामने बैठ कर कम्यूनिकेशन... सब अलग अलग हैं। सबको असरकारी बनाने के अलग तरीक़े और समझ भिन्न होते हैं। ध्यान रखना चाहिए... सीखने और बदलने की उम्र नहीं होती कोई और न ही कोई तय शिक्षक.

आजकल अब व्यस्ततम दिनचर्या है, लगभग चौबीस घंटे दफ़्तर का तनाव, ईमेल, टारगेट, पीपीटी, रिपोर्ट्स... और इन सबके बीच दोस्तों के संवाद से ख़ुद को रिचार्ज करने की कोशिश... साके साहब बैंगलोर में एमडी हैं। बाद बाँकि आप सबका दिन आबाद रहे, आप सब ज़िंदाबाद रहें।