मकर संक्रान्ति को देश के भिन्न इलाक़ों में नाना विधियों से मनाया जाता रहा है। हमारे मिथिला में कोई पिछली रात से ही गुड के पकवान बनाता है, अगले दिन कोई चूड़ा दही, कोई तिलकोर तडुआ तो कोई ठंड में नहाने के नए तरीक़े इजाद करता है... और अब नई पीढ़ी खिचड़ी और लोहड़ी भी लेकर आ गयी है मिथिला में।
तक़रीबन ७५ साल के एक सायकल में एक निश्चित तारीख़ को मनाया जाने वाली संक्रान्ति अब अगले लगभग ७५ वर्षों तक १५ जनवरी को मनाये जाने की सम्भावना है।
जब हम प्रकृति के दुश्मन नहीं थे, कथित विकास ने हमें उन्मत्त नहीं किया था, हमने नदी नाले, पहाड़ व जंगलों को अपना अवरोधक नहीं माना था, जब हमारे संस्कारों में प्रकृति को प्रधानता थी, जब हम ग्लोबल वॉर्मिंग और कार्बन इमिशन नामक शब्दों से अनभिज्ञ थे तब उस वक्त ऋतुएँ समय पर संतुलित तरीक़े से आया जाया करती थीं। हालाँकि कथित रूप से वन, पहाड़ और जंगलों के लिए आंदोलन करते वामपंथी इन सनातन पद्धतियों के ही ख़िलाफ़ हैं किंतु... अब आज के इस भेड़िया धसान युग में कौन किसको क्या कहे। हाँ तो मैं कह रहा था कि हमारे पर्व त्योहार वैज्ञानिक तरीक़े से हमारी ऋतुओं, संस्कारों और प्रकृति से जुड़े हुए हैं। मकर संक्रान्ति को शरद ऋतु की समाप्ति का पर्व कहा जाता रहा है।
अन्य बातों (खान-पान और स्नान) के अलावा हमारे मिथिला में इस दिन का एक मुख्य विधान है - "घर के बड़ों द्वारा अपने से छोटे को तिल-चावल खिलाना और साथ में पूछना - बहोगे ?" इस बहोगे का अर्थ अब मात्र यह रह गया है कि अगर छोटे ने कह दिया की हाँ बहूँगा मतलब वो उनकी आज्ञा मानेगा और उनकी वृद्धावस्था में उनका ध्यान रखेगा। थोड़ी समझदार पीढ़ी इसे "निबाहना" भी कहती है जिसमें हाँ, मैं चलूँगा आप लोगों के कहे पर ही। यह कमोबेश सही भी है किंतु सम्पूर्ण सच नहीं।
मुझे याद है, कुछेक वर्ष पहले अपने पिता के साथ "कंथू" गाँव में उनके एक गुरुजी से मिलने गया था। दो बुज़ुर्ग और पिताजी आपस में बातें कर रहे थे और उनकी समझ में कथित युवा "जिसको इस सबसे कोई मतलब नहीं" बन कर मैं सुन रहा था।उनकी बातों का सार ये था कि बहने का अर्थ मात्र आज्ञा पालन नहीं था बल्कि सम्पूर्णता में आपके संस्कार को लेकर आगे चलने की बात होती थी। इसका अर्थ होता था आप अपने धर्म, अपने कुल व पूर्वजों की सभ्यता, संस्कृति, मान्यताओं और समाज सह प्रकृति के प्रति अपनी ज़िम्मेवारी को निबाहेंगे। तिल के बहाने हमारे श्रेष्ठ हमें यह प्रतिज्ञा दिलवाते हैं कि बेटा हम जिस धर्म को यहाँ तक ले आए हैं उसे आगे तुम्हें भी जारी रखना है और इसी तरह पीढ़ी दर पीढ़ी इसे चलाते रहना है।
सार ये कि "तिल-गुड और चावल" खाते लिए संकल्प में हमारा कर्तव्य मात्र अपने परिवार तक सीमित नहीं बल्कि अपने संस्कार, सामाजिक और प्राकृतिक कर्तव्यों के लिए लिया गया संकल्प है। आज जबकि हम मात्र "हमर मिथिला महान" और "मिथिला संस्कृति से ऊपर कुछ नहीं" जैसे विचारों को गाते भर हैं उसमें न जाने ये निबाहना कहाँ गुम हो गया है।
ऐसा नहीं है कि इसमें मात्र नई पीढ़ी का दोष है। हमें भी लोहड़ी गाते, कानफोड़ू संगीत में कमर मटकाते अपने बच्चों को लोहरी/ लोढ़ी की बधाई देते अच्छा लगने लगा है। इसे एक और पिकनिक का दिन हमने ही बनाया है। अपने संस्कार बच्चों में क्या दें हम जब हम ख़ुद ही अपनी सनातन पद्धतियों से अनभिज्ञ हैं... हमारे स्वयं के आचरण में हम रामचरितमानस और गीता पर संदेह करते हैं, ज़रा सी संपन्नता से हम सामाजिक व्यवस्था को विपन्न करने लगे हैं तो निबाहने/ बहने को कैसे पूछेंगे बच्चों से आख़िर।
नतीजतन नई पीढ़ी यूरोप, अमरीका से संस्कार सीख रही, उसे सनातन व्यवस्था दकियानुस/ उबाऊ और लव-जिहाद टाइप चीज़ें रोमांच से भरे लगने लगी हैं... गुड-तिल के बहाने ज़िम्मेवारी का भान करवाने के बजाय हमारे बुज़ुर्ग जहाँ तिल तिल को मर रहे वहीं नई पीढ़ी महबूब के गाल/ होठों के तिल पर फ़ोकस्ड है। हमें स्वयं नहीं पता की जरौड़ और तूसारि क्या होता है तो हम क्या बताएँगे नई पीढ़ी को...
तो साथियों... आइए मनाइए एक और छुट्टी और निबाहिए नकारात्मक वामपंथ की बातों को... अपने खोखले आडंबर को महान कहते हुए पहनाइए पाग माला और बस गाइए भर कि - "स्वर्ग से सुंदर मिथिला धाम, मंडन अयाची राजा जनक के ग़ाम" - बाद बाँकि पूजिए संजयों, प्रभातों, गोपालों को !
आप सबों को शुभकामनाएँ, बुजुर्गों को चरण-स्पर्श, बच्चों को आशीष और हम उम्रों को आलिंगन !
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