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Saturday, 12 April 2025

हनुमान जन्म, शक्तियों का पाना और सिंदूर स्नान की कथाएं

हनुमान जन्म 

महाराजा दशरथ की तीन रानियाँ थीं परंच पुत्रहीन ही थे. काफी जप तप किया गया, कई जतन हुए... आखिरकार एक बड़े यज्ञ का आयोजन हुआ. यज्ञ की पूर्णाहुति के साथ ही एक फल की प्राप्ति हुई. ब्राह्मणों द्वारा इस फल के टुकड़े तीनों रानियों को खिलाने का आदेश हुआ.

महारानी कैकेयी जब फल खा रही थी, एक पक्षी उनके हाथ बचा टुकड़ा ले उड़ा. उधर उसी समय अंजना एक पर्वत पर पुत्र रत्न की प्राप्ति की आस में भगवान का सुमिरन करते टहल रही थी. पक्षी ने उस फल का टुकड़ा उसी पर्वत पर गिरा दिया... अंतत: पवन देव की कृपा से यह फल अंजना को प्राप्त हुआ और हनुमान का जन्म हुआ.

नोट - चूँकि कैकेयी ने भरत को जन्म दिया इसलिए हनुमान को भरत का भाई भी कहा जाता है.


हनुमान द्वारा शक्तियों की प्राप्ति 

हम सबने हनुमान द्वारा सूर्य निगलने की कथा सुनी होगी. आइये उससे आगे की कथा जानें.

निगलने के प्रयास में सूर्य के करीब पहुँचते देव लोक में हाहाकार मच चूका था. आख़िरकार इंद्रदेव ने वज्र के प्रहार से हनुमान को मूर्छित कर दिया. हनुमान के पिता पवनदेव ने गुस्से में सारे जग में वायु का प्रवाह बंद कर दिया... सभी जीव जंतुओं का दम घुटने लगा. देव-लोक में पुनः हाहाकार मच गया. सारे देवता पवन देव के आगे नतमस्तक थे. प्रायश्चित स्वरुप वो सब एक एक कर हनुमान को वरदान देने लगे. 

इस क्रम में सर्वप्रथम ब्रह्मा ने अमरता का वरदान दिया. साथ में 'हनुमान अपनी इच्छा से अपनी परिस्थिति बदल लेंगे' इसका वर भी दिया. सूर्यदेव ने अपनी उर्जा और चमक का एक हिस्सा तो दिया ही, उन्हें वेदों का ज्ञान सिखाने का भार भी लिया. वरुणदेव जी ने हनुमान को पानी के प्रभाव से मुक्त होने का वरदान दिया तो यमदेव ने डर से मुक्ति का. उधर कुबेर ने हनुमान को गदा प्रदान कर हर युद्ध में विजय प्राप्ति का वरदान दिया. पवन देव इतने पर भी नहीं माने तो ब्रह्मा ने आगे से हनुमान के किसी भी हथियार से घायल न होने का वर दे दिया. इस प्रकार से हनुमान ने शक्तियां भी पायीं और पवन देव ने संसार में पुनः वायु सेवा बहाल की.

हनुमान का सिंदूर स्नान 

हनुमान ने अपने प्रभु श्रीराम के लिए स्वयं को न्योछावर कर दिया. प्रभु की सारी ईच्छाओं की पूर्ति हेतु जी जान से लग गए. प्रभु को व्याकुल न होने दिया. बलि पर विजय, समुद्र लांघना, माता सीता को सन्देश, लंका-दहन... रावण से युद्ध विजय आदि आदि. हर पल हनुमान अपने प्रभु के साथ रहे... बिलकुल करीब.

प्रभु श्रीराम के अयोध्या लौटने पर हनुमान ने देखा सीता माता हर पल उनके प्रभु के साथ रह्तीं. उन्हें तकलीफ होती किन्तु चुप रहते. कई अवसर पर जब अकेले माता सीता ही प्रभु श्री राम के पास रहती तो हनुमान किसी तरह राम नाम का जाप करते समय गुजारते.

एक दिन हनुमान से रहा नहीं गया. वो अपने भाई समान भरत के सामने फ़ैल गए. व्याकुल हो, भावनाओं में आकर बोले - "बड़े भाई, मैंने क्या क्या नहीं किया... मुझसे ऐसी क्या गलती हुई की मैं हर पल अपने प्रभु के साथ नहीं रह सकता ?" - भरत को जवाब न देते देख हनुमान भाव विह्वल हो बोले - "भैया, मैं प्रभू के पास रहकर अपने भूख-प्यास, आराम.. सबको त्याग दूंगा, बस मुझे बताओ की आखिर सीता माता का कौन सा ऐसा तप ऐसा है जिसकी वजह से उन्हें वो अधिकार प्राप्त है जो मुझे नहीं ?"

भरत बोले - "हनुमान, वो उनकी पत्नी है, उनके नाम का सिंदूर अपनी मांग पर लगाती हैं..." - हनुमान के मन में बात बैठ गयी. उनके और प्रभु श्रीराम के बीच की बाधा मिटा देना चाहते थे वो.

अगले दिन राम-दरबार लगा. सब हनुमान को तलाश रहे थे. दरबार में हमेशा प्रभु श्रीराम के चरणों के पास रहने वाले हनुमान आज कहीं नहीं थे. प्रभु श्री राम भी चिंतित थे... कर्त्तव्य वश राज काज का कार्य चलने लगा.

इसी बीच हनुमान का पदार्पण हुआ. मगर यह क्या, हनुमान ने सारे शरीर में सिंदूर क्यों पोत रखा था ? दरबार में हंसी गूंजने लगी... भरत हनुमान जी के पास जा कर पूछने लगे - "हनुमान भाई, ये सब क्या है ? क्यों किया ये सब ? क्या प्रयोजन था ?" - हनुमान चुपचाप प्रभु श्रीराम के सिंहासन की तरफ बढ़ रहे थे. वो राम के चरणों में पहुँच बोले - "मेरे प्रभु, मेरे राम, सीता माता एक चुटकी सिंदूर की वजह से प्रतिपल आपके साथ रहने का अधिकार पाती हैं, आज मैं पुरे अयोध्या का सिंदूर अपने शरीर पर ले आया हूँ... अब तो चरणों से दूर नहीं करोगे प्रभु ?"

दरबार में शान्ति थी... सबकी आँखों में आंसू मात्र थे.
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आप सबको हनुमान जन्मोत्सव की शुभकामनाएँ !

#हनुमान #सनातन #हनुमानजन्मोत्सव

Sunday, 24 March 2024

राम ही खेलते आये होली, सिया नहीं

मुझे नदी का किनारा अच्छा लगता है. अन्दर अनेकानेक हलचल लिए ऊपर से बिलकुल शांत सा जल मुझे अपना सा लगता है. कोई योजना नहीं थी, मन हुआ, चला गया. यह किनारा शहर से तक़रीबन बीस किलोमीटर दूर था... शहर के कोलाहल, ट्रैफिक और शोर शराबे से दूर होना बेहतर लगता है. शायद यह माहौल अपने गाँव के करीब लगता है इसलिए.

हाँ, वहां और यहाँ का एक अंतर है कि वहां आप पत्नी को साथ नहीं ले जा सकते. इस मामले में मुझे पर्व त्यौहार बहुत भले नहीं लगते... या फिर हो सकता है कि मेरी इस सोच के पीछे मेरा अल्प ज्ञान हो.

नहीं नहीं, मैं उन कामपंथी गैंग में से बिलकुल नहीं जिन्हें दिवाली में प्रदुषण और होली में जल समस्या दिखती है. जम कर त्यौहार मनाने का पक्षधर हूँ मैं तो. हाँ मुझे कभी कभी ये लगता है की हमारे त्योहारों में स्त्री की सहभागिता तैयारी, साज-सज्जा, पकवान निर्माण और साफ़ सफाई से थोडा ऊपर हो.

अभी होली का उदाहरण लें. छुट्टी मिली, घर का मर्द नाना प्रकार के बहानों समेत किसी ख़ास काम या दोस्त से मिलने को घर से बाहर हो जाता है. वहां वो नाचे गाये, कुर्ता फाड़े... सो कॉल्ड इलीट बने और घर आये तो भकोस ले और चीर निद्रा ले.

जी, नदी के किनारे भी अर्धांगनी के साथ ही था. मैं शायद अपेक्षाकृत पिछड़ा हूँ सो चलते चलते तय हुआ था, सुबह कुछ नहीं पकाएँगी वो और रात मैं पकाऊंगा... इसी बीच होली मिलन समारोह की याद आई... मिथिला महान वाले लोगों का विसुअल देखा - "आजा हमहूँ ओवरलोड बानी" - पर लौंडा नाच सरीखा चल रहा था...

घर में मालपुआ, मांस, दही-बड़ा, जलेबी, गुझिया, रंग-अबीर, साज-सज्जा का ओरीयान था... इलीट नहीं हूँ, अकेला आनंद लेना आया नहीं सो पत्नी का दिया प्याज ले सलाद काटूँगा... आंखें में आंसू है, मन में गाँव है, आँगन से दलान का दूर होना है, पितृसत्तात्मक कायदा, आंगन में दबी कुचली सहमी और बर्दाश्त करते चेहरे... लिली रे की कहानियों के कुछ पात्र हैं... शायद यही वजह है कि #मिथिला में #राम ही होली खेलते आये, माता #सिया नहीं... शायद वो ओरीयान में व्यस्त रहती हों...

पर्व त्योहारों का स्वरुप बदल रहा है देश दुनियां में. पारम्परिक तौर तरीके शनैः शनैः विलुप्त होते जा रहे हैं... मिथिला के गांवों में पंजाब, गुजरात और दिल्ली का खोखला अहं घुस चूका है, भांग कम, दारू अधिक हो रहा... मालपुआ आम माल से भरा कम और चाशनी में डूबा अधिक हो चला है...

पत्नी को अभी भरी दोपहरी में डाभ पीना है लेकिन उसका कहना है कि सड़क पर अकेले मत जाओ, दिमाग का डॉक्टर देखो कोई अपने लिए :(

#कुछभीलिखताहूँ
#अलरबलर

Thursday, 7 March 2024

जलती लकड़ी से भगवान शिव की पिटाई मिथिला में


भगवान शिव की कोई जलती लकड़ी से पिटाई करे ऐसा कोई सोच भी नहीं सकता लेकिन, यह बात बिल्कुल सच है। बात कुछ 1360 ई. के आस-पास की है। उन दिनों बिहार के मिथिला क्षेत्र में विस्फी गांव में एक कवि हुआ करते थे। कवि का नाम विद्यापति था। कवि होने के साथ-साथ विद्यापति भगवान शिव के अनन्य भक्त भी थे। इनकी भक्ति और रचनाओं से प्रसन्न होकर भगवान शिव को इनके घर नौकर बनकर रहने की इच्छा हुई।
 
भगवान शिव एक दिन एक जाहिल गंवार का वेश बनाकर विद्यापति के घर आ गये। विद्यापति को शिव जी ने अपना नाम उगना बताया। विद्यापति की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी अतः उन्होंने उगना को नौकरी पर रखने से मना कर दिया। लेकिन शिव जी मानने वाले कहां थे। सिर्फ दो वक्त के भोजन पर नौकरी करने के लिए तैयार हो गये। इस पर विद्यापति की पत्नी ने विद्यापति से उगना को नौकरी पर रखने के लिए कहा। पत्नी की बात मानकर विद्यापति ने उगना को नौकरी पर रख लिया।
 
एक दिन उगना विद्यापति के साथ राजा के दरबार में जा रहे थे। तेज गर्मी के वजह से विद्यापति का गला सूखने लगा। लेकिन आस-पास जल का कोई स्रोत नहीं था। विद्यापति ने उगना से कहा कि कहीं से जल का प्रबंध करो अन्यथा मैं प्यासा ही मर जाऊंगा। भगवान शिव कुछ दूर जाकर अपनी जटा खोलकर एक लोटा गंगा जल भर लाए।
विद्यापति ने जब जल पिया तो उन्हें गंगा जल का स्वाद लगा और वह आश्चर्य चकित हो उठे कि इस वन में जहां कहीं जल का स्रोत तक नहीं दिखता यह जल कहां से आया। वह भी ऐसा जल जिसका स्वाद गंगा जल के जैसा है। कवि विद्यापति उगना पर संदेह हो गया कि यह कोई सामान्य व्यक्ति नहीं बल्कि स्वयं भगवान शिव हैं अतः उगना से उसका वास्तविक परिचय जानने के लिए जिद करने लगे।
 
जब विद्यापति ने उगना को शिव कहकर उनके चरण पकड़ लिये तब उगना को अपने वास्तविक स्वरूप में आना पड़ा। उगना के स्थान पर स्वयं भगवान शिव प्रकट हो गये। शिव ने विद्यापति से कहा कि मैं तुम्हारे साथ उगना बनकर रहना चाहता हूं लेकिन इस बात को कभी किसी से मेरा वास्तविक परिचय मत बताना।
 
विद्यापति को बिना मांगे संसार के ईश्वर का सानिध्य मिल चुका था। इन्होंने शिव की शर्त को मान लिया। लेकिन एक दिन विद्यापति की पत्नी सुशीला ने उगना को कोई काम दिया। उगना उस काम को ठीक से नहीं समझा और गलती कर बैठा। सुशीला इससे नाराज हो गयी और चूल्हे से जलती लकड़ी निकालकर लगी शिव जी की पिटाई करने। विद्यापति ने जब यह दृश्य देख तो अनायास ही उनके मुंह से निकल पड़ा 'ये साक्षात भगवान शिव हैं, इन्हें जलती लकड़ी से मार रही हो।' फिर क्या था, विद्यापति के मुंह से यह शब्द निकलते ही शिव वहां से अन्तर्धान हो गये।

इसके बाद तो विद्यापति पागलों की भांति उगना -उगना कहते हुए वनों में, खेतों में हर जगह उगना बने शिव को ढूंढने लगे। भक्त की ऐसी दशा देखकर शिव को दया आ गयी। भगवान शिव, विद्यापति के सामने प्रकट हो गये और कहा - "अब मैं तुम्हारे साथ नहीं रह सकता। उगना रूप में मैं जो तुम्हारे साथ रहा उसके प्रतीक चिन्ह के रूप में अब मैं शिव लिंग के रूप विराजमान रहूंगा।" - इसके बाद शिव अपने लोक लौट गये और उस स्थान पर शिव लिंग प्रकट हो गया। उगना महादेव का प्रसिद्ध मंदिर वर्तमान में मधुबनी जिला में भवानीपुर गांव में स्थित है।

Thursday, 1 February 2024

मकर संक्रान्ति - मिथिला - तिल-चावल - बहना


मकर संक्रान्ति को देश के भिन्न इलाक़ों में नाना विधियों से मनाया जाता रहा है। हमारे मिथिला में कोई पिछली रात से ही गुड के पकवान बनाता है, अगले दिन कोई चूड़ा दही, कोई तिलकोर तडुआ तो कोई ठंड में नहाने के नए तरीक़े इजाद करता है... और अब नई पीढ़ी खिचड़ी और लोहड़ी भी लेकर आ गयी है मिथिला में।

तक़रीबन ७५ साल के एक सायकल में एक निश्चित तारीख़ को मनाया जाने वाली संक्रान्ति अब अगले लगभग ७५ वर्षों तक १५ जनवरी को मनाये जाने की सम्भावना है।

जब हम प्रकृति के दुश्मन नहीं थे, कथित विकास ने हमें उन्मत्त नहीं किया था, हमने नदी नाले, पहाड़ व जंगलों को अपना अवरोधक नहीं माना था, जब हमारे संस्कारों में प्रकृति को प्रधानता थी, जब हम ग्लोबल वॉर्मिंग और कार्बन इमिशन नामक शब्दों से अनभिज्ञ थे तब उस वक्त ऋतुएँ समय पर संतुलित तरीक़े से आया जाया करती थीं। हालाँकि कथित रूप से वन, पहाड़ और जंगलों के लिए आंदोलन करते वामपंथी इन सनातन पद्धतियों के ही ख़िलाफ़ हैं किंतु... अब आज के इस भेड़िया धसान युग में कौन किसको क्या कहे। हाँ तो मैं कह रहा था कि हमारे पर्व त्योहार वैज्ञानिक तरीक़े से हमारी ऋतुओं, संस्कारों और प्रकृति से जुड़े हुए हैं। मकर संक्रान्ति को शरद ऋतु की समाप्ति का पर्व कहा जाता रहा है।

अन्य बातों (खान-पान और स्नान) के अलावा हमारे मिथिला में इस दिन का एक मुख्य विधान है - "घर के बड़ों द्वारा अपने से छोटे को तिल-चावल खिलाना और साथ में पूछना - बहोगे ?" इस बहोगे का अर्थ अब मात्र यह रह गया है कि अगर छोटे ने कह दिया की हाँ बहूँगा मतलब वो उनकी आज्ञा मानेगा और उनकी वृद्धावस्था में उनका ध्यान रखेगा। थोड़ी समझदार पीढ़ी इसे "निबाहना" भी कहती है जिसमें हाँ, मैं चलूँगा आप लोगों के कहे पर ही। यह कमोबेश सही भी है किंतु सम्पूर्ण सच नहीं।

मुझे याद है, कुछेक वर्ष पहले अपने पिता के साथ "कंथू" गाँव में उनके एक गुरुजी से मिलने गया था। दो बुज़ुर्ग और पिताजी आपस में बातें कर रहे थे और उनकी समझ में कथित युवा "जिसको इस सबसे कोई मतलब नहीं" बन कर मैं सुन रहा था।उनकी बातों का सार ये था कि बहने का अर्थ मात्र आज्ञा पालन नहीं था बल्कि सम्पूर्णता में आपके संस्कार को लेकर आगे चलने की बात होती थी। इसका अर्थ होता था आप अपने धर्म, अपने कुल व पूर्वजों की सभ्यता, संस्कृति, मान्यताओं और समाज सह प्रकृति के प्रति अपनी ज़िम्मेवारी को निबाहेंगे। तिल के बहाने हमारे श्रेष्ठ हमें यह प्रतिज्ञा दिलवाते हैं कि बेटा हम जिस धर्म को यहाँ तक ले आए हैं उसे आगे तुम्हें भी जारी रखना है और इसी तरह पीढ़ी दर पीढ़ी इसे चलाते रहना है।

सार ये कि "तिल-गुड और चावल" खाते लिए संकल्प में हमारा कर्तव्य मात्र अपने परिवार तक सीमित नहीं बल्कि अपने संस्कार, सामाजिक और प्राकृतिक कर्तव्यों के लिए लिया गया संकल्प है। आज जबकि हम मात्र "हमर मिथिला महान" और "मिथिला संस्कृति से ऊपर कुछ नहीं" जैसे विचारों को गाते भर हैं उसमें न जाने ये निबाहना कहाँ गुम हो गया है।

ऐसा नहीं है कि इसमें मात्र नई पीढ़ी का दोष है। हमें भी लोहड़ी गाते, कानफोड़ू संगीत में कमर मटकाते अपने बच्चों को लोहरी/ लोढ़ी की बधाई देते अच्छा लगने लगा है। इसे एक और पिकनिक का दिन हमने ही बनाया है। अपने संस्कार बच्चों में क्या दें हम जब हम ख़ुद ही अपनी सनातन पद्धतियों से अनभिज्ञ हैं... हमारे स्वयं के आचरण में हम रामचरितमानस और गीता पर संदेह करते हैं, ज़रा सी संपन्नता से हम सामाजिक व्यवस्था को विपन्न करने लगे हैं तो निबाहने/ बहने को कैसे पूछेंगे बच्चों से आख़िर।

नतीजतन नई पीढ़ी यूरोप, अमरीका से संस्कार सीख रही, उसे सनातन व्यवस्था दकियानुस/ उबाऊ और लव-जिहाद टाइप चीज़ें रोमांच से भरे लगने लगी हैं... गुड-तिल के बहाने ज़िम्मेवारी का भान करवाने के बजाय हमारे बुज़ुर्ग जहाँ तिल तिल को मर रहे वहीं नई पीढ़ी महबूब के गाल/ होठों के तिल पर फ़ोकस्ड है। हमें स्वयं नहीं पता की जरौड़ और तूसारि क्या होता है तो हम क्या बताएँगे नई पीढ़ी को...

तो साथियों... आइए मनाइए एक और छुट्टी और निबाहिए नकारात्मक वामपंथ की बातों को... अपने खोखले आडंबर को महान कहते हुए पहनाइए पाग माला और बस गाइए भर कि - "स्वर्ग से सुंदर मिथिला धाम, मंडन अयाची राजा जनक के ग़ाम" - बाद बाँकि पूजिए संजयों, प्रभातों, गोपालों को !

आप सबों को शुभकामनाएँ, बुजुर्गों को चरण-स्पर्श, बच्चों को आशीष और हम उम्रों को आलिंगन !