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Saturday, 16 August 2025

एक चिट्ठी धैर्यकांत के नाम - अक्टूबर 2020


डिअर धैर्यकाँत, 

कल ४ महीने बाद तुमने अपने वाल पर लिखा। जब दिल से लिखते हो, लिखते ही हो....शानदार लिखा दोस्त।

ये जितना बड़ा सच है कि लिखने से मन हल्का होता है उतना बड़ा सच ये भी है कि सवाल जवाब और प्रतिउत्तर से वही मन फिर से उतना अधिक भारी भी हो जाता है। अच्छा करते हो की अब इन चक्करों में नहीं पड़ते तुम। 

ये सच है कि सोशल मीडिया पर जो दिखता है दरअसल निजी जिंदगी में वैसा कुछ कम ही होता है। यहाँ अपने सारे दुःख दर्द, सारी कमियां और फ़टे को छुपाकर आता है इंसान। हालाँकि इसके सही वजह का पता नहीं मुझे लेकिन शायद होड़ और प्रतिस्पर्धा सबसे बड़ी वजह लगती है मुझे जिसमें इंसान को जाना कहाँ हैं वो नहीं पता होता है। देख रहा हूँ सब भाग रहे हैं... कोई किसी से बेहतर दिखने में तो कोई खुद को बड़ा ज्ञानी साबित करने में... कोई कोई तो अपनी ही जिंदगी के खालीपन को झुठलाने भर को लिखता है। 

मुझे लगता है हम सबने एक मुखौटा पहन रखा है और कहीं न कहीं यह मुखौटा शायद जरुरी भी है.... जिंदगी जीते रहने के लिए। बिना नकाब शायद आप नकार दिए जाएँ, आपके अपने भी आपको पहचानने से इंकार कर दें क्योंकि उनके लिए आपने जो चोला पहन रखा होता है वो आपको उसी में बने देखना चाहते हैं... कोई आपका वास्तविक रूप या फिर आपको आपके स्वयं की जरूरतों में नहीं देखना चाहता है। 

ऐसे में हम शायद जॉन के उस शेर को याद करके जिए जाते हैं की - कितने दिलकश हो तुम कितना दिलजूँ हूँ मैं, क्या सितम है कि हम लोग मर जाएंगे - हाँ शायद यही सोचकर की दुनियां तो दो दिन का मेला है, मर ही जाना है, कौन पंगे ले... तो दम घुटते हुए भी हम मुखौटा पहने रहते हैं।

हाँ, तुम सही हो की जब इंसान खुद को अपने ही द्वारा परिभाषित सांचें में गलत पाता है तो वो अलग अलग चीजें तलाशने और उनको आजमाने लगता है। जल्दी सबकुछ सही करने की कोशिश में वो आधा अधूरा छोड़ता जाता है सब... उसे लगता है कि ये तो बाद में कर लेंगे लेकिन ये सब अधूरे काम उसके कंधे पर बोझ बढ़ाते जाते हैं... वो झुक कर चलने लगता है, खोया रहता है, वो सिगरेट और शराब को अपना दोस्त समझने लगता है.... उसकी आँखों के निचे के गढ्ढे गहरे होते जाते हैं, उसका खुद का सिस्टम खराब हो जाता है सारा सिस्टम मैनेज करते करते। 

हाँ, रिश्ते चाहे घर के हों या फिर बाहर के या फिर सोशल मीडिया के, साले @#$@% सब स्वार्थ पर ही आधारित होते हैं। एक बार आपने स्वार्थ पूर्ति बंद किया नहीं की वो गधे के सर से सींग की तरह आपके जीवन से गायब। वो ये भी नहीं सोचते समझते की खुद तुम्हारा भी कोई स्वार्थ होगा... क्या पता लाचारी ही हो। उनके हिसाब से लाचारी तो हमारी अपनी है न... वो लोग चले जाते हैं, कहीं और... शायद किसी और की दुनियां में। हमारी बदकिस्मती की वहां वो बजाय हमारे किये की चर्चा के हमारी बदखोई करने में लग जाते हैं। वो हमारी बुराई तक ही शांत नहीं होते बल्कि हमारा ही वजूद ख़त्म करने की साजिश करने में लग जाते हैं... वो यह साबित करने में लग जाते हैं कि कैसे वो ही हमारे लिए जरुरी था, हम नहीं। इसमें एक स्टेप आगे और देखा है मैंने - जिसके सामने हमारी यह तारीफ़ हो रही होती है वो आदमी भी हमारे बारे में एक परसेप्शन बना लेता है... हमसे बिना बात किये कोई आदमी कैसे हमारे बारे में कोई विचार बना लेता है पता नहीं लेकिन आजकल ये नया ट्रेंड चला है कि आप किसी से कुछ सुनकर हमारे बारे में राय बना लो... सोशल मीडिया पर किसी को पढ़ कर उसे जज कर लो और फिर कब्जी सा मुंह फुला लो। 

तुमने लिखा की परिवार और रिश्ते आपके सामने गढ्डा खोद देते हैं। शत प्रतिशत तो ऐसा नहीं है किन्तु हम जहाँ से हैं वहां इसका प्रतिशत बहुत अधिक है। कई उदाहरण देखे हैं मैंने जब एक लड़का अपने परिवार के लिए खुद को ख़त्म कर लेता है और उसका परिवार बजाय शाबाशी के उसकी वजह से न हो पाए कामों के ताने भर देता है। उसने क्या किया ये न बताकर उसने क्या नहीं किया वही बताया गया उसे ताकि उसे याद रह सके की वो बस सहने, थोड़ा और करने और थोड़ा और करने को ही बना है। 

बड़े शहरों की प्रेमिकाएं.... अब इतने सारे उदाहरण देख लिए की इस पर मुझे लिखते हुए भी शर्म आती है। यह मान कर चलो की दिल्ली एन सी आर की प्रेमिकाएं प्रेम नहीं करती बल्कि आपके भोलेपन के हिसाब से आपकी जेब और मानसिक शक्ति (...) के खोखले होने का इंतजार भर करती हैं। बस इतना कहूंगा की प्रेम ही करना है तो बच्चे बच्चियों से करो... खुश महिलाओं को दोस्त बनाओ... ज्यादा जी करे तो केजरीवाल को चंदा दे आओ या फिर खुद को चॉकलेट, वाइन आदि गिफ्ट कर दो..... मगर दिल्ली की प्रेमिकाएं, न बाबा न। 

पता हैं मुझे इन सब बातों से कोई ख़ास मलाल भी नहीं और मैं भी तुम्हारी तरह परवाह भी नहीं करता अब किसी की। अगर भूखा हूँ तो हँसता हूँ, पेट भरे होने पर थोड़ा और हँसता हूँ... वजह की आपके भूखे होने की बात से सब... हाँ, सब के सब हँसेंगे और आपके पेट भरे होने पर हँसते देख कर लोग समझेंगे की इसको तो हंसने की बिमारी है.... असल में फ़िक्र कहाँ होती है कि इस वजह से कुछेक प्रतिशत जो अच्छे लोग हैं आपका भरोसा उनसे भी उठ जाता है... जैसे गेंहूं के साथ घुन पिसता है वैसे ही ये कुछेक प्रतिशत लोग भी पिस रहे... कोई इन पर भी भरोसा नहीं कर रहा... उन्हें उनकी नेकी का हक़ नहीं मिल रहा। 

तुम्हें तो पता ही है पिछले दिनों की कहानी जब बहुत कष्ट में था... थोड़ी झेंप भी रहती थी की जिन्हें मुझसे मदद की आशा रहती थी उन्हें कैसे कहूं की मैं खुद मदद लेने की हालत में पहुँच गया हूँ। हालाँकि फिर भी जो करीब थे वो आये, मेरा परिवार मेरे साथ खड़ा रहा... मेरे दुःख को समझा, मेरा दर्द साझा किया और पूछते रहे। कोई यहाँ था कोई अन्य बड़े शहरों में तो कोई विदेश में... पता है एक रात डेढ़ बजे किसी ने अमरीका से फोन किया और कहा - " प्रवीण, तुम्हे जो भी मदद चाहिए हम तैयार हैं... कहो तो आ जाऊँ" अच्छा लगा। 

हालाँकि मुझे उतना ही बुरा लगा जब पिछले १० महीनों के इस संघर्ष में और संभवतः जीवन की सबसे बड़ी लड़ाई में कुछ लोग या तो अनभिज्ञ बन गए या फिर सब जान बूझकर मुझसे किनारा कर लिया। पहले तो मेरी आदत के अनुसार मैंने इसकी वजह खुद को ही माना की शायद खुद की कोई कमी रही होगी मेरी। लेकिन बाद में अधिक मंथन पर पता लगा कि नहीं, ये तो बस मुझसे इसलिए जुड़े थे की मैं इनके किसी काम आ सकूँ। तुमने सही कहा था - "प्रवीण जी, सीधे नहीं बोलने वालों से दूर रहिये...." 

धैर्यकाँत, अब मैंने निर्णय ले लिया है कि सिर्फ और सिर्फ अच्छे दिनों वाले साथियों को त्याग दूंगा..... मुझे पता है तुम कहोगे की आप तो सबकुछ खुद पर लेकर किसी को जीवन भर त्यागना नहीं चाहते तो आपसे नहीं होगा ये सब। सो भाई - कोशिश करूँगा। क्योंकि पिछले दस महीनों ने (जिसे दस साल की तरह जिया है मैंने) मुझे सीखा दिया है कि मैं भी इंसान ही हूँ। वो इंसान जो सही गलत समझने में गलती कर सकता है... और उसे इस गलती को करेक्ट कर लेना चाहिए। कुछ पुराने को क्रॉस और कुछ नए को टिक करना ही चाहिए। परिणाम की चिंता किये बगैर मुंह पे कहना ही चाहिए की नहीं बॉस, आप नहीं चाहिए... भले कोई बुरा मान जाए, मुझे पागल समझे, एरोगेंट कहे या फिर कुलबोरन। 

लिखते रहो,
तुम्हारा शुभचिंतक,
प्रवीण

Wednesday, 10 April 2024

मेरा बियॉन्ड द लिमिट सोचना


यूँ ही सोचते रहने की आदत है सो सोचते रहते हैं हम ! हालाँकि इस चक्कर में खुद के सर के बाल भी साथ छोड़ गए. घर परिवार वाले भी बस मजबूरीवश ही साथ हैं, वरना तो इस सोचते रहने की आदत की वजह से कई बार ये भी भूल जाता हूँ की मैं भाई, दोस्त, पिता, पति और पुत्र भी हूँ. अब करूँ भी तो क्या, सोचता तो उनके बारे में भी हूँ न. हां ये दीगर बात है कि कई बार ‘बियॉन्ड दी लिमिट’ सोच जाता हूँ और जिसका मुझसे या मेरे करीबियों से कोई लेना देना नहीं. अच्छा ऐसा भी नहीं है कि मुझे इसका कोई प्राप्य नहीं, आखिरी बार यूँ ही जब सघन सोच में था तो धर्मपत्नी ने ‘पागल’ कह कर मेरा उत्साह वर्धन किया था.

अब चाहे जो भी हो मेरा ये मानना है की हर इंसान सोच रहा है. अगर जो वो सोचे न तो फिर वो इंसान नहीं भगवान् घोषित हो. सोचने की अपनी अपनी लिमिट होती होगी, दायरा भी होगा अपना अलग अलग. लेकिन मेरा ये शत प्रतिशत मानना है कि हम सबके सोचने में कोई न कोई समरसता तो होगी ही. मेरी समस्या शायद यह है कि मेरे अन्दर यही समरसता नहीं.

अब देखो, सोते समय अगर मैं ये सोचने लगूं की मैं बहुत अच्छा इंसान नहीं हूँ क्योंकि मैंने आज एक दुकानदार से ढेरों सामान निकलवाये और लिया बस एक. अब सोच यहाँ तक जाती है की– वो दुकानदार जरुर मुझे बद्दुआ दे रहा होगा और मुझे कल उसके दूकान पर जाकर उससे माफ़ी मांगनी चाहिए और उसके दिखाए सारे सामान खरीद लेने चाहिए– आप क्या कहेंगे इस सोच पर ?

एक दिन यूँ ही बस में सफ़र कर रहा था तो अचानक से सोच आने लगी – "ये दुनिया ही एकदम से गलत बनायीं है बनाने वालो ने. कोई तारतम्य नहीं है चीजों को बनाने में. कहीं कुछ कम है तो कहीं कुछ ज्यादा. मुझे किसी से बात करके दुनिया भर की तामीर को तोड़ फोड़ देना चहिये और सब कुछ नए सिरे से बनाना चाहिए. सड़कें, पुल, इमारतें, फ्लाईओवर, पेड़ पौधे, नदियाँ…. सब के सब कबाड़ कर उसे करीने से सजाते हुए लगाना चाहिए"- इसी सोच के चक्कर में उस दिन मैं राजकोट जीरो माईल उतरने के बजाय २० किलोमीटर आगे चला गया था.

मैं जब सोचने पर आ जाता हूँ तो कुछ भी सोच लेता हूँ. आपको बता दूँ, मैं यात्रा में निशाचर हो जाता हूँ. एक बार ट्रेन में चेयर-कार की सुविधा का आनंद लेता हुआ मैं दिल्ली जा रहा था. सुबह के २ बजे होंगे. समूचे डब्बे में लोग सो रहे थे. औंधे मुंह. कोई इधर तो कोई उधर. कोई तो मुंह ढँक कर सो रहा था और कोई मुंह फाड़ कर. न किसी को कपड़ों का लिहाज और न ये समझ की किसके कंधे पे सोये हैं. सो भैय्या ऐसे सबके सोये मने मेरी सोच जाग उठी – "ये सारे लोग कितने गलत तरीके से बैठे हैं यार. सीट समायोज्य होने चाहिए थे. ये क्या की कोई किसी अन्य के परिवार के साथ ऐसे बैठा है... और फिर सोते समय सब के धड़ एक तरफ ही झुके क्यों नहीं... या फिर जिनके कपडे अपनी जगहों पे नहीं वो लोग दुसरे की आँखों से ओझल क्यूँ नहीं हो जाते" – इस सोच का अंत ऐसे हुआ की एक महिला ने मेरी नजरों पर संदेह करते हुए अपने पतिदेव को जगा दिया.

मुझे पता है आप में से कई लोग अब तक मेरी धर्मपत्नी द्वारा कहे शब्द को सच मान चुके होंगे या फिर इस लेख के ख़त्म होने के इन्तजार में होंगे. मुझे नहीं लगता इसमें मेरा कोई भी दोष है. अगर दोष है तो बस उसमें जिसने मुझे बनाया. अब देखिये जब माइक्रोसॉफ्ट एक ही तरह के सॉफ्टवेयर बना सकता है जो हरेक बार एक ही तरह से काम करता है, हर बार ५ और ५ का जोड़ १० ही बताता है तो फिर ऊपर वाले ने क्यों ऐसा नहीं किया हमारे साथ. क्यों हम हर बार अलग अलग तरीके से और अलग परिणाम देने वाला काम कर जाते हैं भला ? खैर, इस चक्कर में और इस तरह के कई और लफड़ों में ऊपर वाले को दोषी मानते हुए मैंने उसे भी नीचे वाला हीं मानना शुरू कर दिया है – हाँ, मेरे इस अजूबे और अनोखे सोच का नतीजा यह है कि लोग मुझे नास्तिक मानने लगे हैं.

एक बार की बात है पत्नी (धर्म वाली ) के साथ मुंबई में एक होटल में रुका था. खूब घुमे, खाया-पीया लेकिन बीवी को इस बात का दर्द था की टैक्सी वाले ने सिर्फ ११०० रूपये ही क्यों लिए. अब मेरी सोच शुरू - "अरे ओये भगवान् जी महाराज, आपने ये नियम सार्वजानिक क्यूँ नहीं किया की ‘खर्चा जो है वो मजे का अनुक्र्मानुपाती है’ – खैर मेरा क्या. मैं सोचने लगा और फिर बीवी से कह दिया की अगली बार जब कभी हमें घुमने और मजे करने का मन होगा तो कुछ हजार रूपये हम कहीं किसी नदी में बहा आयेंगे या फिर फाड़ कर गुड्डी की तरह हवा में उड़ा देंगे. लेकिन इस सोच का अंत बड़ा ही अजीबोगरीब हुआ. जब मैं अपने बटुए के साथ साथ उसमे से झांकते ३३०० रूपये के गुम होने की खुशखबरी पत्नी को सुनाने लगा तो उसने अगले एक सप्ताह तक मौन व्रत धारण कर लिया.

जब कभी कोई सोच मुझे बहुत जोर मारने लगती है तो मैं एकांतवास में किसी नदी का किनारा धड लेता हूँ. ऐसे ही एक दिन एक सोच से प्रताड़ित होता हुआ बैठा था. मेरी सोच का विषय था मानवता में समता. दरअसल, इस सोच मे कुछ सेन्सरशिप है सो ज्यादा नहीं कह पाऊंगा. सिवाय इसके की – जब कभी किसी राह चलती महिला या नवयुवती को देखता हूँ तो वो संदेह की नज़रों से क्यों घूरती है, जबकि उसी तरीके से और उतने ही सेकेंड के लिए मैं किसी पुरुष या नवयुवक को भी देखता हूँ – अब सोच का क्या, आ कर चला गया किन्तु इस सोच को लोगों को बताने से होने वाले परिणामों को सोच मैं आजतक सशंकित हूँ.

ऐसा नहीं की मैं रिश्तों के बारे में नहीं सोचता. कई बार ये भी मन में आया है की अगर मेरा बेटा मुझसे ज्यादा समझदार है और कमाऊ है तो फिर घर का गार्जियन वो क्यों नहीं है...या फिर मेरा छोटा भाई या छोटी बहन मुझ बड़े से ज्यादा परिपक्व है तो फिर प्राथमिकता उसे क्यों नहीं…

खैर जाने दीजिये.. आपलोग मेरी सोच के चक्कर में ना पड़ें और एक बार ये सोच कर देखें की – देश का प्रधानमंत्री-नरेन्द्र मोदी, रक्षा मंत्री- राहुल गाँधी, कानून मंत्री - अरविन्द केजरीवाल, गृह मंत्री - ममता बनर्जी, विदेश मंत्री - शशि थरूर और वित्त मंत्री - अमर्त्य सेन को बना दें तो अच्छा नहीं होता ? 

- आचार्य प्रवीण आनंद जी महाराज !

Sunday, 24 March 2024

राम ही खेलते आये होली, सिया नहीं

मुझे नदी का किनारा अच्छा लगता है. अन्दर अनेकानेक हलचल लिए ऊपर से बिलकुल शांत सा जल मुझे अपना सा लगता है. कोई योजना नहीं थी, मन हुआ, चला गया. यह किनारा शहर से तक़रीबन बीस किलोमीटर दूर था... शहर के कोलाहल, ट्रैफिक और शोर शराबे से दूर होना बेहतर लगता है. शायद यह माहौल अपने गाँव के करीब लगता है इसलिए.

हाँ, वहां और यहाँ का एक अंतर है कि वहां आप पत्नी को साथ नहीं ले जा सकते. इस मामले में मुझे पर्व त्यौहार बहुत भले नहीं लगते... या फिर हो सकता है कि मेरी इस सोच के पीछे मेरा अल्प ज्ञान हो.

नहीं नहीं, मैं उन कामपंथी गैंग में से बिलकुल नहीं जिन्हें दिवाली में प्रदुषण और होली में जल समस्या दिखती है. जम कर त्यौहार मनाने का पक्षधर हूँ मैं तो. हाँ मुझे कभी कभी ये लगता है की हमारे त्योहारों में स्त्री की सहभागिता तैयारी, साज-सज्जा, पकवान निर्माण और साफ़ सफाई से थोडा ऊपर हो.

अभी होली का उदाहरण लें. छुट्टी मिली, घर का मर्द नाना प्रकार के बहानों समेत किसी ख़ास काम या दोस्त से मिलने को घर से बाहर हो जाता है. वहां वो नाचे गाये, कुर्ता फाड़े... सो कॉल्ड इलीट बने और घर आये तो भकोस ले और चीर निद्रा ले.

जी, नदी के किनारे भी अर्धांगनी के साथ ही था. मैं शायद अपेक्षाकृत पिछड़ा हूँ सो चलते चलते तय हुआ था, सुबह कुछ नहीं पकाएँगी वो और रात मैं पकाऊंगा... इसी बीच होली मिलन समारोह की याद आई... मिथिला महान वाले लोगों का विसुअल देखा - "आजा हमहूँ ओवरलोड बानी" - पर लौंडा नाच सरीखा चल रहा था...

घर में मालपुआ, मांस, दही-बड़ा, जलेबी, गुझिया, रंग-अबीर, साज-सज्जा का ओरीयान था... इलीट नहीं हूँ, अकेला आनंद लेना आया नहीं सो पत्नी का दिया प्याज ले सलाद काटूँगा... आंखें में आंसू है, मन में गाँव है, आँगन से दलान का दूर होना है, पितृसत्तात्मक कायदा, आंगन में दबी कुचली सहमी और बर्दाश्त करते चेहरे... लिली रे की कहानियों के कुछ पात्र हैं... शायद यही वजह है कि #मिथिला में #राम ही होली खेलते आये, माता #सिया नहीं... शायद वो ओरीयान में व्यस्त रहती हों...

पर्व त्योहारों का स्वरुप बदल रहा है देश दुनियां में. पारम्परिक तौर तरीके शनैः शनैः विलुप्त होते जा रहे हैं... मिथिला के गांवों में पंजाब, गुजरात और दिल्ली का खोखला अहं घुस चूका है, भांग कम, दारू अधिक हो रहा... मालपुआ आम माल से भरा कम और चाशनी में डूबा अधिक हो चला है...

पत्नी को अभी भरी दोपहरी में डाभ पीना है लेकिन उसका कहना है कि सड़क पर अकेले मत जाओ, दिमाग का डॉक्टर देखो कोई अपने लिए :(

#कुछभीलिखताहूँ
#अलरबलर

Tuesday, 19 March 2024

एकल मन में मौजूद दोनों पंथ

"कई बार यूँ ही देखा है, ये जो मन की सीमा-रेखा है, मन तोड़ने लगता है" - गीतकार योगेश और गायक मुकेश ने रजनीगंधा फ़िल्म में प्रस्तुत किया है यह सुंदर गीत। गाने में मेरी पसंदीदा नायिका अपने बिखड़े बालों के साथ सड़क पर कुछ तलाशती नज़र आती है... विद्या सिन्हा साड़ी में सेंसुअस लगती ही है। आगे नायक दिनेश ठाकुर जब कार में बैठ कर बड़ी सी सिगरेट जला बाहर देख रहा होता है तो नायिका भी बार बार पलट कर उसकी ओर देखती है... शायद उसे नायक से अपेक्षा होती है कि वो कुछ कहे। नायक बेफ़िकर हो सिगरेट का धुआँ छोड़ रहा होता है। सीट पर रखे नायक के एक हाथ को नायिका के साड़ी का पल्लू छूता जाता है... नायक नायिका दोनों विपरीत दिशा में देख रहे होते हैं... ऐसे में भले ही दुनियाँ के सामने दोनों एक दूजे को कुछ न कह रहे हों किंतु नायक का हाथ और नायिका के साड़ी का पल्लू एक दूसरे से कुछ कह रहे होते हैं शायद...


असल में खामखां ही लिख गया ये सब... जैसे क्रिकेट का स्कोर बताते हुए कोई क्रिकेट विशेषज्ञ बन जाता है वैसे मैं भी बेफजूल ही कमेंट्री कर बैठा. दरअसल मुझे कहना ये था कि इस गीत में मन की सीमा रेखा को मन द्वारा तोड़ने की जो बात हुई है वो ग़लत है. मेरी समझ में एक आदमी (या औरत) में ही दो आदमी या दो औरत होते हैं जो एक दूसरे से तालमेल नहीं रखते, एक दूजे की बात से इत्तेफ़ाक नहीं रखते... और यही एक दूसरे को तोड़ते हैं.

इस हिसाब से गीतकार योगेश का विरोध जताते हुए मैं यह कहना चाहता हूँ की इंसान का शरीर एक भले हो, उसमें दो इंसान रहता है। एक पक्ष और दुजा प्रतिपक्ष... या शायद एक दक्षिणपंथी और दुजा वामपंथी. एक जिसे सही ठहराता है दुजा उसे ही ग़लत कहता है. इंसान भले बाहर से एक दिखने का नाटक करता हो, अंदर ही अंदर वो ख़ुद के ही अंदर वाले दुसरे व्यक्ति से जूझता रहता है. किसी एक ही परिस्थिति में एक पल को आदमी के अन्दर का एक आदमी आनंदित होकर इसे नियति मान लेता है, दूजे ही पल किसी वजह से आये अवरोधक पर उसे ये सब बेफजूल और पाप या दुष्कर्म मानने लगता है. दोनों ही एक ही मन है... एक सामने, एक पीछे नेपथ्य में... बारी बारी से मंच पर अपनी प्रस्तुति देता... फिल्मों के डबल रोल सा... 

मुझे लगता है कि दुनियाँ को नजर में आने वाला हमारे अंदर का शख़्स शायद दक्षिणपंथी ही होता है और वो जो सामने नहीं आता, अंदर ही अंदर उसे तोड़ता रहता है वो पक्का वामपंथी होता है. समाज को दिखने वाला हमारा दक्षिणपंथी चेहरा सब कुछ आयडीयलिस्टिक भले करता हो, अंदर का दूसरा (वामी) इंसान उसे बार बार कहता रहता है - "स्याले, इतना दिखावा क्यूँ करता है, सब पता है मुझे कि अंदर से क्या है तू... चाहता तो कुछ और है तू... बोलता कुछ और है... तेरे मन में साले जॉन एलिया है लेकिन बाहर से राजन जी महराज बना है.."

कई बार अंदर का यह द्वन्द इतना अधिक हो जाता होगा की हमारे अंदर का छुपा हुआ वामपंथी चेहरा उसे ही धमकाता होगा - "सुधर जा वरना कहीं मैं सामने आ गया तो दुनियाँ के सामने तेरे नाटक का पटाक्षेप हो जाएगा, सबके सामने तेरा असली चेहरा आकर तेरी पोल खोल जाएगा"

ऐसे में हमारे अंदर का पहला मानव इस छुपे (किंतु असली) मानव को समझाता होगा.... समझाता क्या, उसको नयी नवेली दुल्हन की तरह पोलहाता होगा - "मान जाओ, प्लीज़, मान जाओ न, मुझे बने रहने दो न 'महान'... आख़िर हम दोनों एक ही शरीर (लोकतंत्र) के वासी हैं न, मेरी भलाई तुम्हारी भलाई..." और फिर मुख्य इंसान यानी की लोकतंत्र उस उस दिन बस थोड़ा ठमक भर जाता है जब उसका वामपंथी चेहरा जवाब देता है - "देख, तेरी ही भलाई को कहता हूँ, स्वयं और स्वयं की प्रस्तुति में अधिक बड़ी खाई रखेगा तो एक दिन उसी में गिर जाएगा" - किन्तु अफसोस ! यह ठमकना क्षणिक मात्र के लिए इसलिए होता है क्योंकि सत्ता और सारे टूल्स दक्षिणपंथी चेहरे के पास हैं, उसे पता है कि उसके अंदर का वामपंथ भले कितना भी क़समकस करे, उसे दबाया जा सकता है... ऐसे में यह निर्धारित करना की असल दोषी कौन सा पंथ है, मुश्किल है... बेहतर कौन है, कहना मुश्किल है... बेहतर तो शायद यही है कि दोनों के बीच की खाई न्यून हो और दोनों थोडा सामंजस्य दिखाएँ...


Note ~ कैसा लगा अवश्य बताएँ, पेमेंट गूगल पे पर कर सकते हैं... अग्रिम धन्यवाद समेत - आपका शुभेक्षु - रिटायर्ड आचार्य - प्रवीण कुमार झा "बेलौनवाले"

Sunday, 28 January 2024

दफ्तर का अनुभव - Situational Leadership & Communication


मेरे एक बॉस हुए - मिस्टर साके। नहीं, नहीं, वो हिंदुस्तानी ही थे। आंध्रप्रदेश के विशुद्ध हिंदुस्तानी। मटन में मिर्च बहुत खाते थे और अनलिमिटेड पार्टी करते थे। इतने लिमिटलेस की रात दो बजे होटेल में चिकन ख़त्म होने पर पहले वेटर को धमकाया फिर पचास अंडे ऑर्डर कर दिया।

साके साहब धुन के पक्के थे। सुबह आठ से रात आठ कड़ी मेहनत वाले। खूब काम करो, खूब पार्टी करो। वैसे पियाक लोग साके का मतलब जानते होंगे। साके एक जापानी ड्रिंक है जो टकिला शॉट से मिलता जुलता है। मुझे याद है चीन के जापानी रेस्टोरेंट में यह परोसते तो साथ में छिलके समेत उबला अंडा देते... उसमें लहसन और मिर्च भी। माफ़ कीजिएगा पियाक शब्द ग़लत लिख गया। आवश्यक नहीं सब वही पियाक वही वाले हों... नैनों से/ के पीने वाले भी होते हैं।

उप्स, विषयांतर हो गया। तो साके सर ने काफ़ी कुछ सिखाया। मैं अधिक अग्रेसिव एम्प्लॉई था। अपना काम सही करने को अक्सर लड़ भी जाता। कोशिश की आख़िरी सीढ़ी तक जाता। लक्ष्य की प्राप्ति को सौ से अधिक प्रतिशत देने की कोशिश रहती। यहाँ तक की कोई ईमेल जब आए रिप्लाई तभी करने को तत्पर। एक बार आधी रात को मेल का रिप्लाई पाकर एक बड़े अधिकारी ने जवाब दिया था - सो जाओ, ऑफिस टाइम में जवाब दो बस। लेकिन मुझे तो तभी के तभी सब सुलटाना होता था। मैं कोई बात कहता तो डंके की चोट पर कहता। ज़ोर से कहता। हर जगह वही कहता। ना कम और ना ज़्यादा। जूनियर के साथ मीटिंग में भी और सीनियर के साथ भी... एक आध बार तो MD के सामने भी वही बात।

साके साहब ने समझाया। प्रवीण, ज़ोर से बोलना, दूसरे को चुप कर देना... इससे हासिल क्या होता है उस पर सोचना। उन्होंने उदाहरण देकर कहा - "एक ही बात को अलग अलग प्लेटफ़ॉर्म पर अलग तरीक़े से रखनी होती है। श्रोता की श्रेणी, कहने का माध्यम और हमारा प्रारब्ध अलग अलग होता है अलग अलग प्लेटफ़ॉर्म पर… हमें ये सब सोचकर एक ही बात को अलग अलग तरीक़े से रखना होता है। किसको कितना बताना है ये तय करना सीखो।"

दूसरी बात जो उन्होंने बताई - "ग़ुस्से में ईमेल या किसी भी संवाद का जवाब मत दो। अधिक ग़ुस्सा हो तो जवाब लिख कर रख लो, सेंड ना करो। कोशिश ये रहे की आधे दिन के बाद ही ईमेल आदि का रिप्लाई करो... सुबह अपने साथ लायी सकारात्मक ऊर्जा का उपयोग करो…"

ईमानदारी से कहूँगा। ये दोनों सीख अब तक काम आ रही। शत प्रतिशत ऐसा नहीं कर पाता... ग़लतियाँ होती है, किंतु कोशिश रहती है। सोशल मीडिया पर सार्वजनिक कम्यूनिकेशन, मैसेंजर पर, फ़ोन पर, सामने बैठ कर कम्यूनिकेशन... सब अलग अलग हैं। सबको असरकारी बनाने के अलग तरीक़े और समझ भिन्न होते हैं। ध्यान रखना चाहिए... सीखने और बदलने की उम्र नहीं होती कोई और न ही कोई तय शिक्षक.

आजकल अब व्यस्ततम दिनचर्या है, लगभग चौबीस घंटे दफ़्तर का तनाव, ईमेल, टारगेट, पीपीटी, रिपोर्ट्स... और इन सबके बीच दोस्तों के संवाद से ख़ुद को रिचार्ज करने की कोशिश... साके साहब बैंगलोर में एमडी हैं। बाद बाँकि आप सबका दिन आबाद रहे, आप सब ज़िंदाबाद रहें।