मिथिला में उम्र का आखरी पड़ाव आसन्न देख लोग जल्दी जल्दी से यथासंभव पुण्य कर्म करने लगते हैं। उनकी कोशिश रहती है कि जीवन भर के गलत को यथासंभव सही कर लें, नहीं नहीं, मैं यह बिल्कुल नहीं कह रहा की मैथिली साहित्य अकादमी अपने उम्र के आखरी पड़ाव में हैं... हालांकि जिस हिसाब से पहले #मैथिली शिक्षा को समाप्त किया गया, फिर इसमें अवधि आदि को मिश्रित करने की साजिश हुई, इसे शास्त्रीय भाषा होने से दूर किओय गया... हालिया दरभंगा रेडियो स्टेशन से इसके प्रसारण पर रोक भी लगी, संभव है, मैथिली में साहित्य अकादमी भी समाप्त कर दिया जाए...
विषयांतर पर अवरोधक का इस्तेमाल करते हुए, वर्ष 2024 का मैथिली भाषा में मैथिली साहित्य अकादमी पुरस्कार आदरणीय महेंद्र मलंगिया सर को देने की घोषणा अकादमी द्वारा जीवन भर के किए पापों को कुछेक पुण्यों से ढंकने की कोशिश दिखती है मुझे। सर की पुस्तक प्रबंध-संग्रह को इस पुरस्कार के रूप में चयनित किया गया है। विभिन्न कारणों से पिछले तकरीबन दस वर्षों से विवादित रहा यह पुरस्कार इस बार निर्विवाद रूप से न केवल एक सुयोग्य व्यक्ति को दिया गया बल्कि इसे एक Delayed या फिर Justice Due की तरह का निर्णय भी कहा जाएगा।
मैथिली के सुपरिचित नाटककार, रंग निर्देशक एवं मैलोरंगक के संस्थापक अध्यक्ष महेंद्र सर ने जितना कुछ मैथिली साहित्य को दे दिया है उसे देखकर अकादमी ने उन्हें पुरस्कृत कर खुद को सम्मान दिया ऐसा कहना तो यथोचित होगा ही साथ साथ इस पुरस्कार की घोषणा के बहाने साहित्य अकादमी दो अन्य बातों के लिए भी बधाई का पात्र है -
- पहली बात - इधर बीते कुछ वर्षों से फैल रहे मैथिली काव्य संस्कार के प्रदूषण से मुक्ति हेतु और
- दूजी बात - 1991 में रामदेव झा रचित "पसिझैत पाथर" के बाद 33 वर्ष उपरांत नाटक केटेगरी में पुरस्कार हेतु।
मिथिला-मैथिली से रत्ती भर सरोकार रखने वाला भी महेंद्र मलंगिया जी से परिचित होगा ही। नाटक और उसके मंचन के लिए ख्याति सह जनस्नेह पा चुके महेंद्र सर का रचना संसार एक साहित्यकार द्वारा People Connect का श्रेष्ठ उदाहरण है। इस संबंध में एक डाक्यूमेंट्री में उनका ही एक ग्रामीण कहता है - "वो गाँव घर के वाद-विवाद को देखते भी नोट बनाते रहते। किसने क्या कहा, कहते हुए उसका भाव, भाव-भंगिमा और उतार चढ़ाव... सब पर नजर रहती महेंद्र जी की जिसे वो हूबहू अपने नाटकों में उतार दिया करते थे।"
20 जनवरी 1946 को जन्में श्रीमान महेंद्र झा जी अपने गाँव के नाम मलंगिया से महेंद्र मलंगिया बने। मैथिली साहित्य में कमोबेश सभी पुरस्कार पा चुके मलंगिया जी ने अपने साहित्य संसार का पसार सीमा पार के मिथिला से आरंभ किया और फिर हमारी पार वाले मिथिला के हो गए। उत्तरोत्तर अपने नाटक, शोधकार्य और अन्यान्य साहित्यिक रचनाओं के अलावा मलंगिया जी एक सहज, सुलझे और सामाजिक सरोकार वाले व्यक्ति हैं। रेखांकित करने वाली बातों में - इनकी पुस्तक “ओकरा आँगनक बारहमासा” और “काठक लोक” ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा के मैथिली पाठ्यक्रम में है। साथ ही इनकी दो पुस्तक त्रिभुवन विश्वविद्यालय, काठमाण्डू के एम.ए. पाठ्यक्रम मे भी है।
विडंबना देखिए की इनके नाटक जिस दरभंगा रेडियो स्टेशन पर सुनाए जाते थे, अभी हफ्ते भर पहले उसे बंद करने का फरमान जारी हो गया है... मैं नहीं कह रहा कि ये उसकी भरपाई है किन्तु अब महेंद्र मलंगिया जी के नाटक वहाँ नहीं सुना जा सकेगा।
मलंगिया जी के संबंध में मैथिली साहित्य के जीवित पितामह स्वयं भीमनाथ झा जी द्वारा कही गई कुछ बातें काबिल-ए-गौर है। मलंगिया जी के एक जन्मदिन की बधाई पर भीमनाथ सर के शब्द -
"कोनों स्थिति उकरु नै, कुनो लोक अनचिन्हार नै, उकरुओ के सुघड़ आ अनचिन्हारो के आप्त बना लेबअ बला गुण छनि हिनका में, महा गुणझिक्कू छथि, सोझा बला के गुण सुटट् सs झिक लैत छथिन, अहाँ के पतो नै लागअ देता आ अहाँ के खखोरि लेता। आ ओहि खोखरन के तत्व के सत्यक नाटक में फिट क देता। ई बनबय कहाँ छथि, रचैत कहाँ छथि, ई त हमरा अहाँ सs, चिन्हार आ अनचिन्हार स, गाम सौं, ल लैत छथि या नाटक में ओहिना के ओहिना राखि दैत छथि। त अहिना में हिनक नाटक, टाटक कोना भ सकैत अछि।
हरदम अनमोनायल लगता, कखनो ओन्घायलयक सीमा धरि, तेजी न चलबा में न बजबा में। मुदा रेजी चक्कू थिका ई, कोन बाटे नस्तर मारि के अहाँ से अहाँ के निकालि लेता आ अहाँ के पतो नै चलय देता। ओहि अहाँ के ई धोई पोईछ के नाटक में पीला दैत छथि आ असली चेहरा ठाढ़ क दैत छथि। अहाँ ठामहि छी आ अहाँ के 'अहाँ' पर ओहि समेना में हजारों लोक ढहक्का लगा रहल छथि। जे नै देखैत छी से देखा देब, असंभव के संभव बना देब। येह त हिनक नाटक थीक।
कतेको नाटककार जादूगर बनि जाइत छथि आ रंगमंच पर जादू देखबैत छथि। जादू लोक जतबा काल देखैत अछि ततबे काल चकित होईत छथि। खीस्सा खतम या पैसा हजम। मलंगिया जी के मुदा जादूगर नै कहबनि। किएक त पैसा हजम भेलाक बादो हिनक खीस्सा जारिए रहैत छनि। ओ अहाँ में खीस्सा के लस्सा साटि जाइत छथि आ हिनक ठस्सा ई, जे लस्सा लगा देल बक टिटियाई'या, ओ अपने टघरि जाइत छथि दोसर शिकार में। हम त पक्का शिकारी कहैत छियनि हिनका, अचूक निशानेबाज... पक्का खिलाड़ !"
रीति-रिवाजों के मुताबिक हम सब मलंगिया जी के साथ लिए अपनी अपनी तस्वीरों को चस्पा कर उन्हें बधाई दें... ईश्वर उन्हें निरोग रखते हुए दीर्घायु बनाए... उनके साथ वाली तस्वीर न लगा कर उनके कंजूस हस्ताक्षर की तस्वीर चेप रहा हूँ और साथ साथ उनके ही मित्र श्री भीमनाथ झा जी द्वारा दिए टास्क "वर्ण रत्नाकर" पर उनके कार्य की प्रतीक्षा में - एक प्रसंशक !
सर कें बहुत बहुत वधाई आ शुभकामना। हम सभ आइ गौरवान्वित बुझा रहल छी। सचमे कतेक बरखक बाद साहित्य आकादमिक पुरस्कार सेहो गौरवान्वित भ रहल अछि।
ReplyDeleteसंजय झा नागदह
स
धन्यवाद संजय भाई
Deleteबहुत रास बधाई आ शुभकामना 👏🏻👏🏻
ReplyDeleteसर कऽ बधाई आ आहां कें धन्यवाद अहि लेख लेल।
ReplyDelete