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Sunday, 17 August 2025

मित्र धैर्यकांतक नाम लिखल एकटा पाती

२० अक्टूबर २०२२, पुणे
प्रिय धैर्यकाँत, 

काल्हि चारि मासक बाद अहां अपन मुखपृष्ठ पर लिखलहुं। अहां जखन लिखैत छी, हृदय सं लिखैत छी‌। अद्भुत लिखलहुं मित्र।

ई एकटा पैघ सत्य थिक जे लिखला सं मोन हल्लुक होइत छैक मुदा सत्य त' इहो थिक जे प्रश्न, उत्तर आ तकर प्रतिउत्तर सं वैह मोन फेर सं ओहिना भारी भ' जाइत छैक। अहां नीक करैत छी जे आब एहि सभ फेरी मे नहि पड़ैत छी।


ई सत्य थिक जे सोशल मीडिया पर जे किछु देखाइत छैक वास्तव मे असल जिनगी मे ओहेन किछु नहिए जकां होइत छैक। एतय अपन सभटा दुख, कष्ट, कमी आ कमजोरी कें नुका क' अबैत अछि लोक। हालाँकि एहि सभक कारण की हेतैक तकर जनतब नहि अछि हमरा मुदा, संभवतः एकटा होड़ आ प्रतिस्पर्धा हमरा जनैत सभसं पैघ कारण भ' सकैत छैक जाहि मे मनुक्ख कें कत' जयबाक छैक तकर ओकरा कोनो जनतब नहि। देखि रहल छी जे सभ पड़ाएल जा रहल अछि...एक-दोसर सं नीक देखेबाक लेल त' कियो स्वयं के बड्ड पैघ ज्ञानी प्रमाणित करबाक लेल... किछु गोटें त' अपनहि जिनगीक एकांत अवस्था भ्रमित करबाक लेल लिखैत अछि। 

हमरा लगैत अछि जे हम सभ एकटा मुखौटा पहीरि लेने छी आ कतहु ने कतहु ई मुखौटा संभवतः आवश्यको अछि। जिनगी जीबाक लेल। बिना आवरण कें संभवतः अहां नकारि देल जाइ, अहांक अपनहि लोक अहांकें चिन्हबा सं मना क' देथि, कारण हुनका सभक लेल अहाँ जे आवरण धारण कयलहुं ओ सभ अहाकें आब ओही आवरण मे देखय चाहैत छथि। कियो अहांक वास्तविक रूप अथवा अहांकें स्वयं कें आवश्यक रूप मे नहि देखय चाहैत अछि। एहेन स्थिति मे हम सभ 'जॉन'क ओहि शेर कें मोन पाड़ि जीबैत जा रहल छी जे - 

"कितने दिलकश हो तुम कितना दिलजूं हूँ मैं, 
क्या सितम है कि हम लोग मर जाएंगे" 

हं, संभवतः इएह सोचि क' जे संसार त' दू दिनक मेला अछि, मरबाक अछिए तखन किए शत्रुता मोल ली! त' साहस करैत हम सभ आवरण धारण कयने रहैत छी।

हं, अहां सही छी जे जखन मनुक्ख स्वयं कें अपनहि द्वारा परिभाषित सांच मे गलत पबैत अछि त' ओ अलग-अलग युक्ति ताकय लगैत अछि आ ओकरा अजमाबय लगैत अछि। जल्दीसं सभ किछु सरियाबै के प्रयत्न करै मे ओ सभ किछु आधा-अधूरा छोड़ैत जाइत अछि। ओकरा लगैत छैक जे ई सभ त' बाद मे क' लेब मुदा ई सभटा आधा काज ओकर कान्ह पर बोझ बनैत चलि जाइत छैक। ओ झुकि क' चलै लगैत अछि, हेराएल जकां रहैत अछि,सिगरेट आ शराब कें अपन मित्र बूझय लगैय अछि। ओकर आंखिक नीचां गहींर होइत जाइत छैक,ओकर अपन सभटा व्यवस्था खराब होइत जाइत छैक दोसरक व्यवस्था कें ठीक करबाक फेर मे।

हं, संबंध चाहे घरक होइ अथवा बाहर, अथवा सोशल मीडियाक, सभटा स्वार्थे पर आधारित रहैत छैक। जखनहि अहां स्वार्थ पूर्ति करब बंद कयलहुं कि ओ गधाक सींग जकां अहांक जीवन सं विलीन। ओ इहो नहि सोचत जे अहांक सेहो कोनो स्वार्थ भ' सकैत अछि। कोन ठेकान जे कोनो विवशता हुअए। हुनकर सभक हिसाबे विवशता त' हमर अपन अछि ने! ओ सभ चलि जाइत छथि कतहु आर आ... संभवतः कोनो आर व्यक्तिक दुनिया मे। हमर सभक दुर्भाग्य जे ओतय ओ हमर केलहाक चर्च करबाक स्थान पर हमर सोखर करबा मे लागि जाइत अछि। ओ हमर कुचिष्टा करबा धरि चैन नहि होइत अछि बल्कि हमर अस्तित्व समाप्त करबाक योजना मे लागि जाइत अछि। ओ ई प्रमाणित करबा मे लागि जाइत अछि जे ओ कोना हमरा लेल आवश्यक छल, हम नहि। एहि मे एक स्तर आगू हम इहो देखलियै जे जाहि व्यक्तिक सोझां हमर प्रशंसा होइत रहैत अछि ओ व्यक्ति हमरा संदर्भ मे एकटा अवधारणा बना लैत अछि। हमरा सं बिना कोनो गप कयने कोनो व्यक्ति कोना हमरा संदर्भ मे कोनो अवधारणा बना लैत अछि से नहि कहि मुदा, आइ-काल्हि ई बड्ड चलती मे छैक जे अहां किनको सं किछु सुनि क' हमरा संदर्भ मे राय बना लिअ। सोशल मीडिया पर किनको पढ़ि क' हुनकर आंकलन क' लिअ आ फेर मोनमोटाव क' लिअ। 

अहां लिखलहुं जे परिवार आ संबंध अहांक सोझां खाधि खूनि दैत अछि। शत-प्रतिशत त' एहेन नहि छैक मुदा हम सभ जतय सं छी ओतय एकर अनुपात बहुत अधिक छैक। कतेक उदाहरण देखने छियै हम जखन एकटा लड़का अपन परिवारक लेल स्वयं कें समाप्त क' लैत अछि आ ओकर परिवार ओकरा शाबाशी देबाक स्थान पर ओकरा सं जे काज नहि भेल रहैत छैक तकर उलहन देबय लगैत छैक। ओ की सभ कयलक से नहि बता क' ओ की सभ नहि क' सकल वैह कहल जाइत छैक, जाहि सं ओकरा मोन रहै जे ओ मात्र सहबाक लेल आ थोड़े आर काज करबाक लेल मात्र बनल अछि।

पैघ शहरक प्रेमिका सभ! आब एतेक उदाहरण देखि चुकलहुं जे एहि सभ पर हमरा किछु लिखतो लाज लगैए। ई मानि क' चलू जे 'दिल्ली एन सी आर'क प्रेमिका सभ प्रेम नहि करैत अछि बल्कि, अहांक मासूमियतक हिसाब सं अहांक जेब आ मानसिक शक्ति (...) कें खोखला होबाक बाट तकैत अछि। बस एतबै कहब जे जं प्रेम करबाक अछि त' बच्चा सभसं करू, महिला सभकें मित्र बनाउ। बेसी मोन हुअए त' केजरीवाल कें चंदा द' आउ अथवा स्वयं कें चॉकलेट, वाइन आदि गिफ्ट क' दिअ। मुदा दिल्लीक प्रेमिका! नहि-नहि! 

जनै छी! हमरा एहि सभ बात सभक कोनो ख़ास कचोट नहि अछि आ हमहूं अहीं जकां तकर कोनो परवाहो नहि करैत छी। जं हम भूखल छी त' हॅंसैत छी, पेट भरला पर कने आर हॅंसैत छी। तकर कारण जे अहाक भूखल रहबा सं सभ... हं, सभ! सभ हँसत आ अहांक पेट भरल बूझि हँसैत देखि क' लोक बूझत जे एकरा हॅंसबाक बीमारी छैक। असल मे चिन्ता कतय होइत छैक जे एहि कारण किछु प्रतिशत जे नीक लोक छथि, हुनको सभक भरोस समाप्त भ' जाइत छनि। गहूमक संग जेना जौ पिसाइत अछि ओहिना किछु प्रतिशत लोक पिसाइत रहथि। कियो हिनका सभ पर भरोस नही क' रहल। हुनका सभकें हुनकर सभक नीक कर्मक लाभ नहि भेटि रहल।

अहां त' जनैत छी बीतल समयक ओ सभटा बात जहिया हम बहुत कष्ट मे रही। किछु संकोच सेहो रहैत छल जे जिनका सभकें हमरा सं उपकारक आशा रहैत छलनि हुनका सभकें हम कोना कहियनि जे हम मदति लेबाक स्थिति मे पहुंच गेल छी। हालाँकि तैयो जे सभ हमर लगीच रहथि ओ सभ अयलथि, हमर परिवार हमर संग ठाढ़ छल। हमर दुःख कें बुझलक, हमर तकलीफ मे साझी बनल आ पूछैत रहल। कियो एतय त' कियो कोनो अन्य पैघ शहर मे, अथवा कियो विदेश मे। जनै छी! एक राति डेढ़ बजे कियो हमरा अमरीका सं फोन कयलनि आ कहलनि - " प्रवीण, अहांकें जे मदति चाही से कहू, हम तैयार छी... कहू त' हम आबि जाउ।" नीक लागल। 

हालाँकि हमरा ओतबै अधलाह लागल जखन बीतल १० मासक एहि संघर्ष मे आ संभवतः जीवनक सभसॅं पैघ लड़ाइ मे किछु गोटें या त' अनभिज्ञ बनि गेलथि अथवा जानि-बूझि क' हमरा सं कतिया गेलथि। पहिने त' हमर आदतिक हिसाब सं हम एहि सभक कारण स्वयं कें मानलहुं जे संभवतः हमरहि मे कोनो कमी रहल हैत। मुदा बाद मे अधिक मंथन कयलाक बाद बुझबा मे आयल जे नहि, ई सभ त' हमरा सं मात्र एहि लेल जुड़ल रहथि जे हम हिनकर सभक कोनो काज आबि सकी। अहां सही कहने रही - "प्रवीण जी, सोझ गप नहि करै बला सं दूर रहू।" 

धैर्यकाँत, हम आब ई निर्णय ल' लेलहुं अछि जे मात्र सुखक समयक मित्र कें त्यागि देब। हम जनैत छी जे अहां कहब कि हम त' सभ किछु स्वयं पर ल' किनको जीवन भरिक लेल नहि त्याग' चाहैत छी तें अहां सं ई सभ नहि होयत। त' भाइ हम इएह कहब जे हम ई प्रयत्न करब। कारण, बीतल दस मास (जकरा हम दस साल जकां जीलहुं) हमरा सिखा देलक जे हमहूं मनुक्ख छी। ओ मनुक्ख जे नीक-बेजाए बुझबा मे गलती क' सकैत अछि आ ओकरा एहि गलती कें सुधारि लेबाक चाही। किछु पुरान कें 'क्रॉस' आ किछु नब कें 'टिक' क' लेबाक चाही। परिणामक चिंताक बिना मुंह पर कहबाक चाही जे 'नहि साहेब! अहां नहि चाही।' चाहे कियो खराब मानि जाए, हमरा बताह बूझय, अभिमानी कहै अथवा कुलबोरन। 

लिखैत रहू,
अहांक शुभचिंतक,

प्रवीण

Saturday, 16 August 2025

एक चिट्ठी धैर्यकांत के नाम - अक्टूबर 2020


डिअर धैर्यकाँत, 

कल ४ महीने बाद तुमने अपने वाल पर लिखा। जब दिल से लिखते हो, लिखते ही हो....शानदार लिखा दोस्त।

ये जितना बड़ा सच है कि लिखने से मन हल्का होता है उतना बड़ा सच ये भी है कि सवाल जवाब और प्रतिउत्तर से वही मन फिर से उतना अधिक भारी भी हो जाता है। अच्छा करते हो की अब इन चक्करों में नहीं पड़ते तुम। 

ये सच है कि सोशल मीडिया पर जो दिखता है दरअसल निजी जिंदगी में वैसा कुछ कम ही होता है। यहाँ अपने सारे दुःख दर्द, सारी कमियां और फ़टे को छुपाकर आता है इंसान। हालाँकि इसके सही वजह का पता नहीं मुझे लेकिन शायद होड़ और प्रतिस्पर्धा सबसे बड़ी वजह लगती है मुझे जिसमें इंसान को जाना कहाँ हैं वो नहीं पता होता है। देख रहा हूँ सब भाग रहे हैं... कोई किसी से बेहतर दिखने में तो कोई खुद को बड़ा ज्ञानी साबित करने में... कोई कोई तो अपनी ही जिंदगी के खालीपन को झुठलाने भर को लिखता है। 

मुझे लगता है हम सबने एक मुखौटा पहन रखा है और कहीं न कहीं यह मुखौटा शायद जरुरी भी है.... जिंदगी जीते रहने के लिए। बिना नकाब शायद आप नकार दिए जाएँ, आपके अपने भी आपको पहचानने से इंकार कर दें क्योंकि उनके लिए आपने जो चोला पहन रखा होता है वो आपको उसी में बने देखना चाहते हैं... कोई आपका वास्तविक रूप या फिर आपको आपके स्वयं की जरूरतों में नहीं देखना चाहता है। 

ऐसे में हम शायद जॉन के उस शेर को याद करके जिए जाते हैं की - कितने दिलकश हो तुम कितना दिलजूँ हूँ मैं, क्या सितम है कि हम लोग मर जाएंगे - हाँ शायद यही सोचकर की दुनियां तो दो दिन का मेला है, मर ही जाना है, कौन पंगे ले... तो दम घुटते हुए भी हम मुखौटा पहने रहते हैं।

हाँ, तुम सही हो की जब इंसान खुद को अपने ही द्वारा परिभाषित सांचें में गलत पाता है तो वो अलग अलग चीजें तलाशने और उनको आजमाने लगता है। जल्दी सबकुछ सही करने की कोशिश में वो आधा अधूरा छोड़ता जाता है सब... उसे लगता है कि ये तो बाद में कर लेंगे लेकिन ये सब अधूरे काम उसके कंधे पर बोझ बढ़ाते जाते हैं... वो झुक कर चलने लगता है, खोया रहता है, वो सिगरेट और शराब को अपना दोस्त समझने लगता है.... उसकी आँखों के निचे के गढ्ढे गहरे होते जाते हैं, उसका खुद का सिस्टम खराब हो जाता है सारा सिस्टम मैनेज करते करते। 

हाँ, रिश्ते चाहे घर के हों या फिर बाहर के या फिर सोशल मीडिया के, साले @#$@% सब स्वार्थ पर ही आधारित होते हैं। एक बार आपने स्वार्थ पूर्ति बंद किया नहीं की वो गधे के सर से सींग की तरह आपके जीवन से गायब। वो ये भी नहीं सोचते समझते की खुद तुम्हारा भी कोई स्वार्थ होगा... क्या पता लाचारी ही हो। उनके हिसाब से लाचारी तो हमारी अपनी है न... वो लोग चले जाते हैं, कहीं और... शायद किसी और की दुनियां में। हमारी बदकिस्मती की वहां वो बजाय हमारे किये की चर्चा के हमारी बदखोई करने में लग जाते हैं। वो हमारी बुराई तक ही शांत नहीं होते बल्कि हमारा ही वजूद ख़त्म करने की साजिश करने में लग जाते हैं... वो यह साबित करने में लग जाते हैं कि कैसे वो ही हमारे लिए जरुरी था, हम नहीं। इसमें एक स्टेप आगे और देखा है मैंने - जिसके सामने हमारी यह तारीफ़ हो रही होती है वो आदमी भी हमारे बारे में एक परसेप्शन बना लेता है... हमसे बिना बात किये कोई आदमी कैसे हमारे बारे में कोई विचार बना लेता है पता नहीं लेकिन आजकल ये नया ट्रेंड चला है कि आप किसी से कुछ सुनकर हमारे बारे में राय बना लो... सोशल मीडिया पर किसी को पढ़ कर उसे जज कर लो और फिर कब्जी सा मुंह फुला लो। 

तुमने लिखा की परिवार और रिश्ते आपके सामने गढ्डा खोद देते हैं। शत प्रतिशत तो ऐसा नहीं है किन्तु हम जहाँ से हैं वहां इसका प्रतिशत बहुत अधिक है। कई उदाहरण देखे हैं मैंने जब एक लड़का अपने परिवार के लिए खुद को ख़त्म कर लेता है और उसका परिवार बजाय शाबाशी के उसकी वजह से न हो पाए कामों के ताने भर देता है। उसने क्या किया ये न बताकर उसने क्या नहीं किया वही बताया गया उसे ताकि उसे याद रह सके की वो बस सहने, थोड़ा और करने और थोड़ा और करने को ही बना है। 

बड़े शहरों की प्रेमिकाएं.... अब इतने सारे उदाहरण देख लिए की इस पर मुझे लिखते हुए भी शर्म आती है। यह मान कर चलो की दिल्ली एन सी आर की प्रेमिकाएं प्रेम नहीं करती बल्कि आपके भोलेपन के हिसाब से आपकी जेब और मानसिक शक्ति (...) के खोखले होने का इंतजार भर करती हैं। बस इतना कहूंगा की प्रेम ही करना है तो बच्चे बच्चियों से करो... खुश महिलाओं को दोस्त बनाओ... ज्यादा जी करे तो केजरीवाल को चंदा दे आओ या फिर खुद को चॉकलेट, वाइन आदि गिफ्ट कर दो..... मगर दिल्ली की प्रेमिकाएं, न बाबा न। 

पता हैं मुझे इन सब बातों से कोई ख़ास मलाल भी नहीं और मैं भी तुम्हारी तरह परवाह भी नहीं करता अब किसी की। अगर भूखा हूँ तो हँसता हूँ, पेट भरे होने पर थोड़ा और हँसता हूँ... वजह की आपके भूखे होने की बात से सब... हाँ, सब के सब हँसेंगे और आपके पेट भरे होने पर हँसते देख कर लोग समझेंगे की इसको तो हंसने की बिमारी है.... असल में फ़िक्र कहाँ होती है कि इस वजह से कुछेक प्रतिशत जो अच्छे लोग हैं आपका भरोसा उनसे भी उठ जाता है... जैसे गेंहूं के साथ घुन पिसता है वैसे ही ये कुछेक प्रतिशत लोग भी पिस रहे... कोई इन पर भी भरोसा नहीं कर रहा... उन्हें उनकी नेकी का हक़ नहीं मिल रहा। 

तुम्हें तो पता ही है पिछले दिनों की कहानी जब बहुत कष्ट में था... थोड़ी झेंप भी रहती थी की जिन्हें मुझसे मदद की आशा रहती थी उन्हें कैसे कहूं की मैं खुद मदद लेने की हालत में पहुँच गया हूँ। हालाँकि फिर भी जो करीब थे वो आये, मेरा परिवार मेरे साथ खड़ा रहा... मेरे दुःख को समझा, मेरा दर्द साझा किया और पूछते रहे। कोई यहाँ था कोई अन्य बड़े शहरों में तो कोई विदेश में... पता है एक रात डेढ़ बजे किसी ने अमरीका से फोन किया और कहा - " प्रवीण, तुम्हे जो भी मदद चाहिए हम तैयार हैं... कहो तो आ जाऊँ" अच्छा लगा। 

हालाँकि मुझे उतना ही बुरा लगा जब पिछले १० महीनों के इस संघर्ष में और संभवतः जीवन की सबसे बड़ी लड़ाई में कुछ लोग या तो अनभिज्ञ बन गए या फिर सब जान बूझकर मुझसे किनारा कर लिया। पहले तो मेरी आदत के अनुसार मैंने इसकी वजह खुद को ही माना की शायद खुद की कोई कमी रही होगी मेरी। लेकिन बाद में अधिक मंथन पर पता लगा कि नहीं, ये तो बस मुझसे इसलिए जुड़े थे की मैं इनके किसी काम आ सकूँ। तुमने सही कहा था - "प्रवीण जी, सीधे नहीं बोलने वालों से दूर रहिये...." 

धैर्यकाँत, अब मैंने निर्णय ले लिया है कि सिर्फ और सिर्फ अच्छे दिनों वाले साथियों को त्याग दूंगा..... मुझे पता है तुम कहोगे की आप तो सबकुछ खुद पर लेकर किसी को जीवन भर त्यागना नहीं चाहते तो आपसे नहीं होगा ये सब। सो भाई - कोशिश करूँगा। क्योंकि पिछले दस महीनों ने (जिसे दस साल की तरह जिया है मैंने) मुझे सीखा दिया है कि मैं भी इंसान ही हूँ। वो इंसान जो सही गलत समझने में गलती कर सकता है... और उसे इस गलती को करेक्ट कर लेना चाहिए। कुछ पुराने को क्रॉस और कुछ नए को टिक करना ही चाहिए। परिणाम की चिंता किये बगैर मुंह पे कहना ही चाहिए की नहीं बॉस, आप नहीं चाहिए... भले कोई बुरा मान जाए, मुझे पागल समझे, एरोगेंट कहे या फिर कुलबोरन। 

लिखते रहो,
तुम्हारा शुभचिंतक,
प्रवीण

Wednesday, 18 December 2024

अहाँ के अहाँ से निकालि नाटक बनायब - अकादमी को बधाई

मिथिला में उम्र का आखरी पड़ाव आसन्न देख लोग जल्दी जल्दी से यथासंभव पुण्य कर्म करने लगते हैं। उनकी कोशिश रहती है कि जीवन भर के गलत को यथासंभव सही कर लें, नहीं नहीं, मैं यह बिल्कुल नहीं कह रहा की मैथिली साहित्य अकादमी अपने उम्र के आखरी पड़ाव में हैं... हालांकि जिस हिसाब से पहले #मैथिली शिक्षा को समाप्त किया गया, फिर इसमें अवधि आदि को मिश्रित करने की साजिश हुई, इसे शास्त्रीय भाषा होने से दूर किओय गया... हालिया दरभंगा रेडियो स्टेशन से इसके प्रसारण पर रोक भी लगी, संभव है, मैथिली में साहित्य अकादमी भी समाप्त कर दिया जाए...

विषयांतर पर अवरोधक का इस्तेमाल करते हुए, वर्ष 2024 का मैथिली भाषा में मैथिली साहित्य अकादमी पुरस्कार आदरणीय महेंद्र मलंगिया सर को देने की घोषणा अकादमी द्वारा जीवन भर के किए पापों को कुछेक पुण्यों से ढंकने की कोशिश दिखती है मुझे। सर की पुस्तक प्रबंध-संग्रह को इस पुरस्कार के रूप में चयनित किया गया है। विभिन्न कारणों से पिछले तकरीबन दस वर्षों से विवादित रहा यह पुरस्कार इस बार निर्विवाद रूप से न केवल एक सुयोग्य व्यक्ति को दिया गया बल्कि इसे एक Delayed या फिर Justice Due की तरह का निर्णय भी कहा जाएगा।

मैथिली के सुपरिचित नाटककार, रंग निर्देशक एवं मैलोरंगक के संस्थापक अध्यक्ष महेंद्र सर ने जितना कुछ मैथिली साहित्य को दे दिया है उसे देखकर अकादमी ने उन्हें पुरस्कृत कर खुद को सम्मान दिया ऐसा कहना तो यथोचित होगा ही साथ साथ इस पुरस्कार की घोषणा के बहाने साहित्य अकादमी दो अन्य बातों के लिए भी बधाई का पात्र है -
  • पहली बात - इधर बीते कुछ वर्षों से फैल रहे मैथिली काव्य संस्कार के प्रदूषण से मुक्ति हेतु और
  • दूजी बात - 1991 में रामदेव झा रचित "पसिझैत पाथर" के बाद 33 वर्ष उपरांत नाटक केटेगरी में पुरस्कार हेतु।

मिथिला-मैथिली से रत्ती भर सरोकार रखने वाला भी महेंद्र मलंगिया जी से परिचित होगा ही। नाटक और उसके मंचन के लिए ख्याति सह जनस्नेह पा चुके महेंद्र सर का रचना संसार एक साहित्यकार द्वारा People Connect का श्रेष्ठ उदाहरण है। इस संबंध में एक डाक्यूमेंट्री में उनका ही एक ग्रामीण कहता है - "वो गाँव घर के वाद-विवाद को देखते भी नोट बनाते रहते। किसने क्या कहा, कहते हुए उसका भाव, भाव-भंगिमा और उतार चढ़ाव... सब पर नजर रहती महेंद्र जी की जिसे वो हूबहू अपने नाटकों में उतार दिया करते थे।"

20 जनवरी 1946 को जन्में श्रीमान महेंद्र झा जी अपने गाँव के नाम मलंगिया से महेंद्र मलंगिया बने। मैथिली साहित्य में कमोबेश सभी पुरस्कार पा चुके मलंगिया जी ने अपने साहित्य संसार का पसार सीमा पार के मिथिला से आरंभ किया और फिर हमारी पार वाले मिथिला के हो गए। उत्तरोत्तर अपने नाटक, शोधकार्य और अन्यान्य साहित्यिक रचनाओं के अलावा मलंगिया जी एक सहज, सुलझे और सामाजिक सरोकार वाले व्यक्ति हैं। रेखांकित करने वाली बातों में - इनकी पुस्तक “ओकरा आँगनक बारहमासा” और “काठक लोक” ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा के मैथिली पाठ्यक्रम में है। साथ ही इनकी दो पुस्तक त्रिभुवन विश्वविद्यालय, काठमाण्डू के एम.ए. पाठ्यक्रम मे भी है।

विडंबना देखिए की इनके नाटक जिस दरभंगा रेडियो स्टेशन पर सुनाए जाते थे, अभी हफ्ते भर पहले उसे बंद करने का फरमान जारी हो गया है... मैं नहीं कह रहा कि ये उसकी भरपाई है किन्तु अब महेंद्र मलंगिया जी के नाटक वहाँ नहीं सुना जा सकेगा। 


मलंगिया जी के संबंध में मैथिली साहित्य के जीवित पितामह स्वयं भीमनाथ झा जी द्वारा कही गई कुछ बातें काबिल-ए-गौर है। मलंगिया जी के एक जन्मदिन की बधाई पर भीमनाथ सर के शब्द -

"कोनों स्थिति उकरु नै, कुनो लोक अनचिन्हार नै, उकरुओ के सुघड़ आ अनचिन्हारो के आप्त बना लेबअ बला गुण छनि हिनका में, महा गुणझिक्कू छथि, सोझा बला के गुण सुटट् सs झिक लैत छथिन, अहाँ के पतो नै लागअ देता आ अहाँ के खखोरि लेता। आ ओहि खोखरन के तत्व के सत्यक नाटक में फिट क देता। ई बनबय कहाँ छथि, रचैत कहाँ छथि, ई त हमरा अहाँ सs, चिन्हार आ अनचिन्हार स, गाम सौं, ल लैत छथि या नाटक में ओहिना के ओहिना राखि दैत छथि। त अहिना में हिनक नाटक, टाटक कोना भ सकैत अछि। 

हरदम अनमोनायल लगता, कखनो ओन्घायलयक सीमा धरि, तेजी न चलबा में न बजबा में। मुदा रेजी चक्कू थिका ई, कोन बाटे नस्तर मारि के अहाँ से अहाँ के निकालि लेता आ अहाँ के पतो नै चलय देता। ओहि अहाँ के ई धोई पोईछ के नाटक में पीला दैत छथि आ असली चेहरा ठाढ़ क दैत छथि। अहाँ ठामहि छी आ अहाँ के 'अहाँ' पर ओहि समेना में हजारों लोक ढहक्का लगा रहल छथि। जे नै देखैत छी से देखा देब, असंभव के संभव बना देब। येह त हिनक नाटक थीक। 

कतेको नाटककार जादूगर बनि जाइत छथि आ रंगमंच पर जादू देखबैत छथि। जादू लोक जतबा काल देखैत अछि ततबे काल चकित होईत छथि। खीस्सा खतम या पैसा हजम। मलंगिया जी के मुदा जादूगर नै कहबनि। किएक त पैसा हजम भेलाक बादो हिनक खीस्सा जारिए रहैत छनि। ओ अहाँ में खीस्सा के लस्सा साटि जाइत छथि आ हिनक ठस्सा ई, जे लस्सा लगा देल बक टिटियाई'या, ओ अपने टघरि जाइत छथि दोसर शिकार में। हम त पक्का शिकारी कहैत छियनि हिनका, अचूक निशानेबाज... पक्का खिलाड़ !"

रीति-रिवाजों के मुताबिक हम सब मलंगिया जी के साथ लिए अपनी अपनी तस्वीरों को चस्पा कर उन्हें बधाई दें... ईश्वर उन्हें निरोग रखते हुए दीर्घायु बनाए... उनके साथ वाली तस्वीर न लगा कर उनके कंजूस हस्ताक्षर की तस्वीर चेप रहा हूँ और साथ साथ उनके ही मित्र श्री भीमनाथ झा जी द्वारा दिए टास्क "वर्ण रत्नाकर" पर उनके कार्य की प्रतीक्षा में - एक प्रसंशक ! 



Tuesday, 26 March 2024

नुति की चिट्ठियाँ - काल्पनिक स्त्री कथा

नुति एक काल्पनिक स्त्री है जिसका किसी से भी कोई लेना देना नहीं है. उसकी अपनी संवेदनाएं हैं जिसका भी यथार्थ से कोई लेना देना नहीं. उसे किसी से कुछ चाहिए भी नहीं. आप से ये मुझसे कोई अपेक्षा नहीं रखती वो और न ही किसी से कोई शिकवा शिकायत ही है उसे. उसे बस अपनी बात रखनी है एक ऐसे माध्यम के समक्ष जो उसकी बातों का मतलब न निकाले और न उसे आंकने की कोशिश करे कोई.

पहली चिट्ठी अनाम के नाम 

दिनांक २०-०८-१९ सुबह ०३:०० 

नुति को नहीं पता कि कहाँ से शुरुआत हो। …मगर हाँ, फ़िलहाल शायद उसे बस एक माध्यम चाहिए जिससे वो अपनी बात कह सके। उसके मन की वो सारी बातें जो समाज-परिवार के बनाये नियमों के अंदर फिट नहीं बैठते। दरअसल नुति को ऐसा लगता है कि या तो वो ऊपर वाले की कोई गलती है या फिर नुति के दिमाग में ही कोई नुक्स है। यदि ऐसा नहीं होता तो आखिरकार उसके मन में ऐसी बातें आती ही क्यों। अब या तो ये सिस्टम बदले या फिर मन में सिस्टम के खिलाफ आने वाले विचार। लेकिन इतना सब क्यूँ और कैसे …. इसलिए फ़िलहाल उसे एक जरिया चाहिए जो उसके समाज-परिवार वाले सिस्टम से भी न हो और भरोसेमंद भी हो।

हालाँकि यह है बड़ा दुष्कर … शायद असंभव के करीब लेकिन फिर भी ऐसा जरिया तो चाहिए ही। कैसा जरिया? हाँ… इसे परिभाषित करना बेहद जरुरी है। स्पेसिफिकेशन सेट हो तो शायद ढूँढना आसान हो जाये।

तो नुति को एक ऐसा जरिया चाहिए जिसके सामने उसे झूठ बोलने की जरुरत न हो। जिसके सामने वो ठीक वैसी ही बनी रह सके जैसी वो वास्तव में है। कुछ ऐसा, जहाँ वो सहज और बेझिझक होकर अपनी अच्छाइयों के साथ अपने अंदर की तमाम बुराइयां भी बता सके… वैसे तो वास्तविक जीवन में वो अक्सर अपनी इच्छा से हाँ-ना, पसंद ना पसंद जाहिर करने में असमर्थ होती है लेकिन अपने इस जरिये को बता देना चाहती है कि वहां उसकी ना थी या अमुक बात उसे पसंद या फिर नापसंद थी। वो बता देना चाहती है कि अमुक समय वो भले सबकुछ स्वीकार गयी लेकिन उसे वो गंध, वो स्वाद, वो तरीका या वो बात पसंद नहीं आयी थी।

ऐसा भी नहीं है कि नुति परिवार-समाज की नियमावली के खिलाफ जाना चाहती और न ही इस नए जरिये से उसकी कोई अपेक्षाएं हैं… वो तो बस उसे अपनी बात कह देने भर के लिए कोई चाहिए। और फिर कहना भी क्या, उसे तो अपना एंगल भर बताना है। क्योंकि उसे लगता है कि ऐसा करने से उसका कोई भी दुःख नासूर नहीं बनेगा। इससे वो उस चलती आ रही नियमावली को भी फॉलो कर लेगी। ऐसा करने से कुछ विशेष नहीं बस उसका मन हल्का हो लेगा। जिससे उसकी और समाज- परिवार की जिंदगी बिना किसी परेशानी के शायद थोड़ी खुशफहमी से ही किन्तु अनवरत चलती रहेगी।

न न नुति ऐसी नहीं है… ग़लतफ़हमी में मत रहिएगा। ऐसा वैसा सोचेंगे तो – “तीखणी है वो भटिण्डा की” असल में वो न तो बंधनों को तोड़ना चाहती है और न ही कोई क्रांति लाना चाहती है। वो अपने सामने खींची लक्ष्मण रेखा में रहकर, सारे बंधनों में बंधी हुई बस अपने मन की बात इस दायरे से बाहर किसी जरिये को बता देना चाहती है ताकि विचारों को मन में दफ़नाने से कोई नासूर न पैदा हो जाये उसके अंदर। उसे बखूबी पता है कि अपनी पहचान रखकर अपने ही दायरे (परिवार-समाज) में यह सब कुछ नहीं शेयर कर सकती है। वजह वही पुराना – हम चाहे हमारे समाज में कितना भी नारीमुक्ति और वीमेन इम्पावरमेन्ट का ढिंढोरा पीट लें लेकिन यह सब स्वीकारना तो दूर, बताना भी बड़ी बवाली चीज हो जाएगी।

असल में नुति का यह मानना है कि जीवन को सीधा सीधा ब्लैक एंड वाइट में नहीं देखना चाहिए। क्योंकि इससे जीवन मुश्किल ही नहीं, दुष्कर हो जायेगा। इसलिए इसमें थोड़ा ग्रे भी होना चाहिए बशर्ते यह ग्रे, ब्लैक या वाइट पर कोई असर न डाले । लेकिन इस ग्रे की जरा सी गुंजाईश भर जरूर हो।

तो नुति इस ग्रे को शेयर करने का एक जरिया चाहती है। एक ऐसा जरिया जो अपना न हो, दायरे से बाहर हो मगर अपने ही पिता, भाई, बहन, प्रेमी या दोस्त सा हो। जो उसे और उसके अंतर्मन के सच को सुनें… हो सके तो इन सब ग्रे को भुलाने को (ब्लैक एंड वाइट को बिना छुए) उसे थोड़ा बहला दे… कुछ कहानियां सुना दे… डाँट दे, या थोड़ी पॉजिटिविटी डाल दे..

तो आइये दुआ करें कि नुति को उसका वो जरिया मिले और उसके ग्रे की भी कहानियाँ बने !

दूसरी चिट्ठी

इस चिट्ठी से पहले एक खुशखबरी है ! नुति की पहली चिट्ठी को लोगों ने प्यार भी दिया और इस चिट्ठी की मदद से उसे अपना अभिलाषित जरिया भी मिल गया है उसे. 

अब चूँकि इस जरिये के बहाने नुति हम सबके बीच आएगी, सो आज पहले नुति के इस जरिये की बात कर लेते हैं। वो जरा सा तुनकमिजाजी है, थोड़ा पागल सा और थोड़ा घमंडी भी। देखने में कुछ ख़ास तो नहीं लेकिन दिलो-दिमाग का सुन्दर है। उसने यह भरोसा कायम किया है कि वो बिना स्वार्थ और मोह के नुति को सुनेगा, किसी को सुना कर सुकून मिलने वाला सुकून देगा। बदले में न केवल वो मौन धारण करेगा बल्कि अपनी भावनाओं को भी अपने काबू में रखेगा... आखिर तभी तो वो नुति की पसंद है. 


नुति ने इस जरिये का नामकरण भी कर दिया आज। वेणु – यह नाम दिया है नुति ने अपने जरिये का। नुति आज वेणु को जो कुछ भी कहती है वो दूसरी चिट्ठी बनती है। तो आइये खोलें यह चिट्ठी.

दिनांक १५-०९-१९ अपराह्न ०४:२५

प्यारे वेणु,

मुझे लगता है हम दोनों के बीच के इस अनाम सम्बन्ध के नियम कानून और सीमाएं निर्धारित हो चुकीं हैं। मुझे तुमपर और तुम्हें मुझपर भी पूरा भरोसा है । 🙂

आज इस दूसरी चिट्ठी के माध्यम से मैं तुमसे अपने आदर्श पुरुष की बात करना चाहती हूँ। वो आदर्श पुरुष जो मेरा दोस्त, प्रेमी, पति या फिर तीनों होने का हक़दार है। जैसे हर एक स्त्री मन में अपना एक अलग सा आदर्श पुरुष परिभाषित होता है वैसे ही मेरे मन में भी एक परिभाषा अंकित है।

मेरे इस पुरुष की परिभाषा में समाज में प्रचलित कोई टाल-हैंडसम और अमीर आदमी नहीं है, बल्कि मैं उसमें अपने निजी पसंद मात्र को देखना चाहती हूँ । मेरी अभिलाषा के स्वप्न लोक में बसे पुरुष विशेष की परिभाषा कुछ ऐसी है –

“वो पुरुष जो सर्वप्रथम अपना खुद का ख्याल रख सके, वो हाजिर जवाब हो और दूसरों को भी खुद सा ही इंसान समझता हो। वो जो स्त्री के कंधे पर बोझ डालने के अलावा उसे अपना सहारा भी समझे, झूठी मर्दानगी की अकड़ छोड़ बिना शर्म जो उसके गेसुओं में अपने आंसू छुपाने की हिम्मत भी रखता हो।

वो पुरुष जो अपने फैसलों में अपनी स्त्री को भी न केवल बराबर का हक़दार समझे, बल्कि उसे खुद को साबित करने का मौका भी दे। वो, जो अपनी स्त्री को वस्तु मात्र न समझे बल्कि जिससे उसका वास्तु भी सुधर जाय। वो पुरुष जो किचन में काम भले न करे मगर उसे पता हो कि वहां ग्लास कहाँ रखी है और चूल्हे का बर्नर किधर है। वो पुरुष जो छु जाए तो मन पवित्र हो। …और वो… हाँ, वो जब मुझे अपनी बाँहों में ले तो उसे मेरी दबती नसों और सांसों का भी ख्याल हो... जिसे खुद को सौंपते मन खिले...”

मैं अपने इस पुरुष के सामने नखरे भी करना चाहती हूँ और मेरी यह चाहत है कि मेरे इन नखरों को सहा जाए, मुझे मनाया जाय… मेरी इच्छा है कि कभी कभार मैं नादानियाँ करुं और मेरी इन चंद नादानियों को भुला भी दिया जाय। मैं अपने इस पुरुष से सहेलियों सरीखे लम्बी बात करने की इच्छा रखती हूँ । …चांदनी रातों में उसका हाथ पकड़ उसके साथ दूर टहलना चाहती हूँ...समंदर के किनारे पड़े रेत से खेलना चाहती हूँ। मैं चाहती हूँ की वो मेरे साथ कहकहे लगाए, मुझे मेरे आंसू न छुपाने पड़ें उसके सामने…

असल में मैं एक ऐसी पुरुष की परिकल्पना में हूँ जिसका सबकुछ मेरा हो और जो मेरी सभी चीजों को अपना समझ सके…

विशेष अगली चिट्ठी में
तुम्हारी काल्पनिक मित्र नुति 
 
नुति तीसरी चिट्ठी

नुति की पहली और दूसरी चिट्ठी को लोगों ने खूब प्यार दिया । लेखक से लगातार तीसरी चिट्ठी की डिमांड होने लगी. सो प्रस्तुत है “नुति की तीसरी चिट्ठी” पढ़िये और अपनी प्रतिक्रिया आवश्य दीजिए ताकि “विचारबिन्दु” के इस डायरी श्रृंखला को आगे बढ़ाया जा सके।

दिनांक ११-१०-२०१९ रात्री ११:०० 

वेणु,

सुनो ना, मुझे नहीं पता तुम्हें क्या सम्बोधन दूँ। तुम अपने से हो… शायद पिता से, बड़े भाई से या फिर मेरे सबसे करीबी दोस्त से। सो बिना अधिक सोचे सीधे तुम्हारा नाम ही लिख दिया। कहना जरुरी इसलिए था की तुम कहीं यह न समझ लो की मुझे चिट्ठी लिखनी नहीं आती ।

इस चिट्ठी में देरी हुयी। वजह नहीं कह पाऊँगी और मुझे पता है तुम पूछोगे भी नहीं। इन दिनों जीवन जीते कुछ ऐसा लग रहा है जैसे मैं अब तक खुद को किसी और के लिए तैयार करती आई थी। मुझे नहीं पता बांकी लोग क्या करते हैं लेकिन मुझे तो यही लगता है कि हम नुतियाँ अपनी ही जिंदगी के मापदंड नहीं तय कर सकतीं, सपने नहीं बुन सकती, अपनी ख्वाहिशें नहीं सहेज सकती… एक स्त्री के रूप में हमें सिर्फ और सिर्फ किसी और के सपने पुरे करने का माध्यम बनना होता है। शायद एक ऐसे प्रक्रिया का माध्यम जिसमें खुद को घिसकर चमकाया नहीं जाता बल्कि बिना ईच्छा पूर्ति के खुद का ह्रास किया जाता है।

मुझे नहीं पता यह सब आज क्यों आया दिमाग में मगर मेरे जेहन में आकर मुझे ही खोखला कर गयीं कहीं। तुम ही कहो वेणु, क्या ये सच नहीं की मैं ( या फिर मुझ सी कोई और नुति ) परिवार की जिंदगी सवांरने भर को और उनकी ख़ुशी में ही अपनी ख़ुशी ढूंढने मात्र को बनी हूँ ?

मुझे सफ़ेद, बिना किसी दाग के, साफ सुथरा समंदर पसंद है वेणु। लेकिन क्या हो जब उनको कुछ और और बच्चों को मॉल के प्ले स्टेशन ही पसंद हो। मुझे संगीत पसंद है लेकिन क्या हो की बांकियों को “कुछ और” मात्र पसंद हो। और सच्ची कहूं ये “कुछ और” न सबसे अधिक जानमारुख है मेरे लिए।

पता है वेणु, मुझे इस “कुछ और” से कोई गुरेज भी नहीं अब लेकिन तकलीफ तब अधिक होती है जब इनके “कुछ और” में मैं एक साधन की तरह इस्तेमाल मात्र होती हूँ। इस्तेमाल भी करो, मगर अपना समझ कर… मेरी भी इच्छाओं और सुभीता का ध्यान रख कर आप अपना “कुछ और” करो ना। क्या ये संभव नहीं की ये कुछ और एकतरफा न हो ? अधिक नफा उनका मगर थोड़ा नफा मेरा भी तो हो… और सबसे ऊपर यह बात की क्या मेरे नफे से आपको आनंद नहीं आता ?

शायद आज मैं अधिक इमोशनल हूँ… लेकिन तुम ही कहो की क्या मैं सच नहीं कह रही ? मुझे पता है यह सच कहने योग्य नहीं बल्कि इसे ही दिल में जज्ब कर घुटते रहने का नाम नुति की जिंदगी है। ….यहाँ तुमको धन्यवाद करती हूँ, मैं तुम्हारी शुक्रगुजार हूँ कि तुम मुझे सुन रहे हो…. और इस बहाने मैं कोई क्रांति वगैरह भले न कर दूँ, कम से कम घुटन से तो बच ही रही मैं।

वेणु, मैं आगे कुछ और लिखने से पहले थोड़ा रुकना चाहती हूँ, मैं तुमसे बात करना चाहती हूँ वेणु। मुझे पता है शायद समाज को यह चिट्ठी लिखना भी स्वीकार्य नहीं होगा और मैंने कभी सोचा भी नहीं की मेरे इस चिट्ठी लिखने और तुम्हारे पढ़ने के रिश्ते का नाम क्या होगा… मुझे यह भी नहीं पता की यह कब तक चलेगा और इसका भविष्य क्या है लेकिन सच बताऊँ वेणु मुझे एक नई जिंदगी मिली है इस लिखने भर से। मैं और कुछ चाहती भी नहीं तुमसे सिवाय इसके की तुम मेरी सुनते रहो। क्या ये कम है कि बिना किसी स्वार्थ के तुम मेरी सुन रहे ? हाँ, एक बार मिलना चाहती हूँ तुमसे…. सामने से देखना चाहती हूँ तुमसे… शायद मैं एक बार तुमको छूना भी चाहती हूँ । तुम चिंता मत करो यह आज जरुरी नहीं, बल्कि कभी भी… शायद तब भी जब तुम्हारे मुंह में दांत और मेरे सर पर काले बाल भी न हों। बस तुम याद रखना – मुझे उस एक दिन का इंतजार रहेगा।

शायद तुम मिले हो तो मैं खुद को अधिक सोचने लगी हूँ। शायद नहीं, बल्कि यही सच है। पिछले दिनों मैं सोचती रही की अगर फिर से मुझे मेरे जीवन के ऐसे कुछ दिन मिल जाएँ जिसमें मैं खुद को जी सकूँ, तो क्या होगा। इस सोच के पीछे भी तुम ही हो वरना मैं तो भूल ही चुकी थी की मेरी अपनी भी ख्वाहिशें हैं। काफी देरी लगी मुझे मुझे इन पसंदीदा बातों को याद करने में लेकिन अब सब याद आ गया है मुझे।

हाँ, मुझे पहले एक बार समंदर में डुबकी लगाना है । शायद वहां सब कुछ धुल सकूँ मैं… असंख्य बुरी नजरें, ताने, चीख… “कुछ और” के निशान भी- मुझे इल्म है कि शायद ये सब धुल जाता है समंदर के खारे पानी में।

कभी मिले ऐसे दिनों में मुझे मेरे गाँव जाना है एक बार फिर से जहाँ फिर से माँ मेरी चोटी कर दे और मैं बाबा के साथ मेला जाऊं। बाबा फिर से मुझे वो आजादी दें जहाँ मैं किसी और की परवाह किये बगैर खिलखिला सकूँ, कहीं भी बैठ सकूँ, कहीं भी लेट सकूँ। वेणु, ऐसे मिले उन दिन में मैं चाहूंगी की मेरे अब के घर में मेरी सुनी जाए। कोई अपनी इच्छाएं न थोपे मुझ पर…. मेरे शरीर को एक मांस का बड़ा टुकड़ा मात्र न समझ कर उसे अलग अलग देखा जाय…. न सिर्फ इस्तेमाल के दौरान उस पर वार हो बल्कि उसे निहारा भी जाय…. मेरे गाल के तिल और मेरी पलकों की तारीफ़ भले न हो, स्पर्श भर देकर उन्हें पैंपर तो किया जाए।

तुम्हें पता है वेणु, मेरे अंदर एक डर घर कर गया है। ये डर दो बातों को लेकर है। मुझे नहीं पता की मेरी इन बातों का क्या असर हो रहा है तुम्हारी जिंदगी में, मुझे डर है कि कहीं मैं तुम्हारा नुकसान तो नहीं कर रही…. और क्या मैं तुम्हें खो तो नहीं दूंगी ?

यदि संभव हो तो एक बार मुझे जवाब लिखना। लिखोगे न वेणु ?

नुति

मुझे फिर से नहीं पता की क्या लिखूं – “तुम्हारी नुति” या कुछ और… लेकिन तुम तो अपने से हो सो सिर्फ नुति लिख दिया. 

Friday, 9 February 2024

चॉकलेट गाथा - चॉकलेट डे पर


हमारा बचपन चॉकलेट आदि से दूर ही रहा। गुड-डे बिस्किट, सुमन-सौरभ व विज्ञान-प्रगति पत्रिका और इससे ऊपर ब्रेड-बटर व् ब्रेड पर मलाई के साथ चीनी की लेयर, यही सब था बचपन में हमें मिलने वाला प्यार.

मित्रवत् चाचा जी एक बार मुज़फ़्फ़रपुर में साथ थे, मैंने कहा - 'चॉकलेट नहीं लाते और खिलाते आप' - तो उस वक़्त के मंहगे होटल "भारत-जलपान" में समोसा खिलवाया था उन्होंने. उस वक़्त उन्होंने कहा था - क्या नक़ली के चक्कर में हो, असली चॉकलेट गाँव में बनवाऊँगा. ..और फिर जाड़ों में जब गाँव जाते तो चाचा जी ख़ुद जाकर स्पेशल गुड की भेली बनवाते. वो उसमें ड्राई फ्रूट्स आदि डलवा कर लाते और वही हमारा चॉकलेट होता. असली वाला.

उस समय पारले की टॉफ़ी आती थी KISMI. चार आने की दो थी शायद, जो आज मुझे याद है, पहला चॉकलेट वही था. यदा-कदा मार्टेन और एक्लेयर्स खाते मगर KISMI बार बार खाते. उस वक़्त न तो इसके नाम में निहित Kiss का पता था और ना ही उसपर लगी तस्वीर में चुंबनरत दो चेहरों की समझ… ये हमारे जीभ को भाती थी, बस.

दसवीं के बाद मैं गाँव के क्रिकेट टीम का सदस्य था… हालाँकि बाद में मुझे इसकी वजह पता चली की मेरे पास नया बैट था इसीलिए मैं न केवल टीम में था बल्कि ओपनिंग भी की. मैच की पहली गेंद पर चौका लगाने पर मुझे चार छोटे छोटे लेमनचूस मिले तो चार आने के चार थे. हालाँकि यह चॉकलेट भी यादनीय है, स्पष्ट कर दूँ की मेरा कुल स्कोर भी चार रन ही रहा था.

स्वाभाविक रूप से उम्र बढ़ती गई और समझ भी. एक गर्लफ्रेंड ने KISMI का दो रुपये वाला वर्जन खिलाया, दूसरी ने Dairy Milk और तीजे ने डार्क चॉकलेट… अपनी मजदूरी के शुरूआती दौर में मेरी जेब में हमेशा चॉकलेट होत. बाद के दिनों में पत्नी के साथ खाता और फिर बच्चों के साथ भी. हालाँकि मेरा लालच कुछ ऐसा रहा कि कई बार बच्चों के लिये ख़रीदे चॉकलेट रास्ते में ख़ुद खा जाता. अभी चार साल पहले की दीवानगी ख़ास रही. मैं और मेरे CEO बोस्टन के मॉल में थे. साहब ने कहा - We are going to pay about 15K for shopping. - Boston के उस मॉल से मैंने पहले लगभग 18 हज़ार की चॉकलेट ख़रीदी और फिर उसे भारत लाने को एक ब्रीफ़केस भी. हमने अगले तीन महीने तक वो चोकलेट खाए भी और बांटे भी.

चॉकलेट के दुनियाँ भर के कई ब्रांड ट्राय किए मैंने. फ्रैंकफ़र्ट में ख़रीदा 'वाइन फ़ील्ड' चॉकलेट सबसे अलग रहा… एक साहब मेरी दीवानगी को जानते हुए हॉलैंड से मेरे लिए चॉकलेट भेजते थे. आज मुझे डार्क चॉकलेट पसंद है जो 55% लेकर 90% तक डार्क में उपलब्ध है.. Hershey, Lindt, Godibva… सब अच्छे हैं... आज के फर्जी और दूषित चॉकलेट डे का रायता इग्नोर कर कोई खिलाएगा ?

Thursday, 8 February 2024

प्रेमोत्सव हफ्ते के 'प्रपोज डे' पर मेरे दो प्रपोजल


मित्रों सह मित्राणियों,
(खासकर वो लोग/लोगानियाँ सब जो Valantine Week मनाते हैं)

मेरी राम-राम पहुंचे आपको. 

आज फ़रवरी की आठवीं तारीख को प्रेमोत्सव हफ्ते का दूसरा दिन है. जी, कल के रोज-डे के बाद आज है प्रोपोज़ डे ! इस सुअवसर पर मेरी तरफ़ से आप सभी को दो प्रोपोजल देने की हिमाकत कर रहा. रहा. यकीन मानें की मेरे इस प्रपोजल से आपको मात्र नफा होगा. साथ ही इसमें मेरी कोई स्वार्थ सिद्धि नहीं है और इन सबसे ऊपर की बात ये कि आपका कुछ भी कटने का रिस्क भी नहीं मेरे प्रपोजल पर अमल से.

मेरा पहला प्रपोजल - आपने सुबह उठकर सबसे पहले अपनी दोनों हथेलियों को कम से कम २० बार रगड़ना है और फिर दोनों हथेलियों को अपने आँखों पर ऐसे सेट करके लगायें जैसे हम शरीर के भिन्न मुख्य स्थानों पर अपने कपड़ों की फिटिंग रखते हैं। आपके हाथों के घर्षण से उत्पन्न गर्मी हमारी आँखों की मांसपेशियों को मज़बूत करती हैं…. ध्यान रहे कई लोग सुबह सुबह हाथ मुँह और नाक आदि पर ले जातें हैं, यहाँ घर्षण के बाद आँख पर ले जाना है अपनी हथेलियों को.

मेरा दूसरा प्रपोजल - अपनी दोनों हथेलियों को आँखों के सामने रखते हुए देखना है। सनातन हमारी हथेलियों के अलग स्थानों में सभी देवताओं का वास कहती है, सो हमें बारी बारी से अपने प्रत्येक उँगलियों और हथेली के मध्य को निहारना है. यहाँ ध्यान देने योग्य दो बातें हैं। हथेली पर निहारते अपने कुल/ ग्राम देव-देवी का ध्यान करते हुए दो मंत्र अवश्य पढ़ें.

कराग्रे वसते लक्ष्मीः करमध्ये सरस्वती ।
करमूले तु गोविन्दः प्रभाते करदर्शनम ॥

अर्थात, हमारी हथेली के शीर्ष पर देवी लक्ष्मी का निवास है, हथेली के मध्य में देवी सरस्वती का निवास है और हमारी हथेली के निचले स्थान पर श्री गोविंद का निवास है. इसलिए सुबह-सुबह हमें अपनी हथेलियों को देखना चाहिए और उनका मनन करना चाहिए। इससे व्यक्ति की दशा सुधरती है और सौभाग्य में वृद्धि होती है।

अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमांश्च विभीषणः।
कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरंजीविनः॥
कृप: परशुरामश्च सप्तएतै चिरजीविन:॥
सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टमम्।
जीवेद्वर्षशतं सोपि सर्वव्याधिविवर्जित।।

अर्थात - अश्वत्थामा, बलि, व्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य और परशुराम ये सात चिरंजीवी हैं. इन सात के साथ ही मार्कडेंय ऋषि के नाम का जाप करने से व्यक्ति निरोगी रहता है और लंबी आयु प्राप्त करता है।

मैंने आप सबको प्रोपोज कर दिया, अब आप सबों की बारी है... आप सबने यह तय करना है कि बाबु-छोना में खुद को मलिन कर लेना है या फिर सख्त सनातनी बने रहना है... देख लें अपना अपना !

आप सबका ईमानदार शुभेच्छु 
प्रवीण कुमार झा  


Sunday, 28 January 2024

मैथिल साहित्यकार सबहुक नाम एकटा पाती

नमस्कार मैथिल्स !
 
सभ कथित सह स्वघोषित साहित्यकार लेल अछि हमर ई पाती ! सभ ओहि लेखक लेल सेहो जे पुस्तक नै बिकबाक आ मैथिली में कम होईत पाठकक चिंता में दुबरा रहल छथि.
 
एक त समाज में लेखक आ प्रकाशक 'हमस्टरो" से कम अवधि में जनमि रहला हाँ आ ऊपर स लोक कहत - "होमय न दियौ, यौ प्रचारे न भ रहल छैक." - बिडम्बना ई जे येह कहनाहर सब बजैत छथि - "मैथिली विलुप्त भ रहल." - मूढ़ साहित्य चिंतक सब के मात्र अतबे कहब जे स्टालिन कहने छलैथ - "Quantity has quality of its own."
 
संसार में सब किछु परिवर्तित आ उन्नत होइत अछि. लोक के जीवन शैली आ स्वाद सेहो बदलि रहल. गैंचा भेटतो कहाँ छै आब. बरफ स जनसंख्याँ नियंत्रणक सब चीज फ्लेवर में आबि गेल अछि. नारीवाद स आगाँ बढि के अपन समाज ओर्गास्म तक पहुँच गेल अछि. मुदा मैथिली साहित्य अपवाद बनल अहि. ओ मिथिला महान आ विद्यापति सौं आगा बढिए नै रहल.

दिल्ली बम्मई आ अमरीका के मजा नेनिहार साहित्यकारक साहित्य में एखनहु गाम, चुनौटी, बाबा, खेत-खरिहान आ डीहबार के प्रधानता छैक. अनेकानेक सम्बन्धरत आ दू-चारि साल में दाम्पत्य सौं अकच्छ भ रहल समाज के एखनहु साहित्य में सीता दाय आ लछुमन भाय पढ़ाओल जा रहल. शैक्षणिक संस्थान आ संस्कार में वैश्विक हवा केर समावेश भ चुकल मुदा बच्चा के मैथिली किताब में एखनहु बाबा आ हुनक खुट्टा के हाथीये टा भेटैत छनि. बच्चा के Pre-Wedding shoot and trip चाही... बरियाती के भरि पोख "चहटगर चखना" मुदा हमरा अहाँ के साहित्य एखनहु सिंदूर-दाने क रहल.
 
लोक के चाही "जश्न-ए-रेख्ता" सन तात्कालिक सुख आ अहाँ ग्रन्थ-समग्र लेल उताहुल छी. यदा-कदा चोरा-नुका Play-Boy आ Debonoir देखनिहार लोक वेद के सुलभे मियां-खलीफा आ जॉनी सिन एक क्लिक पर भेट रहलनि हाँ आ अहाँ साहित्य में मीना कुमारी, नूतन आ देवानंद पर टिकल छी.
 
हमरा आहां के लोक वेद दुनियां संसारक कंपनी में मजदूरी क रहल मुदा साहित्य के एखनहु खेत में हर-कोदारि चलबैत मजदुर मात्र देखा रहलनि अछि. घर-आंगन में बर्थडे पर केक-आइसक्रीम चाही मुदा अहाँ के साहित्य एखनहु पेन-अलता आ पारले-G गिफ्ट द रहल. गाम में नीक पेट चलेनिहार लोक के शहर बाजार में दस हजारक नौकरी चाही किएक त ओहि ठाम मॉल संग सेल्फी आ संग घुमाबय लेल टेम्पररी दिल्ली वाली भेटैत छनि हुनका मुदा हाय रे अपन साहित्य, ओकरा एखनहु गामक मेला आ ओहि में केस में ललका फीता वाली मात्र देखा रहल.
त साहित्यकार लोकनि अपग्रेड होऊ... समयक संग चलू, किताब के कलेवर बदलू, अपने सन धोती-पैजामा छोईड़ जींस पहिराऊ अपना साहित्यो के.... सोशल मीडिया पर नित लगबैत स्टेटस सन साहित्यक स्टेटस सेहो बदलल जाऊ... तखने बढ़त प्रेम आ संगहि लाइक कमेंट आ साहित्यक बिक्री !

उम्मीद अहि पाती के सकारात्मक पहलु पर ध्यान देब अपने लोकनि.


अपनेक शुभचिंतक
स्वघोषित आचार्य.