"ललना-रे" - बाल-साहित्य के तौर पर लिखी इस किताब की साज सज्जा, आवरण, छपाई, पेपर क्वालिटी और इन सब से ऊपर इसका फॉण्ट साइज़ दर्शनीय सह सुपठ्य है. नवारम्भ प्रकाशन ने छपाई को बेहतर करने का उत्तरोत्तर प्रयास किया है जिसका एक उदाहरण है यह पुस्तक. हाँ, अध्याय/ कथाओं के शीर्षक को बेहतर फॉण्ट दिया जा सकता था.
शुरुआत पुस्तक की प्रस्तावना से जिसे लिखा है सुपरिचित अजित आजाद जी ने. होता क्या है कि जब हम लगातार रूटीन वर्क करते हैं तो हम चीजों का सामान्यकरण कर देते हैं, अलग अलग तरह के साहित्य का पृथककरण नहीं कर पाते. अजित जी द्वारा लिखित प्रस्तावना का यही हाल हुआ है. उनके लेखन की समग्रता का कोई सानी नहीं किन्तु यहाँ प्रस्तावना लिखते एक तो वो ये भूल गए की यह बाल-साहित्य है और दूजे प्रस्तावना लिखते वो पुस्तक समीक्षा सा लिख गए जिसमें समूचे पुस्तक का कौतुहल उजागर कर दिया है उन्होंने. संभवतः पुस्तक की लेखिका से अपनी कोई ख़ास दुश्मनी निकाली हो उन्होंने. :)... एक तरह से पुस्तक में मौजूद हर एक रचना का पोल-खोल उन्होंने यहीं कर दिया है. नि:संदेह वो सुयोग्य हैं, आगे ध्यान रखेंगे.
अब बात कथाओं की. कुला जमा अठारह कहानियों वाली यह पुस्तक पांच से पंद्रह वर्ष के बच्चों को केन्द्रित कर लिखी गयी है. यहाँ प्रकाशकों को मेरी एक सलाह रहेगी की सिनेमा की तरह पुस्तकों को भी उम्र के हिसाब से UA, UA16, A आदि सर्टिफिकेट दी जाये.
पुस्तक की कुछ बातें जो आकर्षित करती हैं उनमें से एक है कि लेखिका ने किसी भी कथा में अनावश्यक भूमिका नहीं लिखी और ना ही जबरिया कोई भारी-भरकम शब्द ही घुसाया है. सभी कहानियां काफी सहज, सरल और सुपठ्य हैं. हाँ पहली कहानी में एक करैक्टर "शकूर-अहमद" अनावश्यक लगा मुझे. यह एक नया चलन है संभवतः मैथिली साहित्य में... इसे अनदेखा करते हुए बात पुस्तक की.
विष्णु शर्मा द्वारा लिखी प्रसिद्ध पुस्तक है "पंचतंत्र" जंगली जीवों को पुस्तक के चरित्र बना कर लिखी कहानियों द्वारा बाल मन को सीख देना इस पुस्तक का लक्ष्य था जिसमें कई दशकों से यह पुस्तक सफल भी रही है. अब जबकि हमारे विद्यालयों में नैतिक शिक्षा की पढाई बंद है, आज भी अभिभावक अपने बच्चों को नैतिक शिक्षा के लिए "पंचतंत्र" उपहार देते हैं.
दीपिका झा जी द्वारा लिखी इस पुस्तक की सभी कहानियों में रोचक घटनाक्रम के द्वारा एक अच्छी सीख देने का प्रयास दिखा है मुझे. जबकि आज के दौर में बच्चे अपनी जन्मभूमि से कट रहे, उन्हें अपनी सभ्यता, ग्रामीण परिवेश और मानव मूल्यों से परिचय करवाती है यह पुस्तक. "अतू" कथा में बाबा द्वारा पालतू कुत्ते को रोटी या चावल का कौर खिलाने का जिक्र नाना की याद दिला गया मुझे जो नित भोजनोपरांत यही करते थे.
सभी कथाओं में नैतिक शिक्षा से जुडी एक सीख को आप कहानी की ही एक पंक्ति में पा सकते हैं. कुछ उदाहरण देखें -
उपयोगी पात - अहाँ के त किताबो स बेसी बुझल अहि बाबा.
सुआद आ की स्वास्थ्य - जीवन में सुआद आवश्यक छैक मुदा स्वास्थ्य स बेसी नै.
आमक गाछी - आम (सुफल) भेटबाक ढंग सबके लेल अलग अलग होईत छैक.
रंगोली - अपन कला आ संस्कृतिसं प्रेम करब आवश्यक छैक मुदा ताहू स बेसी आवश्यक अपन कला के विस्तार.
वाची-प्राची - कखनो ककरो अपनासं कमजोर नै बुझबाक चाही... कठिन परिश्रमक कोनो विकल्प नहि.
ऐसे में जबकि मैथिली विद्यालयों से दूर है ही, बच्चे सिंगापूर, दुबई और अमरीका की ओर तक रहे, इस पुस्तक के प्रचार प्रसार से हम अपनी भाषा-संस्कृति के लिए इन दोनों ही राक्षसों पर वार कर सकते हैं. मैं कम से कम दस बच्चों में इस पुस्तक को बांटने का प्रयास करूँगा... आप सब भी पढ़ें.
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