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Sunday, 24 August 2025

साहित्य और राज्य से इतर मिथिला


मिथिला के इतिहास के नाम पर अधिकांशतः साहित्य विवेचना ही देखी है। चूँकि मैंने कोई किताब नहीं लिखी, और न ही टीवी में आता हूँ, साहित्य से इतर मिथिला का संक्षित इतिहास लिखने की धृष्टता करते डर रहा हूँ। चीज़ें शायद विस्तार से भले न मिलें, क़रीने से भी न मिले किंतु जो हैं वो सच्ची हैं इसकी गारंटी लेता हूँ।

मिथिला की गाँव वापसी

सन १८१२ में पटना की जनसंख्याँ तक़रीबन ३ लाख थी और कलकत्ता की १.७५ लाख. १८७१ में पटना १.६ लाख और कोलकाता ४.५ लाख. पटना की तरह यही हाल भागलपुर और पुरनियाँ का भी रहा. कारण दो थे. इस दौरान अंग्रेजों की मदद से कलकत्ता में फला फुला उद्योग और बिहार/ मिथिला इलाके में देशी उद्योग के विनाश से लोगों का शहर से गाँव की ओर पलायन. मिस्टर बुकानन ने अपने सर्वे में १९ वीं सदी के बड़े हिस्से तक इस पलायन की पुष्टि की है. अंग्रेजी शासन की दोहन निति के कारण शहर के उद्योग धंधे नष्ट होते गए और लोग गाँव में वापस आते गए.

इसका परिणाम गाँव के घरेलु उद्योग और कृषि क्षेत्र में उन्नति लेकर आया. दुष्परिणाम सिर्फ इतना की गाँव में काम कम और लोग ज्यादा हो गए. इस क्रम में अति तब हुई जब अंग्रेजों ने गाँव की जमीन का दोहन भी आरम्भ किया... १८५७ की क्रांति में सरकार के खिलाफ ज्यादा लोगों का जुटना संभवतः इसी करण हुआ. लोग शहर में मारे गए और गाँव में भी शुकुन से न रह पाए तो विरोध लाजिमी था. ऊपर से कुछ स्थानीय लोगों द्वारा अंग्रेजों की चमचई...

इसको लिखने का कारण सिर्फ इतना की मुझे इसी प्रकार की घुटन आज के हिन्दुस्तान में दिखती है. मुझे लगता है की लोग गाँव वापस जायेंगे... गाँव छोटे उद्योग धंधों, शिक्षा और व्यापार का केंद्र बनेगा... सरकारें जलेंगी...

दलान

उद्योग व् पलायन

अक्सर लोगों से सुनता हूँ, बिहार और मिथिला का खस्ता हाल है... लोग खतरनाक तरीके से पलायन कर रहे हैं... ब्ला ब्ला ब्ला. जरा अन्दर घुसिए तो पता चलता है की मिथिला से पलायन का इतिहास हजारों वर्ष पुराना रहा है. विद्वान, व्यापारी, मजदुर... सब बेहतर पारितोषिक के लिए बाहर जाते रहे. इतिहासकारों ने इस बात का सबुत ८०० वीं ईस्वी से बताया है.

जूट, नील और साल्ट-पिटर के नजदीकी उत्पादन क्षेत्रों (फारबिसगंज, किशनगंज दलसिंहसराय आदि) में मजदूरी के अलावा लोग मोटिया या तिहाडी मजदूरी करने नेपाल, मोरंग, सिल्लिगुड़ी और कलकत्ता भी जाते रहे हैं. श्री जे सी झा ने अपनी किताब Migration and Achievements of Maithil Pandits में लिखा है - मैथिल पंडित बेहतर अर्थ लाभ के लिए देश के अन्य क्षेत्रों में जाते रहे हैं.

हालाँकि तब और अब के इस पलायन में फर्क है. तब लोग मूलतः वापसी में अपने साथ कृषि की नई तकनीक सीख कर, स्वस्थ जीवन जीने के गुर सीखकर, घरेलु उद्योग लगाने की नई तकनीक सीख कर आते थे. जबकि अब हम छोटे कपडे, कान फाडू पंजाबी संगीत, प्रेम त्रिकोण और धोखेबाजी की नई तकनीक ज्यादा सीखते हैं.

इस दौर में एक वक़्त मिथिला क्षेत्र में उद्योग फला-फुला भी. अठारहवीं और उन्नीसवी शताब्दी में मिथिला के अलग अलग शहरों में विभिन्न उद्योग लगे. मधुबनी में मलमल, दुलालगंज व् पुरनियाँ में सस्ते कपड़ों का तो किशनगंज में कागज का उद्योग चला. दरभंगा, खगडिया, किशनगंज आदि ईलाका पीतल व् कांसे के बर्तनों के लिए जाना जाता था... भागलपुर सिल्क, डोरिया, चारखाना के लिए और मुंगेर घोड़े के नाल, स्टोव, जूते के लिए प्रसिद्ध था.

इन सबमे आश्चर्यजनक तरीके से पुरनियाँ तब भी काफी आगे था. कहते हैं पुरनियाँ का सिंदूर उत्पादन व् निर्यात तथा टेंट हाउस के सामान बनाने का काम विख्यात था. मेरे शहर दरभंगा के लोगों को बुरा न लगे इसलिए बताता चलूँ की दरभंगा शहर उस वक़्त हाथी दांत से बने सामानों का प्रमुख उत्पादन केंद्र था.


मिथिला में स्त्री

जितना पुराना इतिहास पुरुषों द्वारा मिथिला छोड़ने का रहा है ठीक उतना ही अकेली रहने वाली स्त्रियों के शोषण (विभिन्न स्तरों पर) का भी रहा. मैथिल समाज का छुपा हुआ किन्तु सत्य पक्ष है की स्त्रियाँ सताई जाती रही... परदे के पीछे यौन प्रताड़ना... लांछन... दोषारोपण... आदि करते हुए मैथिल समाज खुद को कलमुंहा साबित करता आया है.

इसका एक सकारात्मक पक्ष भी था. क्षेत्र में मैथिल स्त्रियों में शिक्षा का स्तर बढ़ा और वो स्वाबलंबी बनी. बिहार के औसतन ६% के सामने पूसा में स्त्री शिक्षा का दर १३%, सोनबरसा में ६%, मनिहारी में ९% थी. (जिन्हें % कम लग रहा है उनके लिए – १९९०-२००१ में यह दर २८% था)

स्वाभाविक रूप से गाँव की सत्ता स्त्रियों के हाथ में आ गई थी ऐसे में. गाँव की महिलाएं घरेलु उद्योग, पशु पालन आदि में आगे दिखने लगी थी. संभवतः गांधी का चरखा आन्दोलन इसी वजह से मिथिला के घर घर में पहुँच पाया.

समय के साथ साथ मैथिल स्त्रियों की दुनियां थोड़ी स्वप्निल बनाई गई जब दूर देश के सन्देश उसके पास भौतिक और काल्पनिक तरीके से पहुँचने लगे. इस रंग में भी भंग तब पड़ा जब पुरुष अपने साथ बीमारियाँ भी साथ लाने लगे.


मिथिला में जातियां

यहाँ हिन्दू परंपरा अपने प्रखरतम रूप में सभी जटिलताओं के साथ सदा विद्यमान रहीं. अलग जातियों के अलग अलग देवता और अलग गहबर होते थे. जातियों के देवताओं के नाम रोचक थे.

श्याम सिंह डोम जाति के, अमर सिंह हलवाई व् धोबियों के, गनिनाथ-गोविन्द हलवाइयों के सलहेस दुसाधों के दुलरा दयाल/ जय सिंह मल्लाहों के, विहुला तेली जाती के, दिनाभद्री मुसहरों के तो लालवन बाबा चमारों के देवता थे.

स्वाभाविक तौर पर सामाजिक कुरीतियाँ, अधविश्वास और धारणाएं ज्यादा थीं. तमाम् विरोधी उदाहरण के बावजूद ब्राम्हण, राजपूत या लाला विपदा में दुसाध, मुसहर के गहबर में जाते थे. जातियों के हिसाब से कार्य बंटे थे जो उत्तरोत्तर कम होते गए.

मिथिलांचल के कई इलाकों में मुसलमानों द्वारा मनाये जाने वाले ताजिये में हिन्दुओं का शामिल होना और हिन्दुओं के त्योहारों में मुस्लिमों के साथ होने के उदहारण भी हैं. कालांतर में हम समझदार होते गए और विषमतायें उग्र रूप धारण करने लगी.


ऐसे में यह स्पष्ट है कि हमें हमारे सीमित सोच से इतर मिथिला को बृहत् तौर पर देखे जाने की आवश्यकता है। मिथिला मात्र विद्यापति विद्यापति समारोह और प्रणाम मिथिलावासी और हमर मिथिला महान तक सीमित नहीं है। 

Saturday, 16 August 2025

आरएसएस आ स्वतंत्रता संग्राम - संक्षिप्त विवरण


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के स्थापना 1925 मे डॉ॰ केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा नागपुर मे भेल छल। संगठनक मुख्य उद्देश्य हिंदू सभके एकजुट करबाक आ समाजक नैतिक मूल्य सभके सुदृढ़ करबाक छल। ध्यान देबऽ जोग बात ई जे स्व. हेडगेवार स्वयं पहिले कांग्रेस-नेतृत्व वाला राष्ट्रीय आंदोलन में सहयोगी छलाह आ ओ लोकमान्य तिलकक विचार सँ बेसी प्रभावित छलाह। विद्यार्थी जीवन मे ओ ब्रिटिश शासनक खिलाफ बहुत आंदोलन मे भाग लेने छलाह जाहि में असहयोग आंदोलन (1920–22) सेहो शामिल अछि।

संघ केँ लय विरोधी इतिहासकार सभक दृष्टिकोण अलग छल। बहुतों इतिहासकार मानैत छथि जे स्थापनाक बाद आरएसएस सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930–34) अथवा भारत छोड़ो आंदोलन (1942) सन नमहर आंदोलन मे भाग नहि लेने छल। हुनक सबहुक मतानुसार ताहि समय संगठन राजनीतिक टकरावक बजाय सामाजिक कार्य, अनुशासन आ वैचारिक प्रशिक्षण पर बेसी ध्यान देने छल। 1930–40 दशकक ब्रिटिश खुफिया रिपोर्टक मुताबिक़ आरएसएस केँ राजनीतिक रूप सँ ब्रिटिश शासनक लेल खतरा नहि मानल गेल छल। बल्कि संगठन समाज सुधार, भविष्यक भारत आ हिंदू एकजुटता के लय के बेसी मुखर छल। 

अहि सभ में पूर्वोत्तर राज्य आ पटना में व्याप्त देह व्यापार रोकब आ तखन के पाकिस्तान में स्त्री सब के सुदृढ़ आ एकजुट करब आरएसएस महिला विंग के प्रमुख काज छल। 

आरएसएस समर्थक आ ओहि सँ जुड़ल इतिहासकार मानैत छथि जे संगठन अप्रत्यक्ष रूप सँ स्वतंत्रता संग्राम में अपन योगदान देने छल। संघ सामाजिक अनुशासन, एकता आ राष्ट्रीय गौरवक भावना जागृत करब, जकरा ओ औपनिवेशिक शासनक खिलाफ दीर्घकालीन तैयारीक हिस्सा मानैत छलाह- अहि दिशा में प्रयासरत छलाह। अहि वर्ग के इतिहासकार लोकनि हेडगेवारक स्वतंत्रता आंदोलन में व्यक्तिगत योगदान आ किछु स्वयंसेवक द्वारा क्रांतिकारी गतिविधि सह स्वतंत्रता संग्राम संगठन में शामिल हेबाक बात सेहो कहैत छथि।

सारांश ई जे प्रत्यक्ष सशस्त्र वा जन-राजनीतिक संघर्ष में आरएसएसक भूमिका सीमित रहल मुदा अप्रत्यक्ष योगदानक तौर पर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, सामाजिक एकता आ नैतिक दृष्टि सँ समाजक तैयारी द्वारा राष्ट्र-निर्माण में संघ के भूमिका मुखर आ अग्रणी रहल।

Monday, 4 August 2025

काली भैंस के दूध से कैसे गोरा हो सकता हूँ माँ - संघी मोगैंबो

एक वक़्त था जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सनातनी और देशभक्ति की विचारधारा में पलने वाले अमरीश पुरी जी ने कभी भी फिल्मों में काम न करने का निर्णय लिया था। बाद में मुंबई रहकर लगभग 18 वर्ष के संघर्ष के बाद फ़िल्मों की शुरुआत करते हुए उसी अमरीश पुरी ने हिंदी के अलावा कन्नड़, पंजाबी, मलयालम, तेलुगू, तमिल और हॉलीवुड समेत करीब 400 फिल्मों में काम किया। 

जी हाँ, अमरीश पुरी संघी थे ! 

अमरीश पुरी का जन्म 22 जून 1932 को पंजाब प्रान्त हुआ था। उनके पिता का नाम लाला निहाल सिंह और माता जी का नाम वेद कौर था। चमन पुरी, मदन पुरी, बहन चंद्रकांता और उनके छोटे भाई हरीश पुरी समेत वो पाँच भाई बहन थे। पंजाब और फिर दिल्ली के अपने घरों में रहकर उन्होंने आरम्भिक शिक्षा प्राप्त की थी। 

उनके बचपन की एक रोचक बात है कि चूँकि वो दिखने में सभी भाई बहनों में थोड़े काले थे, पहले तो काफी दूध पीया की शायद गोरा हो जाऊं फिर एक बार जब काली भैंस देखी तो कहा की इसके दूध से तो मैं और भी काला हो जाऊंगा, क्योंकि भैंस काली है - सो अपनी माता जी को आगे भैंस का दूध न देने का आग्रह कर दिया। 

अमरीश के बड़े भाई चमन और मदन पुरी सिनेमा में पहले से थे। मदन तो कोलकाता से अपनी नौकरी छोड़कर मुंबई चले गए थे जिसपर अमरीश पुरी के पिता बहुत नाखुश थे। उनके हिसाब से उनके परिवार में सबको सरकारी नौकरी करनी चाहिए। बकौल निहाल सिंह, फ़िल्मी दुनियां पाप और पापियों का अड्डा है जहाँ सिर्फ राजा महाराजा टाइप लोगों को जाना चाहिए। वो अपने साथ रह रहे अमरीश को अक्सर ऐसा कहते कि फिल्मों से दूर रहो। नतीजतन अमरीश पूरी ने लगभग 15 साल की बाली उम्र में ही यह तय कर लिया कि था वो कुछ भी करेंगे, फिल्मों में नहीं जायेंगे।


निहाल सिंह जी की सोच के पीछे एक ख़ास वजह थी। उन्होंने अपने भतीजे और संभवतः बॉलीवुड के पहले सुपर स्टार के एल सहगल को मात्र 42 वर्ष की उम्र में मरते देखा था। कहते हैं, शहगल साहब ड्रम के ड्रम रम पी जाया करते थे... तो अमरीश जी अपने पिता को दुःख न पहुंचाने का और फिल्मों की ओर रुख न करने का प्रण लेते हुए बी एम् कॉलेज शिमला में मन लगा कर पढ़ने लगे... ताकि अच्छी सरकारी नौकरी मिल सके। 

चूँकि वो वक़्त आजादी से पहले का था। कॉलेज के शुरूआती दिनों में ही देशप्रेम और आज़ादी की ओर आकर्षित होते हुए अमरीश पुरी ने आर. एस. एस. की सदस्यता ले ली। संघ के साथ जुड़कर अमरीश जी के साथ दो महत्वपूर्ण बातें हुयी। पहला की - उनके आदर्श बदल गए और "फ़िल्मी दुनियां गलत है" - अपने पिता के अलावा वो भी ऐसा मानने लगे। दूसरी बात - अमरीश पुरी देशभक्ति के रंग में रंग गए। उस वक़्त संघ की 'राष्ट्र के लिए बलिदान' की विचारधारा से प्रभावित अमरीश पुरी थोड़े दिनों में ही संघ के प्रशिक्षु से प्रशिक्षक बन गए। वो संघ के शिविरों में युवाओं को सैनिक प्रशिक्षण देने लगे। संभवत: आजीवन अनुशासित और सादगी भारी ज़िंदगी को जीना उन्होंने यहीं से सीखा। 

संघ के सम्बन्ध में अपनी आत्मकथा में उन्होंने कहा है - "बहुत ईमानदारी से कहूंगा कि मैं हिंदुत्व की विचारधारा की ओर आकर्षित हुआ था, जिसके अनुसार हम हिंदू हैं और हमें विदेशी शक्तियों से हिंदुस्तान की रक्षा करनी है, उन्हें निकाल बाहर करना है ताकि अपने देश पर हमारा शासन हो। लेकिन, इसका धार्मिक कट्टरता से कोई सम्बंध नहीं था, यह मात्र देशभक्ति थी"

आगे जनवरी 1948 में महात्मा गांधी की हत्या और उसमें संघ के होने की सम्भावना ने अमरीश पुरी को संघ से थोड़ा विमुख कर दिया। वो इसके ख़िलाफ़ कभी कुछ न बोले किंतु धीरे धीरे अलग होकर कॉलेज में नाटक और गायन करने लगे। यही नहीं, शिक्षा पूरी कर वो मुंबई अपने भाई मदन पुरी के पास चले गए। 


कई सारे स्क्रीन टेस्ट में फ़ेल होने के बाद अमरीश पुरी ने वहाँ मुफ़्त में थिएटर में काम करना शुरू किया। गुज़ारे के लिए यहाँ वहाँ नौकरी में हाथ मारते रहे। कभी माचिस के ब्राण्ड का कमीशन एजेंट बने तो कभी बीमा कम्पनी के लिपिक। बीमा कम्पनी में काम करते उसी दफ़्तर में उनकी जीवन संगिनी भी मिली। 27 वर्ष की उम्र में उन्होंने उर्मिला जी से शादी कर ली। ज़िम्मेवारी बढ़ी तो ध्यान ऐक्टिंग से हट कर नौकरी पर ही रहा। दफ़्तर के ही एक महानुभाव इब्राहिम अलका जी को न जाने कैसे उनमें ऐक्टर दिख गया और वो मुफ़्त में थिएटर करने लगे।  

क़िस्मत देखिए की पहले नाटक में अंधे का रोल मिला और दूजे में मृत व्यक्ति का। दोनों रोल में आँखें निर्जीव और खुली रखनी थी। इस तरह लगभग 17-18 साल मुफ़्त में थिएटर करते अमरीश पुरी अपनी पहली फ़िल्म के मक़ाम पर पहुँचे। अपनी राष्ट्रवादी छवि और लॉबी न बना पाने की आज से उन्हें कोई नामचीन पुरस्कार तो नहीं मिल पाया किंतु दर्शकों का बेपनाह प्यार ऐसा मिला की लोग फ़िल्मी दुनियाँ के विलेन "मोगेम्बो" और "मिस्टर इंडिया" से प्रेम करने लगे। लोग हीरोईन के खड़ूस बाप बलदेव सिंह को दिल दे बैठे। 

अमरीश पुरी के अभिनय से सजी कुछ मशहूर फिल्मों में 'निशांत', 'गांधी', 'कुली', 'नगीना', 'राम लखन', 'त्रिदेव', 'फूल और कांटे', 'विश्वात्मा', 'दामिनी', 'करण अर्जुन', 'कोयला' आदि शामिल हैं। उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय फिल्‍म 'गांधी' में 'खान' की भूमिका भी निभाई थी। उनके जीवन की अंतिम फिल्‍म 'किसना' थी जो 2004 में ब्रेन ट्यूमर से हुई उनकी मौत के बाद 2005 में रिलीज हुई। 

थिएटर से कोई पैसा न बना पाने वाले अमरीश पुरी ने कहा था - "मैंने जीवन में जो कुछ हासिल किया उसका श्रेय सिर्फ़ और सिर्फ़ थिएटर को जाता है।" अपनी आत्मकथा "एक्ट ऑफ़ लाइफ़" में अमरीश पुरी कहते हैं - "जीवन का सूक्ष्म अवलोकन ही एक अभिनेता को असाधारण बनाता है।"

Tuesday, 29 July 2025

मुगल साम्राज्यक अंत दरभंगा में

इतिहास रोचक आ अजब गजब अहि। सबटा एक दोसरा सौं जुड़ल आ जे कहूँ नजरि दौगबी त सब किछ आस पास सेहो। 

हिंदुस्तान में मुगल सल्तनतक आखिर बादशाह छला बहादुर शाह ज़फर। चूंकि हुनका समय में अंग्रेजक प्रादुर्भाव भ गेल छल, ओ 1857 में अपना के हिंदुस्तानी शासक बुझैत अंग्रेजिया शासन सौं मुक्ति लेल देशव्यापी आन्दोलनि ठानि देलनि। दुर्भाग्यवश अंग्रेज सब अही क्रांति के नृशंस दमन क देलक आ मुगल सम्राट बहादुर शाह ज़फर के नज़रबंद क के बर्मा में राखि देल गेल। तत्पश्चात दिल्ली में बांचल खुचल हुनक परिवार के सेहो यातना द क्रमश: मारि देल गेल। 


मुगल आ अंग्रेजी सल्तनत के बीचक अहि युध्द में जीवित बचि गेला बहादुर शाह के जेठ पुत्र मिर्ज़ा दारा बख़्त के पुत्र शहज़ादा जुबैरुद्दिन। उचितन येह छला मुगल साम्राज्य केर बारिस आ ताहि कारण सौं अँग्रेज़ी सल्तनत हिनका सेहो सज़ा द देलकनि। 

अँग्रेजिया आदेशक मुताबिक शहज़ादा हिन्दुस्तानक कोनो एक स्थान पर ३ बरख सौं बेसी नहि रुकि सकैत छला। अहि सज़ा के क्रम में शहज़ादा जुबैरुद्दिन तीन बरख धरि बनारस रुकला। अहि ठाम दरभंगा के तत्कालीन महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह सौं हिनक भेंट भेलनि। 

मुगल बादशाह आ बहादुरशाह जफरक पूर्वज अकबर कहियो दड़िभंगा राज स्थापित केने छलाह। अहि हिसाबे जौं देखल जाय त शहजादा जुबैरुद्दीन आ तात्कालीन दड़िभंगा महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह साम्राज्य भाय (संकेतात्मक रुपे) भेला। परिणाम ई जे बनारस में दूनू गोटे के एक दोसरा सौं भेंट घांट आ हेम छेम भेल। वर्तमान दड़िभंगा राजक राजा लक्ष्मीश्वर सिंह के शहज़ादा के हालात देख दया आबि गेलनि, ओ मैथिल गुणे हुनका दरभंगा आबि रुकय के नोत द देलखीन। 

आब शहज़ादा दरभंगा महराज के अतिथि भ गेलाह। चूँकि दरभंगा महराजक पैठ अंग्रेज दरबार में सेहो छल, किछ समय बीतलाक बाद ओ शहज़ादा जुबैरुद्दिन के सज़ा सेहो माफ़ करबा लेलनि। आब शहजादा तीन साल बीतलाक बादो दड़िभंगा में रहि सकैत छला। 

मिथिला में एकटा कहबि छैक - "जेबह नेपाल, कपार जेतह संगे" - शहज़ादा के दरभंगा प्रवासक बाद पहीने हिनक पुत्र के देहावसान भ गेलनि आ ओकरा बाद स्त्री के। चूंकि अहि नश्वर संसार में सब के जेबाक नियम बनल छैक किछु समयावधि के बाद महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंहक देहांत सेहो भ गेलनि। मुदा नीक गप ई जे महाराजक मृत्यु के बाद हुनक उत्तराधिकारी रमेश सिंह सेहो शहजादा के दड़िभंगा राजक अतिथि बनौने रहला। 

अहि सब खिस्सा में एकटा महत्वपूर्ण बात छुटि गेल। बात सौं पहिने फेर एकटा कहबि। अहाँ सब सुनने होयब - "वंशक गुण कम बेस धीया पुता में आबिये जायत छैक" अहि हिसाबे बहादुर शाह ज़फर सन शायर के शहज़ादा पोता में सेहो लेखन कला कुटि कुटि के भरल छल। पुत्र आ पत्नी के वियोग में ओ अधिकतर जीवन एकाकीपन के दंश सहैत शायरी करैत बितौला। दरभंगा में रहैत ओ ६ टा किताब लिखलनि। अहि में "मौज-ए-सुल्तानी" सब सौं बेसी चर्चित किताब छल। अहि किताब में शहजादा जुबैरुद्दीन देश भरिक रियासतक शासन व्यवस्था के खिस्सा लिखने छथि। 

जुबैरुद्दीन द्वारा लिखल पुस्तक "चमनिस्तान-ए–सुखन" एकटा शायरी संग्रह छल जखन कि "मशनवी-दूर- ए- सहसबार" महाकाब्य थीक। "मशनवी-दूर-ए- सहसबार" किताब में शहज़ादा जुबैरुद्दिन गोरगन दरभंगा राज परिवार आ मिथिला के संस्कृतिक ज़िक्र सेहो केने छथि।

साल 1905 में हुनका मृत्य के बाद तत्कालीन दरभंगा महराज रामेश्वर सिंह भाटीयारी सराय रोड में हुनक मकबरा बनौलनि। ई भटियारी सराय एखुनका दरभंगा के मिश्र टोला लग अहि।

एहि प्रकारेण लाल पाथरक किला में रहनिहार मुगल वंशक अंत दरभंगा में लाल ईंट सौं बनल मकबरा में भ गेल। #दड़िभंगा