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Saturday, 16 August 2025

एक चिट्ठी धैर्यकांत के नाम - अक्टूबर 2020


डिअर धैर्यकाँत, 

कल ४ महीने बाद तुमने अपने वाल पर लिखा। जब दिल से लिखते हो, लिखते ही हो....शानदार लिखा दोस्त।

ये जितना बड़ा सच है कि लिखने से मन हल्का होता है उतना बड़ा सच ये भी है कि सवाल जवाब और प्रतिउत्तर से वही मन फिर से उतना अधिक भारी भी हो जाता है। अच्छा करते हो की अब इन चक्करों में नहीं पड़ते तुम। 

ये सच है कि सोशल मीडिया पर जो दिखता है दरअसल निजी जिंदगी में वैसा कुछ कम ही होता है। यहाँ अपने सारे दुःख दर्द, सारी कमियां और फ़टे को छुपाकर आता है इंसान। हालाँकि इसके सही वजह का पता नहीं मुझे लेकिन शायद होड़ और प्रतिस्पर्धा सबसे बड़ी वजह लगती है मुझे जिसमें इंसान को जाना कहाँ हैं वो नहीं पता होता है। देख रहा हूँ सब भाग रहे हैं... कोई किसी से बेहतर दिखने में तो कोई खुद को बड़ा ज्ञानी साबित करने में... कोई कोई तो अपनी ही जिंदगी के खालीपन को झुठलाने भर को लिखता है। 

मुझे लगता है हम सबने एक मुखौटा पहन रखा है और कहीं न कहीं यह मुखौटा शायद जरुरी भी है.... जिंदगी जीते रहने के लिए। बिना नकाब शायद आप नकार दिए जाएँ, आपके अपने भी आपको पहचानने से इंकार कर दें क्योंकि उनके लिए आपने जो चोला पहन रखा होता है वो आपको उसी में बने देखना चाहते हैं... कोई आपका वास्तविक रूप या फिर आपको आपके स्वयं की जरूरतों में नहीं देखना चाहता है। 

ऐसे में हम शायद जॉन के उस शेर को याद करके जिए जाते हैं की - कितने दिलकश हो तुम कितना दिलजूँ हूँ मैं, क्या सितम है कि हम लोग मर जाएंगे - हाँ शायद यही सोचकर की दुनियां तो दो दिन का मेला है, मर ही जाना है, कौन पंगे ले... तो दम घुटते हुए भी हम मुखौटा पहने रहते हैं।

हाँ, तुम सही हो की जब इंसान खुद को अपने ही द्वारा परिभाषित सांचें में गलत पाता है तो वो अलग अलग चीजें तलाशने और उनको आजमाने लगता है। जल्दी सबकुछ सही करने की कोशिश में वो आधा अधूरा छोड़ता जाता है सब... उसे लगता है कि ये तो बाद में कर लेंगे लेकिन ये सब अधूरे काम उसके कंधे पर बोझ बढ़ाते जाते हैं... वो झुक कर चलने लगता है, खोया रहता है, वो सिगरेट और शराब को अपना दोस्त समझने लगता है.... उसकी आँखों के निचे के गढ्ढे गहरे होते जाते हैं, उसका खुद का सिस्टम खराब हो जाता है सारा सिस्टम मैनेज करते करते। 

हाँ, रिश्ते चाहे घर के हों या फिर बाहर के या फिर सोशल मीडिया के, साले @#$@% सब स्वार्थ पर ही आधारित होते हैं। एक बार आपने स्वार्थ पूर्ति बंद किया नहीं की वो गधे के सर से सींग की तरह आपके जीवन से गायब। वो ये भी नहीं सोचते समझते की खुद तुम्हारा भी कोई स्वार्थ होगा... क्या पता लाचारी ही हो। उनके हिसाब से लाचारी तो हमारी अपनी है न... वो लोग चले जाते हैं, कहीं और... शायद किसी और की दुनियां में। हमारी बदकिस्मती की वहां वो बजाय हमारे किये की चर्चा के हमारी बदखोई करने में लग जाते हैं। वो हमारी बुराई तक ही शांत नहीं होते बल्कि हमारा ही वजूद ख़त्म करने की साजिश करने में लग जाते हैं... वो यह साबित करने में लग जाते हैं कि कैसे वो ही हमारे लिए जरुरी था, हम नहीं। इसमें एक स्टेप आगे और देखा है मैंने - जिसके सामने हमारी यह तारीफ़ हो रही होती है वो आदमी भी हमारे बारे में एक परसेप्शन बना लेता है... हमसे बिना बात किये कोई आदमी कैसे हमारे बारे में कोई विचार बना लेता है पता नहीं लेकिन आजकल ये नया ट्रेंड चला है कि आप किसी से कुछ सुनकर हमारे बारे में राय बना लो... सोशल मीडिया पर किसी को पढ़ कर उसे जज कर लो और फिर कब्जी सा मुंह फुला लो। 

तुमने लिखा की परिवार और रिश्ते आपके सामने गढ्डा खोद देते हैं। शत प्रतिशत तो ऐसा नहीं है किन्तु हम जहाँ से हैं वहां इसका प्रतिशत बहुत अधिक है। कई उदाहरण देखे हैं मैंने जब एक लड़का अपने परिवार के लिए खुद को ख़त्म कर लेता है और उसका परिवार बजाय शाबाशी के उसकी वजह से न हो पाए कामों के ताने भर देता है। उसने क्या किया ये न बताकर उसने क्या नहीं किया वही बताया गया उसे ताकि उसे याद रह सके की वो बस सहने, थोड़ा और करने और थोड़ा और करने को ही बना है। 

बड़े शहरों की प्रेमिकाएं.... अब इतने सारे उदाहरण देख लिए की इस पर मुझे लिखते हुए भी शर्म आती है। यह मान कर चलो की दिल्ली एन सी आर की प्रेमिकाएं प्रेम नहीं करती बल्कि आपके भोलेपन के हिसाब से आपकी जेब और मानसिक शक्ति (...) के खोखले होने का इंतजार भर करती हैं। बस इतना कहूंगा की प्रेम ही करना है तो बच्चे बच्चियों से करो... खुश महिलाओं को दोस्त बनाओ... ज्यादा जी करे तो केजरीवाल को चंदा दे आओ या फिर खुद को चॉकलेट, वाइन आदि गिफ्ट कर दो..... मगर दिल्ली की प्रेमिकाएं, न बाबा न। 

पता हैं मुझे इन सब बातों से कोई ख़ास मलाल भी नहीं और मैं भी तुम्हारी तरह परवाह भी नहीं करता अब किसी की। अगर भूखा हूँ तो हँसता हूँ, पेट भरे होने पर थोड़ा और हँसता हूँ... वजह की आपके भूखे होने की बात से सब... हाँ, सब के सब हँसेंगे और आपके पेट भरे होने पर हँसते देख कर लोग समझेंगे की इसको तो हंसने की बिमारी है.... असल में फ़िक्र कहाँ होती है कि इस वजह से कुछेक प्रतिशत जो अच्छे लोग हैं आपका भरोसा उनसे भी उठ जाता है... जैसे गेंहूं के साथ घुन पिसता है वैसे ही ये कुछेक प्रतिशत लोग भी पिस रहे... कोई इन पर भी भरोसा नहीं कर रहा... उन्हें उनकी नेकी का हक़ नहीं मिल रहा। 

तुम्हें तो पता ही है पिछले दिनों की कहानी जब बहुत कष्ट में था... थोड़ी झेंप भी रहती थी की जिन्हें मुझसे मदद की आशा रहती थी उन्हें कैसे कहूं की मैं खुद मदद लेने की हालत में पहुँच गया हूँ। हालाँकि फिर भी जो करीब थे वो आये, मेरा परिवार मेरे साथ खड़ा रहा... मेरे दुःख को समझा, मेरा दर्द साझा किया और पूछते रहे। कोई यहाँ था कोई अन्य बड़े शहरों में तो कोई विदेश में... पता है एक रात डेढ़ बजे किसी ने अमरीका से फोन किया और कहा - " प्रवीण, तुम्हे जो भी मदद चाहिए हम तैयार हैं... कहो तो आ जाऊँ" अच्छा लगा। 

हालाँकि मुझे उतना ही बुरा लगा जब पिछले १० महीनों के इस संघर्ष में और संभवतः जीवन की सबसे बड़ी लड़ाई में कुछ लोग या तो अनभिज्ञ बन गए या फिर सब जान बूझकर मुझसे किनारा कर लिया। पहले तो मेरी आदत के अनुसार मैंने इसकी वजह खुद को ही माना की शायद खुद की कोई कमी रही होगी मेरी। लेकिन बाद में अधिक मंथन पर पता लगा कि नहीं, ये तो बस मुझसे इसलिए जुड़े थे की मैं इनके किसी काम आ सकूँ। तुमने सही कहा था - "प्रवीण जी, सीधे नहीं बोलने वालों से दूर रहिये...." 

धैर्यकाँत, अब मैंने निर्णय ले लिया है कि सिर्फ और सिर्फ अच्छे दिनों वाले साथियों को त्याग दूंगा..... मुझे पता है तुम कहोगे की आप तो सबकुछ खुद पर लेकर किसी को जीवन भर त्यागना नहीं चाहते तो आपसे नहीं होगा ये सब। सो भाई - कोशिश करूँगा। क्योंकि पिछले दस महीनों ने (जिसे दस साल की तरह जिया है मैंने) मुझे सीखा दिया है कि मैं भी इंसान ही हूँ। वो इंसान जो सही गलत समझने में गलती कर सकता है... और उसे इस गलती को करेक्ट कर लेना चाहिए। कुछ पुराने को क्रॉस और कुछ नए को टिक करना ही चाहिए। परिणाम की चिंता किये बगैर मुंह पे कहना ही चाहिए की नहीं बॉस, आप नहीं चाहिए... भले कोई बुरा मान जाए, मुझे पागल समझे, एरोगेंट कहे या फिर कुलबोरन। 

लिखते रहो,
तुम्हारा शुभचिंतक,
प्रवीण

Monday, 7 April 2025

हमारी अवधारणाओं से ऊपर - मिथिला की रणभूमि


हमारी छोटी उम्र में नग्नता हमें उत्तेजना दिया करती है। युवावस्था में यही मौज हमें भौतिक (शारीरिक) सुख देता है और प्रौढ़ावस्था में इसकी प्राप्ति के लिए हमें उपलब्धियां, सुकून और नयापन का साथ चाहिए होता है।

जी नहीं, न तो मैं काम शास्त्र पर कोई शोध कर रहा हूँ और न ही मुझे कोई खास चाहत या फिर कोई कमी ही है मेरे अंदर। मैं बस यह कहना चाहता हूँ कि उम्र के हिसाब से आपकी समझ बूझ, आपकी स्वीकार्यता और आपकी इच्छाएं बदलती हैं।

दरअसल यही बात मैंने साहित्य को पढ़ते महसूस किया है। एक ही तरह के साहित्य का अलग अलग अवस्थाओं में अलग अलग असर होता है। जैसे जैसे आपकी समझबबूझ बदलती है (बढ़ती है नहीं लिखा है मैंने), हमारे लिए पढ़ी  पुस्तकों के मायने बदलते जाते हैं। इसका एक बहुत ही सहज उदाहरण है - मैंने शिवानी को लगभग 16-17 वर्ष की उम्र में पढ़ा और फिर 40-45 साल की अवस्था में फिर पढ़ा (जी नहीं, मेरी उम्र 50 साल है), दोनों ही समय मुझे इसका अलग अलग भावार्थ लगा। संभवतः बाद के दिनों में पढे को मैं समग्रता से समझ भी सका या यूं कहिए कि मैं साहित्यकार द्वारा किये अटेम्प्ट के सही इन्टेन्ट तक पहुँच पाया (मुझे पता है, "प्रयास के मर्म को समझ पाया" लिखना था यहाँ)। यह अवस्था संभवतः वह होती है जब आप बाह्य आवरणों के अंदर की बात भाँपने लगते हैं, जब आप चमक-दमक से आकर्षित नहीं होते हैं।

खैर, ऐसा विरले ही होता होगा जब आपकी उम्र (समझबूझ) के हिसाब से साहित्य पढ़ने को मिला हो आपको जब आपका और साहित्य का लेवल समानांतर हो... उदाहरणार्थ वो पल जब आपके मूड के हिसाब से ही पैग और सुट्टा मिल गया हो आपको।

संप्रति अभी मिथिला की रणभूमि पुस्तक को पढ़ते मुझे यही संयोग बनता दिखा। हमारी आम अवधारणायें हैं - हम विद्वान लोग, शास्त्र पुराण पढ़ने और सिखाने वाले लोग, भगवती को पूजने और महादेव से कार्य लेने वाले लोग, भगवान राम को गरियाने का अधिकार रखने वाले लोग, हमारी "अदृश्य" महानता का दंभ रखने वाले हम लोग। उफ्फ़ उफ्फ़ उफ्फ़ !  मेरी हो चुकी उम्र में भी जबकि कई बार उपेक्षा, अन्याय और सुविधाओं की अनउपलब्धता को देखकर मेरी भुजायें फड़कती हैं, कई बार ऐसा होता है जब खून की गर्मी सर तक जाती है किन्तु अपनी अवधारणाओं का ध्यान करके मैं चुप हो जाता रहा। 

ऐसे में इस किताब ने मुझे बल दिया जब मैंने पढ़ा कि हमारे मिथिला महान वाले इतिहास में इन अवधारणाओं के अलावा योद्धाओं और शस्त्र विद्या का पुट भी है। हमने न केवल मैथिली के माध्यम से संस्कृत पढ़ा है बल्कि हमने अस्त्र चलाना भी सीखा था। शास्त्र मात्र पढ़ने का लेबल लिए हमने वस्तुतः आत्मरक्षार्थ शस्त्र भी चलाया है।

जैसा कि मिथिला के सुपरिचित इतिहासकार अवनिन्द्र सर ने पुस्तक के प्राक्कथन में लिखा है - लेखक ने वैज्ञानिक तरीके से संदर्भों की प्रस्तुति तो की ही है, रेफ्रन्स देकर उसे प्रामाणिक भी किया है। लेखक (वस्तुतः शोधकर्ता) सुनील कुमार झा "भानु" जी सहरसा (मुझे दरभंगा वालों, गैर-मैथिल न कहना) के निवासी हैं। भोजपुरी, हिन्दी, अंग्रेजी, जापानी और मैथिली भाषा के जानकार भानु जी ई-समाद के प्रबंध न्यासी भी हैं जो इससे पहले "मंटुनमा" और "प्रेमक टाइमलाइन" लिख चुके हैं। 

कुल जमा 126 पृष्ठ की इस आकर्षक छपाई वाली इस पुस्तक की कीमत बिहार में मिलने वाले एक बियर बोतल के बराबर यानि मात्र 249 रुपया है जिसे ई-समाद बिना डाक खर्च के आप तक पहुंचाता है।

अन्य पुस्तक समीक्षाओं की तरह इसकी अधिक व्याख्या कर मैं पुस्तक का रोमांच कम नहीं करना चाहता... आप इसे पढ़ें, पढ़ाएं और कुछेक गरिष्ठ लोगों के बपौती से इतर और अवधारणाओं से ऊपर अपने वास्तविक मिथिला को जानें !

Wednesday, 20 March 2024

पुस्तक समीक्षा - ललना रे (दीपिका झा)

"ललना-रे" - बाल-साहित्य के तौर पर लिखी इस किताब की साज सज्जा, आवरण, छपाई, पेपर क्वालिटी और इन सब से ऊपर इसका फॉण्ट साइज़ दर्शनीय सह सुपठ्य है. नवारम्भ प्रकाशन ने छपाई को बेहतर करने का उत्तरोत्तर प्रयास किया है जिसका एक उदाहरण है यह पुस्तक. हाँ, अध्याय/ कथाओं के शीर्षक को बेहतर फॉण्ट दिया जा सकता था. 

शुरुआत पुस्तक की प्रस्तावना से जिसे लिखा है सुपरिचित अजित आजाद जी ने. होता क्या है कि जब हम  लगातार रूटीन वर्क करते हैं तो हम चीजों का सामान्यकरण कर देते हैं, अलग अलग तरह के साहित्य का पृथककरण नहीं कर पाते. अजित जी द्वारा लिखित प्रस्तावना का यही हाल हुआ है. उनके लेखन की समग्रता का कोई सानी नहीं किन्तु यहाँ प्रस्तावना लिखते एक तो वो ये भूल गए की यह बाल-साहित्य  है और दूजे प्रस्तावना लिखते वो पुस्तक समीक्षा सा लिख गए जिसमें समूचे पुस्तक का कौतुहल उजागर कर दिया है उन्होंने. संभवतः पुस्तक की लेखिका से अपनी कोई ख़ास दुश्मनी निकाली हो उन्होंने. :)...  एक तरह से पुस्तक में मौजूद हर एक रचना का पोल-खोल उन्होंने यहीं कर दिया है. नि:संदेह वो सुयोग्य हैं, आगे ध्यान रखेंगे. 

अब बात कथाओं की. कुला जमा अठारह कहानियों वाली यह पुस्तक पांच से पंद्रह वर्ष के बच्चों को केन्द्रित कर लिखी गयी है. यहाँ प्रकाशकों को मेरी एक सलाह रहेगी की सिनेमा की तरह पुस्तकों को भी उम्र के हिसाब से UA, UA16, A आदि सर्टिफिकेट दी जाये. 

पुस्तक की कुछ बातें जो आकर्षित करती हैं उनमें से एक है कि लेखिका ने किसी भी कथा में अनावश्यक भूमिका नहीं लिखी और ना ही जबरिया कोई भारी-भरकम शब्द ही घुसाया है. सभी कहानियां काफी सहज, सरल और सुपठ्य हैं. हाँ पहली कहानी में एक करैक्टर "शकूर-अहमद" अनावश्यक लगा मुझे. यह एक नया चलन है संभवतः मैथिली साहित्य में... इसे अनदेखा करते हुए बात पुस्तक की. 

विष्णु शर्मा द्वारा लिखी प्रसिद्ध पुस्तक है "पंचतंत्र" जंगली जीवों को पुस्तक के चरित्र बना कर लिखी कहानियों द्वारा बाल मन को सीख देना इस पुस्तक का लक्ष्य था जिसमें कई दशकों से यह पुस्तक सफल भी रही है. अब जबकि हमारे विद्यालयों में नैतिक शिक्षा की पढाई बंद है, आज भी अभिभावक अपने बच्चों को नैतिक शिक्षा के लिए "पंचतंत्र" उपहार देते हैं.

दीपिका झा जी द्वारा लिखी इस पुस्तक की सभी कहानियों में रोचक घटनाक्रम के द्वारा एक अच्छी सीख देने का प्रयास दिखा है मुझे. जबकि आज के दौर में बच्चे अपनी जन्मभूमि से कट रहे, उन्हें अपनी सभ्यता, ग्रामीण परिवेश और मानव मूल्यों से परिचय करवाती है यह पुस्तक. "अतू" कथा में बाबा द्वारा पालतू कुत्ते को रोटी या चावल का कौर खिलाने का जिक्र नाना की याद दिला गया मुझे जो नित भोजनोपरांत यही  करते थे.  

सभी कथाओं में नैतिक शिक्षा से जुडी एक सीख को आप कहानी की ही एक पंक्ति में पा सकते हैं. कुछ उदाहरण देखें - 

उपयोगी पात - अहाँ के त किताबो स बेसी बुझल अहि बाबा. 

सुआद आ की स्वास्थ्य - जीवन में सुआद आवश्यक छैक मुदा स्वास्थ्य स बेसी नै.

आमक गाछी - आम (सुफल) भेटबाक ढंग सबके लेल अलग अलग होईत छैक.

रंगोली - अपन कला आ संस्कृतिसं प्रेम करब आवश्यक छैक मुदा ताहू स बेसी आवश्यक अपन कला के विस्तार.

वाची-प्राची - कखनो ककरो अपनासं कमजोर नै बुझबाक चाही... कठिन परिश्रमक कोनो विकल्प नहि.  

ऐसे में जबकि मैथिली विद्यालयों से दूर है ही, बच्चे सिंगापूर, दुबई और अमरीका की ओर तक रहे, इस पुस्तक के प्रचार प्रसार से हम अपनी भाषा-संस्कृति के लिए इन दोनों ही राक्षसों पर वार कर सकते हैं. मैं कम से कम दस बच्चों में इस पुस्तक को बांटने का प्रयास करूँगा... आप सब भी पढ़ें. 

Tuesday, 27 February 2024

पाठकीय प्रतिक्रिया - 'भूतों के देश में - आईसलैंड' - प्रवीण झा


डॉक्टर प्रवीण झा रचित पुस्तक 'भूतों के देश में - आईसलैंड' पर रमेश चन्द्र झा जी की पाठकीय प्रतिक्रिया.

यूँ तो अभी तक कई पुस्तकों से साक्षात्कार हो चुका है, मगर, आज पहली बार किसी पुस्तक पर पाठकीय प्रतिक्रिया देने के लिए कलम उठाने का प्रयास किया है। दिलचस्प यह है कि जितना समय लेखक ने इस पुस्तक को लिखने के लिए नहीं लगाया होगा, उससे कई गुणा अधिक वक्त मुझे अपनी पाठकीय प्रतिक्रिया (अनुरोध है कि इसे समीक्षा नहीं समझा जाय) देने में लग गए ! तो प्रस्तुत है - डाॅक्टर प्रवीण कुमार झा द्वारा लिखित पुस्तक 'भूतों के देश में - आईसलैंड' पर मेरी पाठकीय प्रतिक्रिया !

पुस्तक का नाम : भूतों के देश में - आइसलैंड
लेखक : प्रवीण कुमार झा
प्रकाशन : ई-समाद

पुस्तक का नाम देखकर मन में सहज ही कौतुहुल जगता है कि, क्या सच में भूतों का भी कोई अलग से देश है ? यही कौतुहुल और लेखक की किस्सागोई वाली रोचक शैली ने मुझे यह किताब खरीदने और पढ़ने को विवश कर दिया। यह पुस्तक एक यात्रा-वृत्तांत है जिसे प्रवीण कुमार झा जी ने अपने चिरपरिचित रोचक अंदाज में लिखा है। यात्रा-वृत्तांत के बारे में श्री झा का ही कहना है (यह उन्होंने ही फेसबुक पर अपने एक पोस्ट के माध्यम से कहा है) कि यह लिखने वाले के शैक्षणिक पृष्ठभूमि पर निर्भर करता है कि उसका यात्रा-वृत्तांत कैसा होगा। दूसरे शब्दों में कहें तो - यात्रा के दौरान भ्रमण किए गए एक ही स्थान विशेष के बारे में, विभिन्न पृष्ठभूमि के व्यक्तियों द्वारा लिखा गया यात्रा-वृत्तांत, अलग-अलग अनुभव को समेटे होता है। मसलन, पत्रकार अपनी नजर से किसी स्थान का वर्णन करेगा तो पुरातत्ववेत्ता अपनी नजर से। विज्ञान के छात्र का दृष्टिकोण अलग होगा तो, प्रकृति-प्रेमी एवं पर्यावरणविद का अलग। कुल मिलाकर सात अन्धों और उनके द्वारा हाथी के बारे में बनी राय वाली कहानी है। सब अपनी जगह सही होते हैं, मगर पूर्ण कोई नहीं होता। हाँ, सभी मिलकर पूर्णता के नजदीक जरूर होते हैं। हालाँकि, उन्होंने अपनी पेशागत पृष्ठिभूमि का उनकी इस यात्रा-वृत्तांत लेखन पर हावी नहीं होने देने की भरपूर कोशिश भी की है और मेरी समझ से, इसमें उन्हें बहुत हद तक सफलता भी मिली है, मगर पूरी तरह नहीं। एक बात और - एक पाठक के लिहाज से मेरा यह सोचना है कि इस तरह के अंधविश्वास से जुड़े किस्से के पक्ष में अगर विज्ञान की पृष्ठभूमि से जुड़े किसी लेखक द्वारा लिखा गया है, तो वह महज अंधविश्वास नहीं हो सकता। मगर, मैंने पाया कि अनेक अविश्वसनीय दृष्टांतों का उद्धरण देने के बावजूद, लेखक अपनी वैज्ञानिक सोच की परिधि से अंततः बाहर नहीं निकल पाये।

इस किताब में भूतों से इतर बहुत सारी ऐसी रोचक और आश्चर्यजनक जानकारियाँ एवं संस्मरण हैं, जो इसे उपयोगी बनाती है। इन सारे संस्मरणों को उन्होंने कुल चैदह अध्यायों में पिरोया है। चाहे हजारों वर्षों से चली आ रही आइसलैंड की मूलभाषा का अभी भी जीवंत रहना हो या अत्यंत विषम प्राकृतिक परिस्थितियों से जूझते वहाँ के लोगों का जीवट। सबकुछ अद्भुत है। मगर इन सबके बावजूद, पूरी किताब पढ़ने के दौरान यह उत्सुकता बनी ही रही कि अब कुछ ऐसा पढ़ने को मिलेगा जिससे यह साबित हो जाएगा कि सचमुच भूत होते हैं। जिस प्रकार कुछ घाघ अभिभावक छोटे बच्चों को मेला का लोभ दिखाकर मेला में घुमाते तो हैं, मगर, उसे उसकी मनपसन्द की वस्तु न दिलाकर इधर-उधर टहलाकर वापस घर ले आते हैं, वैसी ही अनुभूति मुझे इस किताब को पढ़ने के बाद हुई। नही तो, दो-चार दिन की और छुट्टी लेकर आइसलैंड घूमते और वहाँ की, खासकर ‘होल्माविक‘ जैसे भुतहा शहर की उस रहस्यमयी बुढ़िया के बारे में और अधिक विस्तार से लिखते। मगर नहीं, तूफान के डर से वहाँ से तुरत वापस हो लिए और हम वहाँ के दिलचस्प किस्से से वंचित ही रह गए। मुझे लगता है, लेखक को भी इसका मलाल तो होगा ही, क्योंकि बुढ़िया द्वारा बिना इनके बताये, इन्हें रविवार की फ्लाइट से जाने की बात कहना, कैमरा भूलने पर उसके द्वारा इनको फोन करना (इन्होंने खुद लिखा है कि इन्हें याद नहीं कि इन्होंने उसे अपना मोबाइल नंबर बताया था) और इनके द्वारा लिए गए यंत्र के फोटो की काॅपियों का अदृश्य होना जैसी अचरज से भरी घटनाएं कम रहस्यमयी नहीं थी। हालाँकि, इन्होंने इन सब अचरज से भरी घटनाओं पर तार्किक लेप लगाकर इनको झुठलाने की भरपूर कोशिश अवश्य की है, परन्तु, उसे मानने को मन राजी नहीं होता। इसलिए, ऐसा लगता है कि ‘होल्माविक‘ जैसे रहस्यपूर्ण शहर के बारे में जानने की इच्छा अधूरी ही रह गई।

‘गर आदमियों के बीच हो-हल्ले में ही रहना होता, तो आखिर प्रेत क्यों बनते ?‘- जैसे गुदगुदाने वाले वाक्यों से भरपूर पुस्तक का पहला ही अध्याय, ‘प्रेत परिकथा‘, भूत-प्रेतों के विभिन्न प्रकारों, यथा-ग्रामीण भूत, शहरी भूत, विदेशी भूत आदि के रोचक वर्णन के साथ बड़ी सहजता से तंत्र-साधना के अंतर्गत आने वाले पंच ‘म‘कार साधना का संक्षिप्त उल्लेख करता है। इसके बाद शुरु होती है प्रेतों के देश, आईसलैंड की रोमांचक यात्रा जिसका वर्णन आगे के अध्यायों में है।

पुस्तक के दूसरे अध्याय, ‘प्रेत-लैंड के ऊपर‘ में आईसलैंड का संक्षिप्त किन्तु रोचक वर्णन है जिसमें वहाँ की अनोखी परम्परा और संस्कृति, यथा - लिंग-पूजा, नामकरण-पद्धति, आदि के अतिरिक्त मनुष्य से इतर विचित्र लोग, ‘एल्व‘ एवं डायन जिसे ‘ट्राॅल‘ कहा जाता है, का अद्भुत वर्णन है। लेखक का यह कहना कि कभी बलात्कारियों के वर्चस्व वाला देश, आज स्त्रियों के लिए सर्वोत्तम देश है - विस्मित करता है। नामकरण के बारे में यह रोचक तथ्य, कि इस देश में सभी का उपनाम एक ही है, अचंभित करने वाला है।

‘‘आईसलैंड में लोग पत्थर नहीं फेंकते, इस डर से कि किसी ‘एल्व‘ को न लग जाए‘‘- ऐसा क्यों कहते हैं, अगर जानना हो तो पुस्तक के तीसरे अध्याय, ‘छुपे हुए लोग (हुल्डुफोक)‘ को पढ़ना होगा जिसमें हुल्डुफोक के बारे में रोचक किस्सों के साथ वहाँ के खान-पान और मिलने वाली स्वादिष्ट समुद्री मछलियों के अलावा ‘गुन्नु‘ डायन के अविश्वसनीय किस्सों का भी जिक्र है ।

किसी पुस्तक के सभी अध्यायों का संक्षिप्त विवरण देने से उस पुस्तक को पढ़ने की उत्सुकता खत्म हो सकती है। अतः इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए अब आगे के अध्यायों में वर्णित रोचक एवं रोमांचक रहस्यों पर पर्दा रहने देना ही उचित है। अगर आप भी भूतोें की रहस्यमयी दुुनिया को जानने हेतु उत्सुक हैं, तो इस पुस्तक को पढ़ें और ‘मृत्यु के अखबार‘, ‘होल्माविक के कौवे‘, ‘आईसलैंड के औघड़', ‘लिंगों का घर‘, ‘ज्वालामुखी और नर्क का द्वार‘, भूतों का हवाई-जहाज‘, देवभाषी देश‘, ‘ब्लू लगून‘, ‘सड़ी मछलियों का भोग‘, ‘प्रेतिनों से भेंट‘ तथा ‘अलविदा प्रेत‘ जैसे रोचक अध्यायों से रू-ब-रू हों।

यूँ तो यह पूरी पुस्तक ही रोचक है, परन्तु मुझे जिस अध्याय ने सबसे अधिक प्रभावित किया वह है - ‘देवभाषी देश‘। इस अध्याय में बहुत ही रोचक ढ़ंग से यह बतलाया गया है कि कैसे आईसलैंड के निवासियों ने हजारों वर्षों से चली आ रही अपनी मूल भाषा को संजो के रखा है। यह तब है जब पूरे स्कैन्डिनैविया ही नहीं वरन पूरे विश्व मे सबसे युवा देश आईसलैंड ही है। यह सचमुच प्रेरक है और हमें उनसे इस बात को सीखने की जरूरत है। संस्कृत भाषा के साथ यहाँ के भाषा का तुलनात्मक विवरण गर्वित करने वाला है। मगर, लेखक का यह कहना कि ‘जिस देश का इतिहास सबसे छोटा है, वहाँ इतिहास ज्यों-का-त्यों है एवं जिन देशों का इतिहास प्राचीन और गौरवशाली है, उनका इतिहास मिट गया‘ - सोचने पर विवश करने वाला है।

अंत में मेरा एक सुझाव जो थोड़ा अटपटा सा हो सकता है, वह यह कि इस तरह के यात्रा-वृत्तांत संबंधी पुस्तकों के साथ उसमें वर्णित संबद्ध स्थानों एवं घटनाओं का विडियो भी किसी रूप में संलग्न करना चाहिए जिससे अध्ययन के साथ-साथ उन स्थानों का साक्षात् भी संभव हो सके।

आशा है, लेखक महोदय इस सुझाव पर अमल करेंगे और आईसलैंड की अपनी इस अधूरी यात्रा को पूरा करने पुनः वहाँ की सैर को जाएंगे। अंत में लेखक प्रवीण झा को शुभकामनाओं समेत इस प्रथम पाठकीय प्रतिक्रिया हेतु भुल-चूक लेनी देनी.

रमेश चन्द्र झा

Saturday, 3 February 2024

पुस्तक समीक्षा - बकर पुराण - अजीत भारती


बकर पुराण मुझे ख़ुद का लिखा सा लगा. जो कुछ दिनों से मुझे पढ़ रहे हैं वो यह किताब पढ़ें तो ख़ुद ही मेरी इस बात का सबूत पाएँगे. बक़ौल बकर पुराण, दरअसल हमें स्वीकारना चाहिए की हम कम ही वो लिखते हैं जो हमारे दिल में चलता या होता है... आम बोल चाल वाला मनुष्य लिखते वक़्त सोफ़िस्टिकेटेड हो जाता है... बनावटीपन ले आता है लिखने में... ठीक वैसे ही जैसे सबको बीवी माधुरी और पड़ोसन सनी लेओन अच्छी लगती है... हाथी के दाँत खाने के और दिखाने के...

लेखक ने वास्तविक बोलचाल और लेखन के बड़े से गैप को कम या ख़त्म करने की कोशिश की है... और इससे कई बार यूँ लगता है जैसे इग्ज़ैक्ट्ली मेरे साथ भी ऐसा ही तो हुआ था... ऐसे ही तो बोला था उसने... ऐसे ही तो मैंने उल्लू बनाया था... या फिर साला ये तो हम भी लिख सकते थे टाइप फ़ीलिंग... (हालाँकि लिखने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हम)

अब देखिए आप किसी सरकारी दफ़्तर के पीउन के पास गए और आप बोलते हैं - 'अरे भैया, क्या तुम्हारे साहब अंदर हैं..., साला छोटे से काम के लिए कितना चक्कर लगाओगे..., बैंचो तुम लोग..., कुछ लेना है तो मुँह खोलो न भर देते हैं' - अब इसी बात को यदि आपको लिखना हो या किसी को बताना हो तो आप बताते/लिखते हैं - मैं दफ़्तर में पीउन से मिला और उसे कहा - 'भैया, कितना चक्कर काटना होगा यार, कोई और रास्ता हो तो बताओ जिससे तुम्हारे साहब काम कर दें' बताइए अब कि... आख़िर क्यों ये ढोंग और फ़रेब है कम्यूनिकेशन में. बकर पुराण इसी अंतर को ख़त्म करती लगती है और इसलिए अधिकांश घटनाएँ आस पास की या फिर आपबीती लगती है.

पुस्तक के पहले चैप्टर या बकैती में आम आदमी को ढूँढने की असफल कोशिश की गई है... हालाँकि मेरा मानना है कि आम आदमी और सभ्य आदमी के अलावा एक और तीजा आदमी होता है जो होता तो सभ्य है पर मौक़ा पाते ही आम आदमी हो जाता है.

बकर पुराण शायद यह संदेश भी देता है कि अगर कभी... कहीं अपना शर्ट खोलकर या कमर हिला कर नाचने का मन हो तो नाचो ना... किसने रोका है. शरीर तुम्हारा... मन तुम्हारा.. मौक़ा-ख़ुशी तुम्हारी.. फिर किसी और की परवाह क्यूँ. हाँ, यहाँ ध्यान ये रखना है कि कुछ भी फूहड़ और अश्लील न हो.

'किताब में सब कुछ व्यंग और मौज मस्ती का है' - मेरी यह ग़लतफ़हमी इतनी ज़ोर से टूटी की एक बार तो मैंने किताब को अलट पलट कर देखा की मैं बकर पुराण ही पढ़ रहा हूँ ना. आप ख़ुद ही ग़ौर फ़रमाएँ पहली कहानी की एक लाइन - 'इस देश का दुर्भाग्य है की सेंसिबल लोग रात का शो देखने आते हैं और उधर भरी दोपहरी और भरे बाज़ार में किसी नवयुवक की पीट पीट कर हत्या कर दी जाती है... '

एक और बात जो इस किताब को पढ़ कर पता चलती है वो ये की लेखक ने कामु, क़ाफा, ग़ालिब, प्रसाद, प्रेमचंद ... हिंदी, अंग्रेज़ी, संस्कृत... अच्छा, घटिया... सब साहित्य को न सिर्फ़ पढ़ रखा है बल्कि आत्मसात भी किया हुआ है. बिना पढ़े आसान नहीं है मिका के किसी गाने को शेक्सपियर और ग़ालिब की रचना से जोड़ पाना.

किताब अभी ख़त्म नहीं हुई है किंतु मैं अपनी बकलोली फ़िलहाल यह कह कर ख़त्म करता हूँ की - "आज की भाग दौड़ वाली ज़िंदगी में जहाँ लोगों को बड़ी कहानियाँ या उपन्यास पढने का न तो वक़्त है और न पेशेंस, बकर पुराण छोटे पैकेट का बड़ा मजा है... छोटे छोटे अध्याय के द्वारा एस ज़मीनी लेखक ने बड़े बड़े रोचक अनुभव लिख डाले हैं जो गुदगुदाते हैं, अपना सा अहसास देते हैं, सिखाते हैं.... सबको इस नए टाइप के साहित्य को एक बार ज़रूर पढ़ना चाहिए'


किताब में युवाओं से जुड़े करीब 47 प्रसंग हैं जिसकी शुरुआत सिनेमा से होती है. आम आदमी जब सिनेमा जाता है प्रसंग में लेखक ने सिंगल स्क्रीन सिनेमा हॉल जाने वालों, खासकर युवाओं की अल्हड़बाजी को व्यंग्य की शक्ल में जीवंत करने की कोशिश की है. कैसे वे बातों-बातों में बहस-झगड़ा, धक्का-मुक्की करते हैं और दृश्यों के दौरान कमेंट्स कर मजे करते हैं. फिर हिंदी फिल्मों में ऐसा ही क्यों होता है लेख में खासकर '90 के दशक के बॉलीवुड की मसाला फिल्मों में बार-बार नजर आने वाले ट्रेंड के बारे में लिखा गया है कि कैसे इनमें अमूमन हीरो शहरी बाबू होता था, हीरो गरीब और ससुर अमीर होता था, गुंडे बलात्कारी होते थे, जो सफल नहीं हो पाते.



अंत में लम्बे बालों वाले वाले लेखक को दो सलाह है - १) कृपा करके इसकी अगली कड़ी प्रस्तुत की जाय और २) एक बार वाइन को ज़रूर चखें.. ख़ुद को नहीं बल्कि दूसरों के मजे के लिए.. क्या पता लेखनी में और मजा आ जाय 😊