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Sunday, 24 August 2025

साहित्य और राज्य से इतर मिथिला


मिथिला के इतिहास के नाम पर अधिकांशतः साहित्य विवेचना ही देखी है। चूँकि मैंने कोई किताब नहीं लिखी, और न ही टीवी में आता हूँ, साहित्य से इतर मिथिला का संक्षित इतिहास लिखने की धृष्टता करते डर रहा हूँ। चीज़ें शायद विस्तार से भले न मिलें, क़रीने से भी न मिले किंतु जो हैं वो सच्ची हैं इसकी गारंटी लेता हूँ।

मिथिला की गाँव वापसी

सन १८१२ में पटना की जनसंख्याँ तक़रीबन ३ लाख थी और कलकत्ता की १.७५ लाख. १८७१ में पटना १.६ लाख और कोलकाता ४.५ लाख. पटना की तरह यही हाल भागलपुर और पुरनियाँ का भी रहा. कारण दो थे. इस दौरान अंग्रेजों की मदद से कलकत्ता में फला फुला उद्योग और बिहार/ मिथिला इलाके में देशी उद्योग के विनाश से लोगों का शहर से गाँव की ओर पलायन. मिस्टर बुकानन ने अपने सर्वे में १९ वीं सदी के बड़े हिस्से तक इस पलायन की पुष्टि की है. अंग्रेजी शासन की दोहन निति के कारण शहर के उद्योग धंधे नष्ट होते गए और लोग गाँव में वापस आते गए.

इसका परिणाम गाँव के घरेलु उद्योग और कृषि क्षेत्र में उन्नति लेकर आया. दुष्परिणाम सिर्फ इतना की गाँव में काम कम और लोग ज्यादा हो गए. इस क्रम में अति तब हुई जब अंग्रेजों ने गाँव की जमीन का दोहन भी आरम्भ किया... १८५७ की क्रांति में सरकार के खिलाफ ज्यादा लोगों का जुटना संभवतः इसी करण हुआ. लोग शहर में मारे गए और गाँव में भी शुकुन से न रह पाए तो विरोध लाजिमी था. ऊपर से कुछ स्थानीय लोगों द्वारा अंग्रेजों की चमचई...

इसको लिखने का कारण सिर्फ इतना की मुझे इसी प्रकार की घुटन आज के हिन्दुस्तान में दिखती है. मुझे लगता है की लोग गाँव वापस जायेंगे... गाँव छोटे उद्योग धंधों, शिक्षा और व्यापार का केंद्र बनेगा... सरकारें जलेंगी...

दलान

उद्योग व् पलायन

अक्सर लोगों से सुनता हूँ, बिहार और मिथिला का खस्ता हाल है... लोग खतरनाक तरीके से पलायन कर रहे हैं... ब्ला ब्ला ब्ला. जरा अन्दर घुसिए तो पता चलता है की मिथिला से पलायन का इतिहास हजारों वर्ष पुराना रहा है. विद्वान, व्यापारी, मजदुर... सब बेहतर पारितोषिक के लिए बाहर जाते रहे. इतिहासकारों ने इस बात का सबुत ८०० वीं ईस्वी से बताया है.

जूट, नील और साल्ट-पिटर के नजदीकी उत्पादन क्षेत्रों (फारबिसगंज, किशनगंज दलसिंहसराय आदि) में मजदूरी के अलावा लोग मोटिया या तिहाडी मजदूरी करने नेपाल, मोरंग, सिल्लिगुड़ी और कलकत्ता भी जाते रहे हैं. श्री जे सी झा ने अपनी किताब Migration and Achievements of Maithil Pandits में लिखा है - मैथिल पंडित बेहतर अर्थ लाभ के लिए देश के अन्य क्षेत्रों में जाते रहे हैं.

हालाँकि तब और अब के इस पलायन में फर्क है. तब लोग मूलतः वापसी में अपने साथ कृषि की नई तकनीक सीख कर, स्वस्थ जीवन जीने के गुर सीखकर, घरेलु उद्योग लगाने की नई तकनीक सीख कर आते थे. जबकि अब हम छोटे कपडे, कान फाडू पंजाबी संगीत, प्रेम त्रिकोण और धोखेबाजी की नई तकनीक ज्यादा सीखते हैं.

इस दौर में एक वक़्त मिथिला क्षेत्र में उद्योग फला-फुला भी. अठारहवीं और उन्नीसवी शताब्दी में मिथिला के अलग अलग शहरों में विभिन्न उद्योग लगे. मधुबनी में मलमल, दुलालगंज व् पुरनियाँ में सस्ते कपड़ों का तो किशनगंज में कागज का उद्योग चला. दरभंगा, खगडिया, किशनगंज आदि ईलाका पीतल व् कांसे के बर्तनों के लिए जाना जाता था... भागलपुर सिल्क, डोरिया, चारखाना के लिए और मुंगेर घोड़े के नाल, स्टोव, जूते के लिए प्रसिद्ध था.

इन सबमे आश्चर्यजनक तरीके से पुरनियाँ तब भी काफी आगे था. कहते हैं पुरनियाँ का सिंदूर उत्पादन व् निर्यात तथा टेंट हाउस के सामान बनाने का काम विख्यात था. मेरे शहर दरभंगा के लोगों को बुरा न लगे इसलिए बताता चलूँ की दरभंगा शहर उस वक़्त हाथी दांत से बने सामानों का प्रमुख उत्पादन केंद्र था.


मिथिला में स्त्री

जितना पुराना इतिहास पुरुषों द्वारा मिथिला छोड़ने का रहा है ठीक उतना ही अकेली रहने वाली स्त्रियों के शोषण (विभिन्न स्तरों पर) का भी रहा. मैथिल समाज का छुपा हुआ किन्तु सत्य पक्ष है की स्त्रियाँ सताई जाती रही... परदे के पीछे यौन प्रताड़ना... लांछन... दोषारोपण... आदि करते हुए मैथिल समाज खुद को कलमुंहा साबित करता आया है.

इसका एक सकारात्मक पक्ष भी था. क्षेत्र में मैथिल स्त्रियों में शिक्षा का स्तर बढ़ा और वो स्वाबलंबी बनी. बिहार के औसतन ६% के सामने पूसा में स्त्री शिक्षा का दर १३%, सोनबरसा में ६%, मनिहारी में ९% थी. (जिन्हें % कम लग रहा है उनके लिए – १९९०-२००१ में यह दर २८% था)

स्वाभाविक रूप से गाँव की सत्ता स्त्रियों के हाथ में आ गई थी ऐसे में. गाँव की महिलाएं घरेलु उद्योग, पशु पालन आदि में आगे दिखने लगी थी. संभवतः गांधी का चरखा आन्दोलन इसी वजह से मिथिला के घर घर में पहुँच पाया.

समय के साथ साथ मैथिल स्त्रियों की दुनियां थोड़ी स्वप्निल बनाई गई जब दूर देश के सन्देश उसके पास भौतिक और काल्पनिक तरीके से पहुँचने लगे. इस रंग में भी भंग तब पड़ा जब पुरुष अपने साथ बीमारियाँ भी साथ लाने लगे.


मिथिला में जातियां

यहाँ हिन्दू परंपरा अपने प्रखरतम रूप में सभी जटिलताओं के साथ सदा विद्यमान रहीं. अलग जातियों के अलग अलग देवता और अलग गहबर होते थे. जातियों के देवताओं के नाम रोचक थे.

श्याम सिंह डोम जाति के, अमर सिंह हलवाई व् धोबियों के, गनिनाथ-गोविन्द हलवाइयों के सलहेस दुसाधों के दुलरा दयाल/ जय सिंह मल्लाहों के, विहुला तेली जाती के, दिनाभद्री मुसहरों के तो लालवन बाबा चमारों के देवता थे.

स्वाभाविक तौर पर सामाजिक कुरीतियाँ, अधविश्वास और धारणाएं ज्यादा थीं. तमाम् विरोधी उदाहरण के बावजूद ब्राम्हण, राजपूत या लाला विपदा में दुसाध, मुसहर के गहबर में जाते थे. जातियों के हिसाब से कार्य बंटे थे जो उत्तरोत्तर कम होते गए.

मिथिलांचल के कई इलाकों में मुसलमानों द्वारा मनाये जाने वाले ताजिये में हिन्दुओं का शामिल होना और हिन्दुओं के त्योहारों में मुस्लिमों के साथ होने के उदहारण भी हैं. कालांतर में हम समझदार होते गए और विषमतायें उग्र रूप धारण करने लगी.


ऐसे में यह स्पष्ट है कि हमें हमारे सीमित सोच से इतर मिथिला को बृहत् तौर पर देखे जाने की आवश्यकता है। मिथिला मात्र विद्यापति विद्यापति समारोह और प्रणाम मिथिलावासी और हमर मिथिला महान तक सीमित नहीं है। 

Sunday, 17 August 2025

मित्र धैर्यकांतक नाम लिखल एकटा पाती

२० अक्टूबर २०२२, पुणे
प्रिय धैर्यकाँत, 

काल्हि चारि मासक बाद अहां अपन मुखपृष्ठ पर लिखलहुं। अहां जखन लिखैत छी, हृदय सं लिखैत छी‌। अद्भुत लिखलहुं मित्र।

ई एकटा पैघ सत्य थिक जे लिखला सं मोन हल्लुक होइत छैक मुदा सत्य त' इहो थिक जे प्रश्न, उत्तर आ तकर प्रतिउत्तर सं वैह मोन फेर सं ओहिना भारी भ' जाइत छैक। अहां नीक करैत छी जे आब एहि सभ फेरी मे नहि पड़ैत छी।


ई सत्य थिक जे सोशल मीडिया पर जे किछु देखाइत छैक वास्तव मे असल जिनगी मे ओहेन किछु नहिए जकां होइत छैक। एतय अपन सभटा दुख, कष्ट, कमी आ कमजोरी कें नुका क' अबैत अछि लोक। हालाँकि एहि सभक कारण की हेतैक तकर जनतब नहि अछि हमरा मुदा, संभवतः एकटा होड़ आ प्रतिस्पर्धा हमरा जनैत सभसं पैघ कारण भ' सकैत छैक जाहि मे मनुक्ख कें कत' जयबाक छैक तकर ओकरा कोनो जनतब नहि। देखि रहल छी जे सभ पड़ाएल जा रहल अछि...एक-दोसर सं नीक देखेबाक लेल त' कियो स्वयं के बड्ड पैघ ज्ञानी प्रमाणित करबाक लेल... किछु गोटें त' अपनहि जिनगीक एकांत अवस्था भ्रमित करबाक लेल लिखैत अछि। 

हमरा लगैत अछि जे हम सभ एकटा मुखौटा पहीरि लेने छी आ कतहु ने कतहु ई मुखौटा संभवतः आवश्यको अछि। जिनगी जीबाक लेल। बिना आवरण कें संभवतः अहां नकारि देल जाइ, अहांक अपनहि लोक अहांकें चिन्हबा सं मना क' देथि, कारण हुनका सभक लेल अहाँ जे आवरण धारण कयलहुं ओ सभ अहाकें आब ओही आवरण मे देखय चाहैत छथि। कियो अहांक वास्तविक रूप अथवा अहांकें स्वयं कें आवश्यक रूप मे नहि देखय चाहैत अछि। एहेन स्थिति मे हम सभ 'जॉन'क ओहि शेर कें मोन पाड़ि जीबैत जा रहल छी जे - 

"कितने दिलकश हो तुम कितना दिलजूं हूँ मैं, 
क्या सितम है कि हम लोग मर जाएंगे" 

हं, संभवतः इएह सोचि क' जे संसार त' दू दिनक मेला अछि, मरबाक अछिए तखन किए शत्रुता मोल ली! त' साहस करैत हम सभ आवरण धारण कयने रहैत छी।

हं, अहां सही छी जे जखन मनुक्ख स्वयं कें अपनहि द्वारा परिभाषित सांच मे गलत पबैत अछि त' ओ अलग-अलग युक्ति ताकय लगैत अछि आ ओकरा अजमाबय लगैत अछि। जल्दीसं सभ किछु सरियाबै के प्रयत्न करै मे ओ सभ किछु आधा-अधूरा छोड़ैत जाइत अछि। ओकरा लगैत छैक जे ई सभ त' बाद मे क' लेब मुदा ई सभटा आधा काज ओकर कान्ह पर बोझ बनैत चलि जाइत छैक। ओ झुकि क' चलै लगैत अछि, हेराएल जकां रहैत अछि,सिगरेट आ शराब कें अपन मित्र बूझय लगैय अछि। ओकर आंखिक नीचां गहींर होइत जाइत छैक,ओकर अपन सभटा व्यवस्था खराब होइत जाइत छैक दोसरक व्यवस्था कें ठीक करबाक फेर मे।

हं, संबंध चाहे घरक होइ अथवा बाहर, अथवा सोशल मीडियाक, सभटा स्वार्थे पर आधारित रहैत छैक। जखनहि अहां स्वार्थ पूर्ति करब बंद कयलहुं कि ओ गधाक सींग जकां अहांक जीवन सं विलीन। ओ इहो नहि सोचत जे अहांक सेहो कोनो स्वार्थ भ' सकैत अछि। कोन ठेकान जे कोनो विवशता हुअए। हुनकर सभक हिसाबे विवशता त' हमर अपन अछि ने! ओ सभ चलि जाइत छथि कतहु आर आ... संभवतः कोनो आर व्यक्तिक दुनिया मे। हमर सभक दुर्भाग्य जे ओतय ओ हमर केलहाक चर्च करबाक स्थान पर हमर सोखर करबा मे लागि जाइत अछि। ओ हमर कुचिष्टा करबा धरि चैन नहि होइत अछि बल्कि हमर अस्तित्व समाप्त करबाक योजना मे लागि जाइत अछि। ओ ई प्रमाणित करबा मे लागि जाइत अछि जे ओ कोना हमरा लेल आवश्यक छल, हम नहि। एहि मे एक स्तर आगू हम इहो देखलियै जे जाहि व्यक्तिक सोझां हमर प्रशंसा होइत रहैत अछि ओ व्यक्ति हमरा संदर्भ मे एकटा अवधारणा बना लैत अछि। हमरा सं बिना कोनो गप कयने कोनो व्यक्ति कोना हमरा संदर्भ मे कोनो अवधारणा बना लैत अछि से नहि कहि मुदा, आइ-काल्हि ई बड्ड चलती मे छैक जे अहां किनको सं किछु सुनि क' हमरा संदर्भ मे राय बना लिअ। सोशल मीडिया पर किनको पढ़ि क' हुनकर आंकलन क' लिअ आ फेर मोनमोटाव क' लिअ। 

अहां लिखलहुं जे परिवार आ संबंध अहांक सोझां खाधि खूनि दैत अछि। शत-प्रतिशत त' एहेन नहि छैक मुदा हम सभ जतय सं छी ओतय एकर अनुपात बहुत अधिक छैक। कतेक उदाहरण देखने छियै हम जखन एकटा लड़का अपन परिवारक लेल स्वयं कें समाप्त क' लैत अछि आ ओकर परिवार ओकरा शाबाशी देबाक स्थान पर ओकरा सं जे काज नहि भेल रहैत छैक तकर उलहन देबय लगैत छैक। ओ की सभ कयलक से नहि बता क' ओ की सभ नहि क' सकल वैह कहल जाइत छैक, जाहि सं ओकरा मोन रहै जे ओ मात्र सहबाक लेल आ थोड़े आर काज करबाक लेल मात्र बनल अछि।

पैघ शहरक प्रेमिका सभ! आब एतेक उदाहरण देखि चुकलहुं जे एहि सभ पर हमरा किछु लिखतो लाज लगैए। ई मानि क' चलू जे 'दिल्ली एन सी आर'क प्रेमिका सभ प्रेम नहि करैत अछि बल्कि, अहांक मासूमियतक हिसाब सं अहांक जेब आ मानसिक शक्ति (...) कें खोखला होबाक बाट तकैत अछि। बस एतबै कहब जे जं प्रेम करबाक अछि त' बच्चा सभसं करू, महिला सभकें मित्र बनाउ। बेसी मोन हुअए त' केजरीवाल कें चंदा द' आउ अथवा स्वयं कें चॉकलेट, वाइन आदि गिफ्ट क' दिअ। मुदा दिल्लीक प्रेमिका! नहि-नहि! 

जनै छी! हमरा एहि सभ बात सभक कोनो ख़ास कचोट नहि अछि आ हमहूं अहीं जकां तकर कोनो परवाहो नहि करैत छी। जं हम भूखल छी त' हॅंसैत छी, पेट भरला पर कने आर हॅंसैत छी। तकर कारण जे अहाक भूखल रहबा सं सभ... हं, सभ! सभ हँसत आ अहांक पेट भरल बूझि हँसैत देखि क' लोक बूझत जे एकरा हॅंसबाक बीमारी छैक। असल मे चिन्ता कतय होइत छैक जे एहि कारण किछु प्रतिशत जे नीक लोक छथि, हुनको सभक भरोस समाप्त भ' जाइत छनि। गहूमक संग जेना जौ पिसाइत अछि ओहिना किछु प्रतिशत लोक पिसाइत रहथि। कियो हिनका सभ पर भरोस नही क' रहल। हुनका सभकें हुनकर सभक नीक कर्मक लाभ नहि भेटि रहल।

अहां त' जनैत छी बीतल समयक ओ सभटा बात जहिया हम बहुत कष्ट मे रही। किछु संकोच सेहो रहैत छल जे जिनका सभकें हमरा सं उपकारक आशा रहैत छलनि हुनका सभकें हम कोना कहियनि जे हम मदति लेबाक स्थिति मे पहुंच गेल छी। हालाँकि तैयो जे सभ हमर लगीच रहथि ओ सभ अयलथि, हमर परिवार हमर संग ठाढ़ छल। हमर दुःख कें बुझलक, हमर तकलीफ मे साझी बनल आ पूछैत रहल। कियो एतय त' कियो कोनो अन्य पैघ शहर मे, अथवा कियो विदेश मे। जनै छी! एक राति डेढ़ बजे कियो हमरा अमरीका सं फोन कयलनि आ कहलनि - " प्रवीण, अहांकें जे मदति चाही से कहू, हम तैयार छी... कहू त' हम आबि जाउ।" नीक लागल। 

हालाँकि हमरा ओतबै अधलाह लागल जखन बीतल १० मासक एहि संघर्ष मे आ संभवतः जीवनक सभसॅं पैघ लड़ाइ मे किछु गोटें या त' अनभिज्ञ बनि गेलथि अथवा जानि-बूझि क' हमरा सं कतिया गेलथि। पहिने त' हमर आदतिक हिसाब सं हम एहि सभक कारण स्वयं कें मानलहुं जे संभवतः हमरहि मे कोनो कमी रहल हैत। मुदा बाद मे अधिक मंथन कयलाक बाद बुझबा मे आयल जे नहि, ई सभ त' हमरा सं मात्र एहि लेल जुड़ल रहथि जे हम हिनकर सभक कोनो काज आबि सकी। अहां सही कहने रही - "प्रवीण जी, सोझ गप नहि करै बला सं दूर रहू।" 

धैर्यकाँत, हम आब ई निर्णय ल' लेलहुं अछि जे मात्र सुखक समयक मित्र कें त्यागि देब। हम जनैत छी जे अहां कहब कि हम त' सभ किछु स्वयं पर ल' किनको जीवन भरिक लेल नहि त्याग' चाहैत छी तें अहां सं ई सभ नहि होयत। त' भाइ हम इएह कहब जे हम ई प्रयत्न करब। कारण, बीतल दस मास (जकरा हम दस साल जकां जीलहुं) हमरा सिखा देलक जे हमहूं मनुक्ख छी। ओ मनुक्ख जे नीक-बेजाए बुझबा मे गलती क' सकैत अछि आ ओकरा एहि गलती कें सुधारि लेबाक चाही। किछु पुरान कें 'क्रॉस' आ किछु नब कें 'टिक' क' लेबाक चाही। परिणामक चिंताक बिना मुंह पर कहबाक चाही जे 'नहि साहेब! अहां नहि चाही।' चाहे कियो खराब मानि जाए, हमरा बताह बूझय, अभिमानी कहै अथवा कुलबोरन। 

लिखैत रहू,
अहांक शुभचिंतक,

प्रवीण

Saturday, 16 August 2025

"न त्वत्समश्चाभ्यधिकश्च् दृश्यते" - खट्टर काका के संस्मरण


मैथिली साहित्यक क्षितिज पर जाज्वल्यमान नक्षत्र सन अहर्निश प्रदीप्त सर्वाधिक लोकप्रिय रचनाकार प्रो.हरिमोहन झाक जन्म १८ सितम्बर १९०८ केँ वैशाली जिलाक कुमर बाजितपुर गाम मे भेल रहनि। हिंदी आ मैथिलीक लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकार जनार्दन झा जनसीदनक तेसर संतान प्रो. झा केँ संस्कार मे पांडित्य आ साहित्य परिवार सँ उपहार मे भेटलनि। बाल्यकालहि सँ 'ननकिङबू' केँ पिताक सानिध्य मे साहित्यक गहन बोध होएब आरंभ भए गेल रहनि आ खेलौनाक स्थान पर ओ शब्दालङ्कार सँ खेलाए लागल रहथि। कहबी अछि जे पिता-पुत्रक संवाद सेहो सानुप्रास पद्य मे होइत रहनि। 

प्रो. झा नियमित शिक्षा सँ दूर रहि पिताक साहचर्य मे विद्योपार्जन करैत रहलाह आ पंद्रह बरख धरि हिनक नामाकरण कोनो विद्यालय मे नहि कराओल गेल। पिताक संसर्ग मे रहैत 'ननकिङबू' पूर्ण मनोयोग सँ साहित्यिक अवगाहन करैत रहलाक आ 'अपूर्णे पंचमेवर्षे वर्णयामि जगत्रयम' चरित्रार्थ करए लगलाह । विद्यालाय मे नामांकनक समय संस्कृत मे धाराप्रवाह वक्तृता सँ अचंभित गुरुजन समाज हिनक विशिष्ट प्रतिभाक आदर कएलनि आ हिनक नामाकरण सोझे मैट्रिक मे कराओल गेल आ १९२५ मे पटना विश्वविद्यालय सँ ई प्रथम श्रेणी मे मैट्रिकक परीक्षा उतीर्ण कएलनि। १९२७ मे इंटरमिडियटक परीक्षा मे तेजस्वी छात्र हरिमोहन बिहार आ उड़ीसा मे संयुक्त रूप सँ सर्वोच्च्य स्थान प्राप्त कएलनि । १९३२ मे दर्शनशास्त्र सँ स्नातक मे सर्वोच्च स्थान प्राप्त कए स्वर्ण पदक सँ विभूषित भेलाह आ १९४८ मे पटना कॉलेज मे प्राध्यापक नियुक्त भेलाह से आगाँ पटना विश्वविद्यालय मे प्रोफेसर तथा विभागाध्यक्ष पद केँ सेहो सुशोभित केलाह ।

बाल्यकालहि सँ साहित्यिक परिवेश भेटैत रहबाक कारणेँ साहित्य मे हिनक विशेष अभिरुचि स्वभावहि भए गेल रहनि। पिता जनार्दन झा जनसीदनक बहुतो काव्यक पहिल श्रोता प्रो. झा भेल करथि। एहि क्रम मे अपने सेहो पद्य रचब आरम्भ कए देने छलाह। पिताक संग भ्रमण मे रहबाक कारण सँ हिनका विभिन्न साहित्यिक विद्वान् ओ पंडित लोकनिक सानिध्य भेटैत रहलनि। जखन पित्तिक देख-रेख मे नियमित छात्रजीवन आरंभ कएलनि तँ हिनक 'पोएट्रिक' स्थान 'ज्योमेट्री' लए लेलक। बहुमुखी प्रतिभाक संपन्न प्रो. झा सदिखन अपन अध्यापक लोकनिक प्रिय पात्र बनल रहलाह आ नियमित अध्ययनक संग साहित्य सेहो पढ़िते रहलाह। ओना तँ साहित्यिक संसर्ग हिनका सबदिना भेटैत रहलनि मुदा प्रो. झा जखन लहेरियासराय पुस्तक भंडार मे रहब आरम्भ कएलनि तखन आचर्य रामलोचन शरणक रूप मे हिनका एकगोट आदर्श साहित्यिक गुरु भेटि गेलनि। एहिठाम सँ ओ साहित्यिक क्षेत्र मे मुखर भए प्रवेश कएलनि। 

पुस्तक भंडार ताहि समय मे महत्वपूर्ण साहित्यिक केंद्र केँ रूप मे स्थापित भए गेल छल जाहि ठाम ओहि समयक अधिकांश विद्वतजनक आन- जान होइत रहैत छल। प्रतिदिन संध्या काल मे विभिन्न साहित्यिक पक्ष पर एहिठाम परिचर्चा होइत छल। एकर खूब अनुकूल प्रभाव प्रो. झाक साहित्यिक जीवन पड़ भेलनि आ हुनक साहित्यिक विकासक श्रीवृद्धि होबए लगलनि आ हिनक आरंभिक रचना सभ मैथिलीक पत्रिका 'मिथिला' मे प्रकाशित होइत रहलनि। मैथिलीक सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यास 'कन्यादान' एही पत्रिका मे पहिलुक बेर क्रमशः छपैत रहल। एही समय मे हिनक किछु छात्रोपयोगी पोथी सभ सेहो प्रकशित भेलनि यथा 'तीस दिन मे संस्कृत' ,'तीस दिन मे अंग्रेजी' आदि। ई पोथी सभ अपन रोचक शैली आ तथ्यक सहजताक कारण सँ छात्र लोकनिक बीच बहुत प्रसिद्ध भेल छल।

हरिमोहन झा जाहि समय मे रचना करैत छलाह से साहित्यिक आ सामाजिक उत्थान आ जनजागरणक समय रहैक । लोकक परिपेक्ष आ सरोकार मे परिवर्तन होएब आरम्भ भए गेल छलैक। एहि प्रभाव सँ समुच्चा विश्व एकटा नव वैचारिक परिवेश मे प्रविष्ट कए रहल छल। वैश्विक प्रभाव सँ भारत मे सेहो एकाधिक रूप मे परिवर्तन दृष्टिगोचर भए रहल छलैक । एहि परिवर्तनकारी समयक प्रभाव मे हिनक लेखनी मे समकालीन समाज मे पसरल धार्मिक रूढ़ीपंथ केर वर्णन प्रखरतम रूप मे भेटैत अछि। एहि समय मे सामान्यतः दूगोट विचारधारा मुख्य रूपेँ सक्रीय छलैक । एकटा वर्ग पाश्यात आदर्श केँ अपनबैत अपन समाज केँ पुनर्गठित आ चेतना सम्पन्न करबाक आग्रही छल तँ दोसर दिस किछु लोक अपन गौरवमय अतीत सँ सकारात्मक तत्व सबकेँ लए ताहि प्रवाभ केँ समेटैत समाज केँ पुनर्गठित आ चेतना सम्पन्न बनेबाक आग्रही छल। मिथिला पर एहि पुनरोत्थान प्रवित्ति केँ विशेष प्रभाव पड़लै। दोसर वर्ग जे पहिलुक स्थापित व्यवहारक सीमा मे रहैत सुधार चाहैत छलाह तिनकर सीमा के तोरैत हरिमोहन झा धर्मसातर पर प्रहारक रुख अपनौलनी। 

हुनक साहित्य में बुद्धिवाद और तर्कवाद केर सर्वोपरि स्थान भेटैत अछि आ हुनक धारणा रहैन जे तर्क नहि कए सकैत अछि से मूर्ख अछि। हिनक रचना मे एक दिस बौद्धक दुख:वाद केर प्रभाव तँ दोसर दिस चार्वाक केर दर्शनक प्रभाव भेटैत अछि। हिनकर लेखनी मे वर्ण व्यवस्थाक निंदा,दलित विमर्शक पक्ष,सामंती शोषणक विरोध आदि बड़ कम भेटैत अछि,तें हिनका मार्क्सवादी किंवा जनवादी तँ नहि मानवतावादी कहब बेसी युक्तसङ्गत होएत आ से हिनक रचना कन्याक जीवन आ पांच पात्र मे देखल जा सकैत अछि। ई धार्मिक पाखंड केँ अपन लेखनीक जड़ि बनौलनि आ किंसाइत एहि केँ सभक बीज मानि साबित करबाक यत्न कएलनि जे नाक एम्हर सँ छुबु वा उम्हर सँ बात एक्कहि।

अपन रचना काल मे प्रो. झा करीब दू दर्जन पोथीक रचना कएलनि। ई मूलतः गद्यकार छलाह। हिनकर लिखल मैथिली कृति मे विशेषतः उपन्यास आओर कथा अछि । यद्यपि पंडित झाक कविता सेहो ओतबे मनलग्गू आ प्रभावकारी होइत छल। कविता सभ मे व्यंग केर माध्यम सँ सामाजिक व्यवस्था पर प्रहार करैत हिनक कविता ढाला झा ,बुचकुन बाबू, पंडित आ मेम आदि सभ एखनहुँ प्रासंगिक अछि । हिनका द्वारा लिखल गेल उपन्यास सभ मे कन्यादान आ द्विरागमन सबसँ बेसी प्रसिद्ध अछि। बस्तुतः ई एके उपन्यासक दू भाग कहल जएबाक चाही । कथा संग्रह सभ मे प्रणम्य देवता,चर्चरी आ रंगशाला प्रमुख अछि । एकर अतिरिक्त हिनक आत्मकथा 'जीवन यात्रा' जे साहित्य अकादमी सँ छपल आ एहि पोथी पर पंडित झाकेँ मरणोपरांत साहित्य अकादमी पुरस्कार देल गेलनि। हिनक रचना सभ 'हरिमोहन झा रचनावली' नाम सँ सेहो प्रकाशित भेल अछि। हिनक सर्वश्रेष्ट कृति भेलनि 'खट्टर काकाक' तरंग' जकर अनुवाद कतेको भाषा मे भेल। प्रो. झा दर्शनशास्त्रक उद्भट विद्वान छलाह। एहि विषय मे हिनक सेहो किछु महत्वपूर्ण पोथी आ अनुदित पोथी सभ अछि। जाहि मे न्याय दर्शन(१९४०), निगम तर्कशास्त्र (१९५२),वैशेषिक दर्शन (१९४३),भारतीय दर्शन (अनुवाद १९५३) आ ट्रेन्ड्स ऑफ लिंग्विस्टिक एनेलिसिस इन इंडियन फिलोसोफी । एहि सभ मे हिनकर शोध ग्रंथ - “ट्रेन्ड्स ऑफ लिंग्विस्टिक एनेलिसिस इन इंडियन फिलोसोफी” सर्वाधिक प्रसिद्ध अछि। हिनक किछु रचना संस्कृत मे सेहो भेटैत अछि जाहि मे 'संस्कृत इन थर्टी डेज ' आ 'संस्कृत अनुवाद चंद्रिका' छात्रोपयोगी आ प्रसिद्ध अछि। एकर अतिरिक्त प्रो झा कतिपय पोथी/पत्रिकाक सम्पादन कएल जाहि मे 'जयंती स्मारक प्रमुख अछि।

प्रो.झा द्वारा लिखल कथा आ ताहि मे वर्णित पात्र लोकक स्मृति मे सहजहि घर करैत अछि आ किछु पात्र तँ एतेक प्रचलित भेल जकर उदहारण एखनहुँ लोकव्यवहार मे अकानल जा सकैत अछि। चाहे तितिर दाई होथि वा खटर काका। के एहन मैथिलीक पाठक हेताह जे एहि पात्र सँ अवगत नहि हेताह। वस्तुतः प्रो झा केँ अपन भाषा पर ततेक मजगूत पकड़ छनि जे अपन शब्द विन्यास सँ कथानक केँ नचबैत लोकक स्मृति मे अपन विशिष्ट स्थान बनबैत अछि। अपन कथा सभ मे क्लिष्ट संस्कृतक शब्द सभक परित्याग करैत लोक मे प्रचलित शब्द आ फकड़ा आदिक प्रयोग करैत रचना सभ केँ जनसामान्यक लगीच अनैत अछि। गामक ठेंठ शब्द आ गमैया परिवेशक वर्णन करैत सामाजिक कुरुति पर व्यंगक माध्यमे अपन भाषाक निजताक पूर्ण व्यवहार करैत अमर रचना सभ करैत रहलाह। रचना सभ पढ़ैत काल वर्णित घटनाक्रम सद्य: घटित आ वास्तविक प्रतिक होइत अछि। पढ़ैत काल कखन हँसी छुटत आ कखन आँखि नोरायत ई अटकर कठिन भए जाइत अछि। 
हिनक रचना सभ मे परिवर्तनक स्वर उठैत अछि। नव परिवेशक झाँकी प्रस्तुत करैत अछि। पाठक केँ उचित -अनुचित सँ अवगत करबैत ओकरा अपन स्वत्व केँ चिन्हबाक मादे प्रेरित करैत अछि। ग्रामसेविका,मर्यादाक भंग ,ग्रेजुएट पुतौह एहने भूमिका मे लिखल कथा सभ अछि जे एकटा परिवर्तित समाज आ ताहि मे स्त्रीक भूमिका केँ सोंझा अनैत अछि। सामाजिक रूढ़ता पर प्रहार करैत कथा कन्याक जीवन , परिवारिक सामंजस्य आ मध्यम वर्गीय परिवारक सुच्चा चित्रण करैत कथा पंच पत्र आ मिथिलाक व्यवहार सँ परिचित करबैत कथा तिरहुताम सन अनेको कथा सभ अपन संवाद शैली आ कथ्य केर लेल विश्व साहित्यक कोनो भाषा केँ समक्ष ठाढ़ होएबाक सामर्थ्य रखैत अछि।

प्रो.झाक पत्र लिखबाक शैली सेहो विलक्षण रहनि। पिता,अग्रज,माए,पुत्र आ पत्नी सँ नियमित पत्राचार होइत छलनि।आगाँ साहित्यिक पत्राचार सेहो खूब होबए लगलनि। एहि पत्र सभ मे एकदिस प्रो.झाक व्यक्तिगत जिनगी केँ बहुत लगीच सँ देखल जाए सकैत अछि तँ दोसर दिस समकालीन परिदृश्य आ परिस्थितिक केँ सेहो फरीछ अवलोकन होइत अछि। आत्मीय भाषा शैली आ लेखनी मे निहित आपकता सहजहि आकर्षित करैत अछि। हिनक एहि विधाक विलक्षणता दू गोट कथा मे खूब प्रमुखता सँ उजागर भेल अछि। पहिल कथा अछि पाँच पत्र आ दोसर अछि दरोगाजीक मोंछ। पाँच पत्र कथा मे पांच गोट छोट -छोट पत्रक सङ्कलन अछि आ विशेषता ई जे पांचो पत्र विभिन्न मनोभावक मे एकटा समयांतरक संग लिखल गेल अछि। कथाक स्वरुप एकदम छोट अछि मुदा जँ भाव पक्षक विस्तार करी तँ एकटा सम्पूर्ण महाकाव्य बनि सोझाँ अबैत अछि। अभिव्यंजनाक शैली मे लिखल ई कथा अपन विशिष्ट शैलीक कारणे मैथिली साहित्य मे पृथक स्थान रखैत अछि। एहि मे निहित यथार्थक बोध ,करुणा ,सम्बन्धक गरिमा ओ आत्मीयता ,वैवाहिक जीवन आ पारिवारिक स्थिति एकहि संह मुखर भए पाठकक सोझाँ अबैत अछि। दोसर कथा अछि दरोग़ाजिक मोंछ। एहि मे संशय आ द्वन्द केर चित्रण भेल अछि जकर जड़ि मे रहैत अछि एकगोट अधटुकड़ी पत्र। ई कथा अपन रोचक सस्पेंश आ विलक्षण शिल्पक एकगोट माइलस्टोन ठाढ़ करैत अछि। प्रो.झाक केँ डायरी लिखब सेहो खूब रुचैत रहनि। प्रतिदिन किछु ने किछु लिखथि। अपन विचार सभकेँ 'My Stray Thoughts' शीर्षक सँ नोटबुक मे लिखल करथि। एहिसभ विधा मे लिखल रचना सभ संकलन आ प्रकाशनक माँग करैत अछि जाहि सँ पाठक अपन लोकप्रिय साहित्यकार केँ आओर लगीच सँ जानि सकताह।

हरिमोहन झाक गद्य सँ हमरा लोकनि खूब नीक सँ परिचित छी। एहन विरले मैथिली साहित्यानुरागी होएताह जे हिनक कथा सँ परिचय नहि हेतनि। गद्यक तुलना मे हिनक पद्य सँ पाठकक परिचय कम भेल अछि। हिनक गद्य ततेक लोकप्रिय भेलनि जे एहि आलोक मे हिनक पद्य हराएल सन लगैत अछि। बाद मे हरिमोहन झा रचनावली भाग ‍१ सँ ४ धरि प्रकाशित भेल आ रचनावलीक चारिम भाग मे हुनक ओ कविता सभ संकलित कएल गेल जे प्रणम्य देवता ओ खट्टर ककाक तरंग नामक पोथीमे नहि आएल छल। हरिमोहन झा समय-समय पर कविता सेहो लिखैत रहलाह जे विभिन्न समकालीन पत्र - पत्रिका सभ मे प्रकाशित होइत रहल। 

मिथिला मे व्याप्त आडम्बर, अर्थाभाव, परिवर्तित होइत समय आदि विभिन्न विषय पर लिखल हिनक कविता सभ अपन विलक्षण शिल्प आ अद्भभुत शैलीक हेतु सर्वथा पठनीय आ चिंतनीय अछि। हरिमोहन झाक कविता सभ सेहो हुनक कथे जकाँ हास्य-व्यंग सँ ओतप्रोत अछि। एहि व्यंगक ई विशेषता अछि जे ई अपन साहित्यिक गरिमाक निर्वहण करैत एकटा नव दृष्टिकोण पाठकक सोझाँ अनैत अछि। स्थापित चलन ओ कोनहुना ढोआ रहल परिपाटीक विरोध जखन एहि विधाक संग पद्य मे अबैत अछि तँ मनलग्गू होएबाक संगहि एकटा गंभीर विमर्श ठाढ़ करैत अछि जाहि मे समकालीन परिस्थितिक संग आँखि मिलेबाक खगता अभरैत अछि। प्रो.झाक कविता कतेको कवि सम्मलेन आ कवि गोष्ठीक आकर्षण रहल अछि।

प्रो झाक जीवन एकटा स्फुट किंवदंती सँ कम नहि कहल जाए सकैत अछि। प्रो.झा सँ संबंधित बहुतो संस्मरण सभ भेटैत अछि। एहि संस्मरण सभ मे हुनकर व्यक्तित्वक विलक्षणता ,आशु प्रतिभा, नामक धाख,साहित्यिक ओजन ,लिखबाक सनक आ अधीत विद्वताक परिचय भेटैत अछि। हिनक सद्यः स्फूर्त कविताक विषय मे एकगोट प्रचलित संस्मरण एहि प्रकार सँ अछि। जखन ई बीस बरखक रहथि तखन भारतीय हिंदी साहित्य सम्मलेनक अधिवेशन ( मुज्जफ्फारपुर) हरिऔधजीक अध्यक्षता मे भेल रहैक आ मंच पर रामधारी सिंह दिनकर,गोपाल सिंह नेपाली,राम वृक्ष बेनीपुरी सन उद्भट विद्वान सभ उपस्थित रहथिन। एहि बीच एकटा ठेंठ भोजपुरिया कवि मंच पर आबि तिरहुतिया केँ बनबए लगलाह आ कविता पाठ करैत कहला : "अइली अइसन तिरहुत देस/मउगा अदमी उजबुज भेस// मन लायक भोजन न पैली,चुडा दही फेंट कर खैली। एकर उतारा मे प्रो. झा अपन कविता मे कहलखिन -"भोजपुरिया सब केहन कठोर ,पुछैथ तसलबा तोर की मोर// सतुआ के मुठरा जे सानथि,चुडा दहिक मर्म की जानथि। सभा भवन करतल ध्वनि सँ गूँज उठल,हरिऔध जी माला पहिरौलखिन,बेनीपुरी जी बजला बचबा खूब सुनाओल,थएथए भ गेल ,आ भोजपुरिया कवि भरि पाँज कए धए कहलखिन आब तिरहुतक लोहा मानि गेलहुँ। ` 

एहने एकटा आओर संस्मरण अछि। एक बेर आकाशवाणी मे प्रतिभागीक चयन करबाक लेल हिनका जज चुनल गेल रहनि। एकटा गायक ऑडिशन मे समदाउन उठओलक "बड़ रे जतन सँ सिया दाए कें पाललहुँ , सेहो रघुबर लेने जाय।" से तेना खिसिया कए गौलकैक जे बुझाए सियाजीक पोसबाक खरचा माँगि रहल हो। जखन हरिमोहन झाकें पूछल गेलनि जे समदाउन केहन लागल तँ ओ अपन उत्तर मे कहलखिन जे हिनक विधा सँ सम हटा दियौ, ई दाउने टा कए रहल छथि।

मैथिली साहित्य मे विद्यापतिक बाद सबसँ लोकप्रिय जँ कोनो साहित्यकार भेलाह तँ से थिकाह हरिमोहन झा। हिनका द्वारा बनाओल साहित्यिक पात्र सभ आमलोकक बीच खूब प्रचलित भेल। जिनका साहित्यिक रूचि नहिओ रहनि सेहो लोकनि एहि पात्र सभसँ परिचित छलाह आ सामाजिक विभिन्न पक्ष केँ एहि पात्र सभक माध्यम सँ बूझैत छलाह। कोनो साहित्यकारक सभ सँ पैघ उपलब्धि ई होइत छैक जे ओकर रचनाक प्रभाव सँ किछु सकारात्मक परिवेशक निर्माण समाज मे होइ आ ई उपलब्धि तखन आओर विशिष्ट भए जाइत छैक जखन रचनाकार केँ प्रत्यक्ष रूप सँ ई दृष्टिगोचर होइत छैक। प्रो. झाक साहित्यक लोक पड़ अकल्पनीय प्रभाव पड़लैक। कन्यादान पढ़लाक उपरान्त बहुतो युवक लोकनि अपन विवाह मे टाका नहि लेलनि। गामक कतेको कन्या लोकनि बुच्चीदाइ सँ प्रभावित भए आधुनिक शिक्षा लेबाक लेल अग्रसर भेलीह। जाहि अभिजात्य वर्गक किछु लोक हिनक विरोध करैत छल ,हिनक साहित्य केँ अश्लील कहैत छल ताही वर्गक बहुतो माए लोकनि अपन कन्याक विवाह मे 'कन्यादान' पोथी साँठए लगलीह। एहन कहबी अछि जे अभिजात्य पंडित वर्ग प्रो. झाक साहित्यक दिन मे खिधांस करैत छलाह ओ लोकनि राति मे लालटेन मे हिनक साहित्य पढ़ैत छलाह। प्रो. झा मिथिला मे व्याप्त आडम्बर,स्त्री शिक्षाक प्रति उदासीनता, कन्या विवाह आ बहु विवाह सन स्थापित कुरीति आ जाति-धर्मक विभेद मे ओझराएल समाजक विभिन्न आयाम केँ अपन साहित्य मे उजागर करैत,अपन तर्क सँ ओकरा खंडित करैत, ताहि सँ होबए बाला हानि केँ उजागर करैत सहज भाषा आ मनलग्गू संवाद शैली मे पाठक धरि आनि एकदिस सूतल समाज मे चेतनाक विस्तार कएलनि आ दोसर दिस मैथिली कथा साहित्य केँ मजबूती दैत स्थापित सेहो कएलनि।

जहिना विद्यापति मैथिली पद्य केँ स्थापित कएलाह आ एकरा आमलोक धरि पहुँचा साहित्यिक प्रतिष्ठा प्रदान कएलनि तहिना हरिमोहन झा मैथिली गद्य केँ एकटा नव आयाम दैत बेस पठनीय बनओलनि आ मैथिली गद्यक विद्यापति कहेबाक अवसर पओलनि। मैथिलीक श्रीवृद्धिक लेल आजीवन साकांक्ष रहल प्रो. झा द्वारा लिखल उपन्यास 'कन्यादान' पर पहिल मैथिली सिनेमा सेहो बनल। एखनधरि मैथिली मे सबसँ बेसी पढ़ल जाए बला लेखकक गौरव सेहो हिनकहि प्राप्त छनि। हिनक बहुत रास पोथी आब अनुपलब्ध भए रहल अछि आ एहि पोथी सभक मात्र फोटोकॉपी उपलब्ध भए पबैत अछि। एहि मादे विशेष पहल करबाक खगता अछि। मैथिलि भाषा केँ स्थापित करबा मे, लोकप्रिय बनएबा मे, एकर एकगोट बजार विकसित करबा मे हिनक योगदान अभूतपूर्व छनि । ई काव्य शास्त्र विनोदेना बला उक्ति केँ पूर्णतः सत्यापित करैत काव्य, शास्त्र आ विनोद तीनू पर सामान अधिपत्य रखैत अपन रचना सभ मे दिगंत धरि जिबैत २३ फ़रवरी १९८४ केँ देहातीत भेलाह। जिनकर एक कान मे सदति वेदक ऋचा गुंजायमान होइत रहलनि आ दोसर कान मे फ्रायड किंवा चार्वाकक सूक्ति समाहित रहनि, जे विनोद मे खट्टर कका रहथि आ दर्शन मे विकट पाहून, जिनका पर कन्यादान दायित्व रहनि आ तकर जे द्विरागमन धरि निर्वाह कएलनि,मैथिली साहित्यक एहि पितृ पुरुषक आयाम केँ प्रणाम।

सन्दर्भ :
१.देसिल बयना –हरिमोहन झा विशेषांक
२.अंतिका – हरिमोहन झा विशेषांक
३. हरिमोहन झा रचनावली
४. जीवन यात्रा
५ . बिछल कथा

विकास वत्सनाभ

आरएसएस आ स्वतंत्रता संग्राम - संक्षिप्त विवरण


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के स्थापना 1925 मे डॉ॰ केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा नागपुर मे भेल छल। संगठनक मुख्य उद्देश्य हिंदू सभके एकजुट करबाक आ समाजक नैतिक मूल्य सभके सुदृढ़ करबाक छल। ध्यान देबऽ जोग बात ई जे स्व. हेडगेवार स्वयं पहिले कांग्रेस-नेतृत्व वाला राष्ट्रीय आंदोलन में सहयोगी छलाह आ ओ लोकमान्य तिलकक विचार सँ बेसी प्रभावित छलाह। विद्यार्थी जीवन मे ओ ब्रिटिश शासनक खिलाफ बहुत आंदोलन मे भाग लेने छलाह जाहि में असहयोग आंदोलन (1920–22) सेहो शामिल अछि।

संघ केँ लय विरोधी इतिहासकार सभक दृष्टिकोण अलग छल। बहुतों इतिहासकार मानैत छथि जे स्थापनाक बाद आरएसएस सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930–34) अथवा भारत छोड़ो आंदोलन (1942) सन नमहर आंदोलन मे भाग नहि लेने छल। हुनक सबहुक मतानुसार ताहि समय संगठन राजनीतिक टकरावक बजाय सामाजिक कार्य, अनुशासन आ वैचारिक प्रशिक्षण पर बेसी ध्यान देने छल। 1930–40 दशकक ब्रिटिश खुफिया रिपोर्टक मुताबिक़ आरएसएस केँ राजनीतिक रूप सँ ब्रिटिश शासनक लेल खतरा नहि मानल गेल छल। बल्कि संगठन समाज सुधार, भविष्यक भारत आ हिंदू एकजुटता के लय के बेसी मुखर छल। 

अहि सभ में पूर्वोत्तर राज्य आ पटना में व्याप्त देह व्यापार रोकब आ तखन के पाकिस्तान में स्त्री सब के सुदृढ़ आ एकजुट करब आरएसएस महिला विंग के प्रमुख काज छल। 

आरएसएस समर्थक आ ओहि सँ जुड़ल इतिहासकार मानैत छथि जे संगठन अप्रत्यक्ष रूप सँ स्वतंत्रता संग्राम में अपन योगदान देने छल। संघ सामाजिक अनुशासन, एकता आ राष्ट्रीय गौरवक भावना जागृत करब, जकरा ओ औपनिवेशिक शासनक खिलाफ दीर्घकालीन तैयारीक हिस्सा मानैत छलाह- अहि दिशा में प्रयासरत छलाह। अहि वर्ग के इतिहासकार लोकनि हेडगेवारक स्वतंत्रता आंदोलन में व्यक्तिगत योगदान आ किछु स्वयंसेवक द्वारा क्रांतिकारी गतिविधि सह स्वतंत्रता संग्राम संगठन में शामिल हेबाक बात सेहो कहैत छथि।

सारांश ई जे प्रत्यक्ष सशस्त्र वा जन-राजनीतिक संघर्ष में आरएसएसक भूमिका सीमित रहल मुदा अप्रत्यक्ष योगदानक तौर पर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, सामाजिक एकता आ नैतिक दृष्टि सँ समाजक तैयारी द्वारा राष्ट्र-निर्माण में संघ के भूमिका मुखर आ अग्रणी रहल।

Monday, 7 April 2025

हमारी अवधारणाओं से ऊपर - मिथिला की रणभूमि


हमारी छोटी उम्र में नग्नता हमें उत्तेजना दिया करती है। युवावस्था में यही मौज हमें भौतिक (शारीरिक) सुख देता है और प्रौढ़ावस्था में इसकी प्राप्ति के लिए हमें उपलब्धियां, सुकून और नयापन का साथ चाहिए होता है।

जी नहीं, न तो मैं काम शास्त्र पर कोई शोध कर रहा हूँ और न ही मुझे कोई खास चाहत या फिर कोई कमी ही है मेरे अंदर। मैं बस यह कहना चाहता हूँ कि उम्र के हिसाब से आपकी समझ बूझ, आपकी स्वीकार्यता और आपकी इच्छाएं बदलती हैं।

दरअसल यही बात मैंने साहित्य को पढ़ते महसूस किया है। एक ही तरह के साहित्य का अलग अलग अवस्थाओं में अलग अलग असर होता है। जैसे जैसे आपकी समझबबूझ बदलती है (बढ़ती है नहीं लिखा है मैंने), हमारे लिए पढ़ी  पुस्तकों के मायने बदलते जाते हैं। इसका एक बहुत ही सहज उदाहरण है - मैंने शिवानी को लगभग 16-17 वर्ष की उम्र में पढ़ा और फिर 40-45 साल की अवस्था में फिर पढ़ा (जी नहीं, मेरी उम्र 50 साल है), दोनों ही समय मुझे इसका अलग अलग भावार्थ लगा। संभवतः बाद के दिनों में पढे को मैं समग्रता से समझ भी सका या यूं कहिए कि मैं साहित्यकार द्वारा किये अटेम्प्ट के सही इन्टेन्ट तक पहुँच पाया (मुझे पता है, "प्रयास के मर्म को समझ पाया" लिखना था यहाँ)। यह अवस्था संभवतः वह होती है जब आप बाह्य आवरणों के अंदर की बात भाँपने लगते हैं, जब आप चमक-दमक से आकर्षित नहीं होते हैं।

खैर, ऐसा विरले ही होता होगा जब आपकी उम्र (समझबूझ) के हिसाब से साहित्य पढ़ने को मिला हो आपको जब आपका और साहित्य का लेवल समानांतर हो... उदाहरणार्थ वो पल जब आपके मूड के हिसाब से ही पैग और सुट्टा मिल गया हो आपको।

संप्रति अभी मिथिला की रणभूमि पुस्तक को पढ़ते मुझे यही संयोग बनता दिखा। हमारी आम अवधारणायें हैं - हम विद्वान लोग, शास्त्र पुराण पढ़ने और सिखाने वाले लोग, भगवती को पूजने और महादेव से कार्य लेने वाले लोग, भगवान राम को गरियाने का अधिकार रखने वाले लोग, हमारी "अदृश्य" महानता का दंभ रखने वाले हम लोग। उफ्फ़ उफ्फ़ उफ्फ़ !  मेरी हो चुकी उम्र में भी जबकि कई बार उपेक्षा, अन्याय और सुविधाओं की अनउपलब्धता को देखकर मेरी भुजायें फड़कती हैं, कई बार ऐसा होता है जब खून की गर्मी सर तक जाती है किन्तु अपनी अवधारणाओं का ध्यान करके मैं चुप हो जाता रहा। 

ऐसे में इस किताब ने मुझे बल दिया जब मैंने पढ़ा कि हमारे मिथिला महान वाले इतिहास में इन अवधारणाओं के अलावा योद्धाओं और शस्त्र विद्या का पुट भी है। हमने न केवल मैथिली के माध्यम से संस्कृत पढ़ा है बल्कि हमने अस्त्र चलाना भी सीखा था। शास्त्र मात्र पढ़ने का लेबल लिए हमने वस्तुतः आत्मरक्षार्थ शस्त्र भी चलाया है।

जैसा कि मिथिला के सुपरिचित इतिहासकार अवनिन्द्र सर ने पुस्तक के प्राक्कथन में लिखा है - लेखक ने वैज्ञानिक तरीके से संदर्भों की प्रस्तुति तो की ही है, रेफ्रन्स देकर उसे प्रामाणिक भी किया है। लेखक (वस्तुतः शोधकर्ता) सुनील कुमार झा "भानु" जी सहरसा (मुझे दरभंगा वालों, गैर-मैथिल न कहना) के निवासी हैं। भोजपुरी, हिन्दी, अंग्रेजी, जापानी और मैथिली भाषा के जानकार भानु जी ई-समाद के प्रबंध न्यासी भी हैं जो इससे पहले "मंटुनमा" और "प्रेमक टाइमलाइन" लिख चुके हैं। 

कुल जमा 126 पृष्ठ की इस आकर्षक छपाई वाली इस पुस्तक की कीमत बिहार में मिलने वाले एक बियर बोतल के बराबर यानि मात्र 249 रुपया है जिसे ई-समाद बिना डाक खर्च के आप तक पहुंचाता है।

अन्य पुस्तक समीक्षाओं की तरह इसकी अधिक व्याख्या कर मैं पुस्तक का रोमांच कम नहीं करना चाहता... आप इसे पढ़ें, पढ़ाएं और कुछेक गरिष्ठ लोगों के बपौती से इतर और अवधारणाओं से ऊपर अपने वास्तविक मिथिला को जानें !

Wednesday, 15 January 2025

पाँच गोट मैथिली कविता - प्रवीण कुमार

बंधुगण, हम टोई टापि मैथिली लिखबाक प्रयास करैत छी। स्पष्ट जे, निम्नस्तरीय मैथिली लिखैत छी। ताहु में गद्य त थोडेक पढल लिखल अहियो, पद्य में हम भुसकोले। खैर, जे से... अग्रिम माफीक संग अपन पाँच टा कविता/ पद्य पसारबक धृष्टता कS रहल छी।

आई हम कविता लिखब !
(1)
हे, अहाँ छिटकले रहब !
कहु त, कतेब आब सहब,
हमहु अपन बात कहब
आई हम कविता लिखब।

असग़रे कतेक चलब
किनको संग त जियब-मरब
हमरो कियो मनायत आ हम लड़ब
आई हम कविता लिखब।

आब न पसारब, आ नहिये जोड़ब
हाथ फूल नहि जे नित तोड़ब
कतेक अहाँ'क ताल पर सुर हम छेड़ब
आई हम कविता लिखब।

सबटा कहब, पड़त सुनब
तपलहूँ, मुदा किएक जड़ब
कपार, पाथर कहाँ जे फोड़ब
आई हम कविता लिखब।

मथब, घोंटब, विचाराब
नोड़ायब, औनायब
नै आब बेसी विचारब
आई हम कविता लिखब।

हम कोशिश करैत छी
(2)
खुशिये मात्र टा रहि जाइक,
मोन सँ सबहक द्वेष-ईर्ष्या
सबटा छटि जाइक
हम कोशिश करैत छी

होइक सब मे प्रेम अगाध
पीठ मे नै
गाँथय कियो ककरो गाँथ
हम कोशिश करैत छी

होइक नै दुःख मन केँ कोनो मन सँ
हरियर रहय संसार सबहक
खिलय उपवन महकय चमन सँ
हम कोशिश करैत छी

सभ व्यक्त करौक अपना केँ
नहि रखौक भविष्य लेल राग कोनो
मन मे कहैत एलहुँ सब केँ
हम कोशिश करैत छी

ल' सकी दुःख सबहक माथ अपन
सहज रही तकलीफहु मे
मुस्काइत रहौक सब बिनु जतन
हम कोशिश करैत छी

होइक बँटवारा खुशीक सब मे बरोबरि
विषम होइक ने भंडार धनक
नै रहौक बाँचल मूलभूत चीज सँ कोनो नर
हम कोशिश करैत छी
...मुदा निराश भ' जाइत छी।

आदर्श लोक
(3)
आदर्श लोक'के भ रहल ओहिना विलोप
जेहिना पुरोहित आ हुनक माथक ठोप ॥

छद्म छवि आ ओहि के आभा मंडल
जेना रहौक विजेता'क मुकुट-मेडल

मंडन-विद्यापति केर नाम जपथि
चरित्-त्याग मुदा काते राखथि

सीता-अनसुइया केर जपथि नाम
देह-शृंगार' आगाँ कऽ जोड़थि दाम

झूठ-प्रपंच'क क्षणिक सु-फल
अमर्यादित मिथिला बनि रहल

पघिताय आ पागक मोह लय
बनथि विभूति, रत्न आ स्व'के जय

रोकत के, टोकत के आ के देखत आब
दूषित संस्कार सौं आह्लादित मिथिला साफ़े- साफ़ ॥

कॉफ़ी आ ‘ओ’
(4)
अक्कत तीत ब्लैक कॉफी
बेस्वाद, निरस सन्
ने मीठ आ नहिए नोनगर
मुदा तलब एहन की
जेना अहाँ के हो चाह ॥

गहिंर आ पकिया रंग
रसगर निर्मल निश्छल सुगंधि
आ पसरैत ओकर निंशा
जेना प्रीत अहां के ॥

झक्क अदत्त कप
दाग नै कोनो नहिये कथुक छाप
मुखमण्डल जेना अहाँ'के
आ व्यवहार अहि सन् ॥

भाप उठि रहल उन्मत्त
आ बूंद टूटैत कप'क कोर पर
मादकता जेना अहिंक
झहरैत पानि जेना केस सौं ॥

उसिनल आलू केर चोखा
(5)
उसिनल आलू केर चोखा
आ त'ब पर पकाओल टमाटर
संगहि कांच मिरचाई केर
छोट ओ टूक
अहिं सन सोन्ह्गर आ तीख

यादि में अहां के,
खा लईत छी हम
मेटा लईत छी अपन भूख
दफ्तर में बैसल
लैईत अझक झपकी आ सोचईत
आहां सन, की कैबता हमरो
भ जाईत नीक ?
~~~~~~~~~~~~~

Wednesday, 18 December 2024

अहाँ के अहाँ से निकालि नाटक बनायब - अकादमी को बधाई

मिथिला में उम्र का आखरी पड़ाव आसन्न देख लोग जल्दी जल्दी से यथासंभव पुण्य कर्म करने लगते हैं। उनकी कोशिश रहती है कि जीवन भर के गलत को यथासंभव सही कर लें, नहीं नहीं, मैं यह बिल्कुल नहीं कह रहा की मैथिली साहित्य अकादमी अपने उम्र के आखरी पड़ाव में हैं... हालांकि जिस हिसाब से पहले #मैथिली शिक्षा को समाप्त किया गया, फिर इसमें अवधि आदि को मिश्रित करने की साजिश हुई, इसे शास्त्रीय भाषा होने से दूर किओय गया... हालिया दरभंगा रेडियो स्टेशन से इसके प्रसारण पर रोक भी लगी, संभव है, मैथिली में साहित्य अकादमी भी समाप्त कर दिया जाए...

विषयांतर पर अवरोधक का इस्तेमाल करते हुए, वर्ष 2024 का मैथिली भाषा में मैथिली साहित्य अकादमी पुरस्कार आदरणीय महेंद्र मलंगिया सर को देने की घोषणा अकादमी द्वारा जीवन भर के किए पापों को कुछेक पुण्यों से ढंकने की कोशिश दिखती है मुझे। सर की पुस्तक प्रबंध-संग्रह को इस पुरस्कार के रूप में चयनित किया गया है। विभिन्न कारणों से पिछले तकरीबन दस वर्षों से विवादित रहा यह पुरस्कार इस बार निर्विवाद रूप से न केवल एक सुयोग्य व्यक्ति को दिया गया बल्कि इसे एक Delayed या फिर Justice Due की तरह का निर्णय भी कहा जाएगा।

मैथिली के सुपरिचित नाटककार, रंग निर्देशक एवं मैलोरंगक के संस्थापक अध्यक्ष महेंद्र सर ने जितना कुछ मैथिली साहित्य को दे दिया है उसे देखकर अकादमी ने उन्हें पुरस्कृत कर खुद को सम्मान दिया ऐसा कहना तो यथोचित होगा ही साथ साथ इस पुरस्कार की घोषणा के बहाने साहित्य अकादमी दो अन्य बातों के लिए भी बधाई का पात्र है -
  • पहली बात - इधर बीते कुछ वर्षों से फैल रहे मैथिली काव्य संस्कार के प्रदूषण से मुक्ति हेतु और
  • दूजी बात - 1991 में रामदेव झा रचित "पसिझैत पाथर" के बाद 33 वर्ष उपरांत नाटक केटेगरी में पुरस्कार हेतु।

मिथिला-मैथिली से रत्ती भर सरोकार रखने वाला भी महेंद्र मलंगिया जी से परिचित होगा ही। नाटक और उसके मंचन के लिए ख्याति सह जनस्नेह पा चुके महेंद्र सर का रचना संसार एक साहित्यकार द्वारा People Connect का श्रेष्ठ उदाहरण है। इस संबंध में एक डाक्यूमेंट्री में उनका ही एक ग्रामीण कहता है - "वो गाँव घर के वाद-विवाद को देखते भी नोट बनाते रहते। किसने क्या कहा, कहते हुए उसका भाव, भाव-भंगिमा और उतार चढ़ाव... सब पर नजर रहती महेंद्र जी की जिसे वो हूबहू अपने नाटकों में उतार दिया करते थे।"

20 जनवरी 1946 को जन्में श्रीमान महेंद्र झा जी अपने गाँव के नाम मलंगिया से महेंद्र मलंगिया बने। मैथिली साहित्य में कमोबेश सभी पुरस्कार पा चुके मलंगिया जी ने अपने साहित्य संसार का पसार सीमा पार के मिथिला से आरंभ किया और फिर हमारी पार वाले मिथिला के हो गए। उत्तरोत्तर अपने नाटक, शोधकार्य और अन्यान्य साहित्यिक रचनाओं के अलावा मलंगिया जी एक सहज, सुलझे और सामाजिक सरोकार वाले व्यक्ति हैं। रेखांकित करने वाली बातों में - इनकी पुस्तक “ओकरा आँगनक बारहमासा” और “काठक लोक” ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा के मैथिली पाठ्यक्रम में है। साथ ही इनकी दो पुस्तक त्रिभुवन विश्वविद्यालय, काठमाण्डू के एम.ए. पाठ्यक्रम मे भी है।

विडंबना देखिए की इनके नाटक जिस दरभंगा रेडियो स्टेशन पर सुनाए जाते थे, अभी हफ्ते भर पहले उसे बंद करने का फरमान जारी हो गया है... मैं नहीं कह रहा कि ये उसकी भरपाई है किन्तु अब महेंद्र मलंगिया जी के नाटक वहाँ नहीं सुना जा सकेगा। 


मलंगिया जी के संबंध में मैथिली साहित्य के जीवित पितामह स्वयं भीमनाथ झा जी द्वारा कही गई कुछ बातें काबिल-ए-गौर है। मलंगिया जी के एक जन्मदिन की बधाई पर भीमनाथ सर के शब्द -

"कोनों स्थिति उकरु नै, कुनो लोक अनचिन्हार नै, उकरुओ के सुघड़ आ अनचिन्हारो के आप्त बना लेबअ बला गुण छनि हिनका में, महा गुणझिक्कू छथि, सोझा बला के गुण सुटट् सs झिक लैत छथिन, अहाँ के पतो नै लागअ देता आ अहाँ के खखोरि लेता। आ ओहि खोखरन के तत्व के सत्यक नाटक में फिट क देता। ई बनबय कहाँ छथि, रचैत कहाँ छथि, ई त हमरा अहाँ सs, चिन्हार आ अनचिन्हार स, गाम सौं, ल लैत छथि या नाटक में ओहिना के ओहिना राखि दैत छथि। त अहिना में हिनक नाटक, टाटक कोना भ सकैत अछि। 

हरदम अनमोनायल लगता, कखनो ओन्घायलयक सीमा धरि, तेजी न चलबा में न बजबा में। मुदा रेजी चक्कू थिका ई, कोन बाटे नस्तर मारि के अहाँ से अहाँ के निकालि लेता आ अहाँ के पतो नै चलय देता। ओहि अहाँ के ई धोई पोईछ के नाटक में पीला दैत छथि आ असली चेहरा ठाढ़ क दैत छथि। अहाँ ठामहि छी आ अहाँ के 'अहाँ' पर ओहि समेना में हजारों लोक ढहक्का लगा रहल छथि। जे नै देखैत छी से देखा देब, असंभव के संभव बना देब। येह त हिनक नाटक थीक। 

कतेको नाटककार जादूगर बनि जाइत छथि आ रंगमंच पर जादू देखबैत छथि। जादू लोक जतबा काल देखैत अछि ततबे काल चकित होईत छथि। खीस्सा खतम या पैसा हजम। मलंगिया जी के मुदा जादूगर नै कहबनि। किएक त पैसा हजम भेलाक बादो हिनक खीस्सा जारिए रहैत छनि। ओ अहाँ में खीस्सा के लस्सा साटि जाइत छथि आ हिनक ठस्सा ई, जे लस्सा लगा देल बक टिटियाई'या, ओ अपने टघरि जाइत छथि दोसर शिकार में। हम त पक्का शिकारी कहैत छियनि हिनका, अचूक निशानेबाज... पक्का खिलाड़ !"

रीति-रिवाजों के मुताबिक हम सब मलंगिया जी के साथ लिए अपनी अपनी तस्वीरों को चस्पा कर उन्हें बधाई दें... ईश्वर उन्हें निरोग रखते हुए दीर्घायु बनाए... उनके साथ वाली तस्वीर न लगा कर उनके कंजूस हस्ताक्षर की तस्वीर चेप रहा हूँ और साथ साथ उनके ही मित्र श्री भीमनाथ झा जी द्वारा दिए टास्क "वर्ण रत्नाकर" पर उनके कार्य की प्रतीक्षा में - एक प्रसंशक ! 



Thursday, 4 April 2024

केदार नाथ चौधरी - रिटायर उम्र के फायर साहित्यकार

हमारे मिथिला में एक गाँव है - "नेहरा" - कहते हैं सुबह -सुबह इस गाँव का नाम लेना अशुभ होता है. इस 'अशुभता' से बचने को कोई इसे "बड़का गाँव" कहता है, कोई "पुबारि गाम" तो कोई "चौधरी गाम". इसी गाँव के अभिभावक कुसुम-किशोरी के यहाँ दिनांक ३ जनवरी १९३६ को एक पुत्र रत्न का जन्म हुआ. यह गाँव आरम्भ से ही तुलनात्मक रूप से आस पास के गाँवों से अधिक विकसित गाँव रहा है. हालाँकि मिथिला में विकास की परिभाषा पढ़ लिख कर परदेश में नौकरी रही है. बालक पहले अर्थशास्त्र में उच्च शिक्षा और फिर लॉ की डिग्री उपरान्त कलकत्ता जाकर नौकरी करने लगा.  

जैसा की होता आया है. उम्र के भिन्न पड़ाव पर लोग अपनी मान्यताएं और ज्ञान कोष अपग्रेड करते हैं. एक ब्रिटिश कंपनी में काम करते बालक ने खुद को अपग्रेड किया और उसे इस बात का भान हुआ की सफलता यह नहीं है. मंजिलें और भी हैं... ये तो छोटी पहाड़ी चढ़ा हूँ... आगे और भी कई ऊंचे पहाड़ हैं. हाँ, यहाँ नौकरी करते हमारे बालक ब्रो मैथिली आन्दोलन में भी सहभागी होते रहे.

नए मुकाम की राह में तक़रीबन सात-आठ वर्ष की नौकरी के उपरांत १९६९ में यह बालक अर्थशास्त्र पढने कैलिफोर्निया चला गया. तदोपरांत सन-फ्रांसिस्को विश्वविद्यालय से मैनेजमेंट की पढ़ाई कर १९७८ में भारत लौटा और फिर ईरान सह फ़्रांस के संस्थानों में कार्य करते स्वदेश के मुंबई और पुणे में कार्य कर रिटायर हुए. 

मिथिला में रिटायर होने के बाद बहुसंख्यक अभिभावक अपने इर्द गिर्द का समाज और अपने ही बालक वृन्द को "मैनेज" करने का शौक पाल लेते हैं...धर्म-कर्म, वेद-पुराण और गाँव अधिक याद आने लगता है उन्हें... उनपर स्वयं को महान साबित करने का दवाब ठीक वैसे ही हावी हो जाता है जैसे उम्र के ४५ वसंत के बाद सुन्दर लगने का दवाब महिलाओं को और आज स्वयं को नेहरु सा बड़ा साबित करने का दवाब मोदी को है. (इन पंक्तियों पर कुतर्क को तैयार मैथिल से कहूँगा - कुएं का मेढक कब तक बने रहोगे, दुनियां देखो, व्यावहारिक बनो, सच स्वीकारो) 

हाँ तो बात रिटायर होने के बाद की थी. अब तक देश समाज में केदारनाथ चौधरी के नाम से जाने माने हो चुके बालक ने मिथ तोड़ा और अपने गाँव से दूर लहेरियासराय में अपना ठिया बनाकर कथित मैथिल बुजुर्गों से अलग राह चुनी. इस तरह से लगभग सत्तर वर्ष की आयु में उन्होंने आगे का जीवन मैथिली के लिए समर्पित किया. 

मेरे हिसाब में डिग्री, उम्र (अनुभव वाली, काटी गयी नहीं), पैसे खर्च करना और यात्राएं करना आपका ज्ञान बढाते हैं... संयोगवश केदार बाबु में यह चारों था. उनकी मैथिली में यह सब झलका भी. उनका साहित्य सहज भाषा, प्रवाह और व्यावहारिकता के करीब रहा. कई जागृत पाठक को ऐसा कहते/लिखते सुना - उनका लिखा पढ़ते ऐसा लगता है जैसे घटना सामने घट रही हो.  

केदार बाबु के साहित्य की शुरुआत मिथिला समाज को हिलोरने की कोशिश में "चमेली रानी" और "माहुर" से हुई. उनकी साहित्य यात्रा के दुसरे फेज में ग्राम्य जीवन सह आध्यात्म को ध्यान में रख लिखी पुस्तक आयी - "करार" - इस पुस्तक के माध्यम से अपने गाँव में पाए "छोटका काका" की उपाधि को चरितार्थ किया उन्होंने... आगे "हिना" अबारा नहितन" और अंत में "अयना" - इसमें "अबारा नहितन" मैथिली फिल्म "ममता गाबय गीत" के बनने की गाथा है. मैथिली क्षेत्र के बड़े और गरिष्ठ विद्वान् इस सम्बन्ध में बोलते ही आये हैं. खासकर उनकी मृत्यु के बाद उन्हें मैथिली सिनेमा का पुरोधा कहने वाले लोग, आज सिनेमा के नाम पर खुद को महान बनाते लोग और फिल्म के बहाने अपना छुपा एजेंडा साधते लोग जीते जी उनके संपर्क से दूर ही रहे... यह नया भी नहीं है, स्व. रामदेव झा जी इसके उदाहरण रहे हैं जब दरभंगा में रहते लीजेंड लोग उनका हाल जानने नहीं गए और मृत्यु के बाद "बवाल" काटते खलिया पैर नाचे.

चूँकि अपनी उम्र के लगभग ७० वर्ष की उम्र में मैथिली सेवक बने, सो कॉल्ड एलीट मैथिली साहित्यकार सह गरिष्ठ मैथिलों के बीच स्वीकारोक्ति नहीं मिली. ऐसे उदाहरण आज भी हैं जब खुद को साहित्यकार कौम से और दूजे को "विदेह" धर्म का मानते हैं... इस पर आगे लिखकर आपका और मेरा जी कसैला नहीं करना चाहता...

एक सम्मान समारोह में मंजर सुलेमान जी ने गलत नहीं कहा था - "जैसे हरिमोहन झा अपने उपन्यास के लिए प्रसिद्ध हुए, केदार बाबु की कीर्ति भी वैसी ही है."  श्रीमान कामेश्वर चौधरी ने श्री केदारनाथ चौधरी के बारे में कहा था  "अंग्रेजी पढ़े ही मैथिली का सम्मान बचा सकते हैं"  - मेरे हिसाब से मैथिली को वर्तमान सो कॉल्ड मैथिली पुत्रों से बचाए रखने की आवश्यकता भी है सर... 

आजन्म उर्जावान और कर्मठ व्यक्ति के लिए असहाय बिस्तर बहुत कष्टकारी होता है... नमन ! श्रद्धांजलि ! #सर 

Wednesday, 20 March 2024

पुस्तक समीक्षा - ललना रे (दीपिका झा)

"ललना-रे" - बाल-साहित्य के तौर पर लिखी इस किताब की साज सज्जा, आवरण, छपाई, पेपर क्वालिटी और इन सब से ऊपर इसका फॉण्ट साइज़ दर्शनीय सह सुपठ्य है. नवारम्भ प्रकाशन ने छपाई को बेहतर करने का उत्तरोत्तर प्रयास किया है जिसका एक उदाहरण है यह पुस्तक. हाँ, अध्याय/ कथाओं के शीर्षक को बेहतर फॉण्ट दिया जा सकता था. 

शुरुआत पुस्तक की प्रस्तावना से जिसे लिखा है सुपरिचित अजित आजाद जी ने. होता क्या है कि जब हम  लगातार रूटीन वर्क करते हैं तो हम चीजों का सामान्यकरण कर देते हैं, अलग अलग तरह के साहित्य का पृथककरण नहीं कर पाते. अजित जी द्वारा लिखित प्रस्तावना का यही हाल हुआ है. उनके लेखन की समग्रता का कोई सानी नहीं किन्तु यहाँ प्रस्तावना लिखते एक तो वो ये भूल गए की यह बाल-साहित्य  है और दूजे प्रस्तावना लिखते वो पुस्तक समीक्षा सा लिख गए जिसमें समूचे पुस्तक का कौतुहल उजागर कर दिया है उन्होंने. संभवतः पुस्तक की लेखिका से अपनी कोई ख़ास दुश्मनी निकाली हो उन्होंने. :)...  एक तरह से पुस्तक में मौजूद हर एक रचना का पोल-खोल उन्होंने यहीं कर दिया है. नि:संदेह वो सुयोग्य हैं, आगे ध्यान रखेंगे. 

अब बात कथाओं की. कुला जमा अठारह कहानियों वाली यह पुस्तक पांच से पंद्रह वर्ष के बच्चों को केन्द्रित कर लिखी गयी है. यहाँ प्रकाशकों को मेरी एक सलाह रहेगी की सिनेमा की तरह पुस्तकों को भी उम्र के हिसाब से UA, UA16, A आदि सर्टिफिकेट दी जाये. 

पुस्तक की कुछ बातें जो आकर्षित करती हैं उनमें से एक है कि लेखिका ने किसी भी कथा में अनावश्यक भूमिका नहीं लिखी और ना ही जबरिया कोई भारी-भरकम शब्द ही घुसाया है. सभी कहानियां काफी सहज, सरल और सुपठ्य हैं. हाँ पहली कहानी में एक करैक्टर "शकूर-अहमद" अनावश्यक लगा मुझे. यह एक नया चलन है संभवतः मैथिली साहित्य में... इसे अनदेखा करते हुए बात पुस्तक की. 

विष्णु शर्मा द्वारा लिखी प्रसिद्ध पुस्तक है "पंचतंत्र" जंगली जीवों को पुस्तक के चरित्र बना कर लिखी कहानियों द्वारा बाल मन को सीख देना इस पुस्तक का लक्ष्य था जिसमें कई दशकों से यह पुस्तक सफल भी रही है. अब जबकि हमारे विद्यालयों में नैतिक शिक्षा की पढाई बंद है, आज भी अभिभावक अपने बच्चों को नैतिक शिक्षा के लिए "पंचतंत्र" उपहार देते हैं.

दीपिका झा जी द्वारा लिखी इस पुस्तक की सभी कहानियों में रोचक घटनाक्रम के द्वारा एक अच्छी सीख देने का प्रयास दिखा है मुझे. जबकि आज के दौर में बच्चे अपनी जन्मभूमि से कट रहे, उन्हें अपनी सभ्यता, ग्रामीण परिवेश और मानव मूल्यों से परिचय करवाती है यह पुस्तक. "अतू" कथा में बाबा द्वारा पालतू कुत्ते को रोटी या चावल का कौर खिलाने का जिक्र नाना की याद दिला गया मुझे जो नित भोजनोपरांत यही  करते थे.  

सभी कथाओं में नैतिक शिक्षा से जुडी एक सीख को आप कहानी की ही एक पंक्ति में पा सकते हैं. कुछ उदाहरण देखें - 

उपयोगी पात - अहाँ के त किताबो स बेसी बुझल अहि बाबा. 

सुआद आ की स्वास्थ्य - जीवन में सुआद आवश्यक छैक मुदा स्वास्थ्य स बेसी नै.

आमक गाछी - आम (सुफल) भेटबाक ढंग सबके लेल अलग अलग होईत छैक.

रंगोली - अपन कला आ संस्कृतिसं प्रेम करब आवश्यक छैक मुदा ताहू स बेसी आवश्यक अपन कला के विस्तार.

वाची-प्राची - कखनो ककरो अपनासं कमजोर नै बुझबाक चाही... कठिन परिश्रमक कोनो विकल्प नहि.  

ऐसे में जबकि मैथिली विद्यालयों से दूर है ही, बच्चे सिंगापूर, दुबई और अमरीका की ओर तक रहे, इस पुस्तक के प्रचार प्रसार से हम अपनी भाषा-संस्कृति के लिए इन दोनों ही राक्षसों पर वार कर सकते हैं. मैं कम से कम दस बच्चों में इस पुस्तक को बांटने का प्रयास करूँगा... आप सब भी पढ़ें. 

Saturday, 9 March 2024

मेरे प्यारे मैथिल मित्रों

अरे नहीं नहीं, मैं कुछ सुनाने वाला नहीं... चूँकि किसी ने सुनना नहीं सो मैंने भी अब कहना छोड़ दिया है... सो आप सब यूँ ही कमाल करते रहें, धोती फाड़ कर रुमाल करते रहें.... पाग-दोपटा पहनाते और पहनते रहें.... मिथिला महान गाते रहें, आयोजन के नाम पर मिथिला-मैथिली के विस्तार का दंभ भी भरें और मैथिली भाषा के नाम रुदन करते दो टके का नेता भी बनते रहें. मुझे किसी से कोई शिकवा गिला नहीं इसे लेकर. 

हाँ तो जय जय सिया राम आप सबों को. असल में कुछ बातें याद दिलाने का मन हुआ, आखिर मैं भी मैथिल हूँ, थोडा थेथड़पना तो होगा ही मेरे भी अन्दर. कई वर्ष पहले की बात है, टीवी शो "इंडियन आइडल" में बेटी मैथिली ठाकुर के नाम पर मैथिलों की एक मुहीम चली थी. उसको स्टार बनाने की मुहीम.  मैंने अपने "सच बात कहीं बोलें" वाले स्टाइल में इसका विरोध करते लिखा था - "उसे आकाश छूने लेने दो, मिथिला की नहीं देश की बेटी बन लेने दो उसे... तभी जीतेगी" - लाजिमी था, अभियानियों को मेरी बात अरुचिकर लगी. किसी ने दबी जबान तो किसी ने बदजबानी से मेरा पुरजोर विरोध किया. आगे जो कुछ भी घटा अब ईतिहास है. 

खैर, दिन बीते, कई मौकों पर बेटी मैथिली ने अभियानियों को निराश किया. या फिर यूँ कहें की उनकी अपेक्षाओं पर खड़ी नहीं उतरी (उनके धुन पर नाचने से इनकार कर दिया) और वही हुल्ले-लेले करने वाले अभियानी मैथिली को मिथिला विरोधी बताने लगे. आदतन मैंने इसका भी विरोध किया. मेरा मानना है कि भले तुमलोग कितना भी उछल लो कोई भी मिथिला का बेटा या बेटी मिथिला से पहले अपने परिवार का होता है, उसके निजी जीवन की अपनी प्राथमिकताएं होती हैं, उसका खुद का संघर्ष होता है, इस संघर्ष में हमारा तुम्हारा कोई भी सकारात्मक योगदान नहीं होता, सफ़लता प्राप्ति उसकी पहली मंजिल होती है और इसे पाने को सिर्फ मिथिला नहीं अपितु समूचे राष्ट्र और फिर विश्व को उसका फलक बनने दो. 

अब तक आपको फिर से मेरी बात बुरी लगने लगी होगी... अभी रुकिए थोडा, थोड़ी देर और पढ़िए, संभव है आप मेरे इनबॉक्स में अपशब्द तक पहुँचने तक पहुँच जाएँ. हाँ तो जब कोई मिथिला का बेटा या बेटी अपने मुकाम को पा जाये, जब वो कुछ करने लायक हो जाए, जब उसके खुद के ख्वाब पुरे हो जाएँ तो फिर आप उसका आंकलन करें की उसने मिथिला-मैथिली हेतु क्या योगदान किया. क्योंकि तब वो सबल और उन्मुक्त होता है... अभी त्वरित मेरे दिमाग में भास्कर-ज्योति का नाम आ रहा है जो इसका बढियां उदाहरण हैं. अपना पैर जमाने के बाद वो मैथिली भाषा साहित्य और मिथिला समाज हेतु सदेह योगदान को तैयार होते हैं. 

इसी सन्दर्भ में बात कल के एक घटनाक्रम की करना चाहूँगा. देश में चुनाव का माहौल है, प्रधानमंत्री मोदी ने क्षेत्रीय इलाकों में सांस्कृतिक योगदान हेतु एक आयोजन किया मंडपम. इसमें बेटी मैथिली ठाकुर भी सम्मानित हुयीं. प्रधानमंत्री ने इस कार्यक्रम में क्षेत्रीय भाषा के गीत संगीत के महत्व की बातें की और मैथिली से कुछ गाने का आग्रह भी किया. मैथिली अब सबल और उन्मुक्त हो चुकी हैं, उस फलक पर उनका मैथिली में गाना उनको नया आयाम देता... अफ़सोस, उन्होंने हिंदी में गाया... संभवतः मैथिली की अपनी कोई मज़बूरी रही होगी, उनके मार्गदर्शकों का दवाब भी रहा हो शायद किन्तु वो आन्दोलनकारी जनता पता नहीं किधर है फ़िलहाल. 

यह एक मात्र उदाहरण है, इस कड़ी में कई स्थापित नाम और संस्थाएं दोषी हैं. जब हम मात्र फेम के लिए मिथिला-मैथिली का नाम लेते हैं और जब हमें मिथिला मैथिली के लिए कुछ योगदान देना होता है तो हम अपनी औकात पर आ जाते हैं. मैथिल साहित्यकार और नामचीन हस्तियाँ आयोजनों में भाग लेते हैं... हासिल क्या होता है, अपनी अज्ञानता वश मुझे इसका भान नहीं किन्तु जिस हिसाब से साहित्यकार आने-जाने और रहने की सुविधाओं का भाव बट्टा करते हैं वो आजकल कोई नव विवाहित अपने ससुराल में भी न करता होगा. ऐसे ही नामचीन लोग जो मंचासीन होने को आते हैं और आदर्श बातें करते हैं, काश अपने संस्थानों में भी कम से कम मैथिलों के लिए आदर्श व्यवहार करते. इन दोनों ही केस के कई उदाहरण सबूत समेत मेरे पास हैं... सो इस मुद्दे पर बहस कर पंगा न ले कोई... मेरी सेहत के लिए अच्छा ही होगा.     

यही हाल अब उन आन्दोलनकारियों का भी है जो कल तक मिथिला की हर समस्या को लेकर तलवार भांजते थे. मिथिला क्षेत्र में शिक्षा, स्वास्थ्य और सुविधाओं के लिए आफन तोड़ने वाले आज पद प्राप्ति के बाद न केवल शिक्षा और स्वास्थ्य को भुला बैठे हैं बल्कि स्वयं की सुख सुविधाएँ अर्जित करने में ऐसे लगे की खुद अपने संगठन की नहीं सुनते.  

एक दुसरे के नीक कार्य को हम कितना सराहते हैं, हमारे नामचीन कितना साहित्य पढ़ते हैं, हम कितना मैथिली सिनेमा देखते हैं... हमारा कितना निस्वार्थ त्याग समाहित होता है आयोजनों में... किसी से छुपा है क्या ?

तो मेरे मैथिल संगी साथियों, आपने लोड बिलकुल नहीं लेना है... खड़े हो जाना है, "जय-जय भैरवि" गा लेना है, आहा-आहा, विलक्षण, वाह वाह से कुछ शब्द बोल लिख देना है और आस पास देखकर वायु त्याग कर आनंद लेते रहना है. 

बांकी मैं तो हूँ ही आपका शुभचिंतक !  

प्रवीण कुमार झा 

Sunday, 4 February 2024

खट्टर काका के राम आ रामायण - हरिमोहन झा


खट्टर कका रामनवमी क हेतु फलाहार क ओरिआओन करैत रहथि। हम पुछलिऎन्ह - आइ पुरना पोखरि पर रामलीला छैक। चलब कि ने ?

खट्टर कका बजलाह – तोरा लोकनि छौडा-मांगर छह। तमासा देखह गऽ। बूढ-सूढ कैं एहि सभ सॅं कोन प्रयोजन ?

हम- से किएक, खट्टर कका ? एहि में त सभ कैं जैबाक चाही। मार्यादा- पुरुषोत्तम रामचन्द्रजी क लीला छैन्ह । ओ एक सॅं एक आदर्श देखा गेल छथि ।

खट्टर – हॅं, से त देखाइए गेल छथि। कोना अबला पर पराक्रम देखाबी । कोना स्त्री पर तीर छोडी । कोनो स्त्री क नाक-कान काटि ली। कोनो स्त्री कैं जंगल में छोडि दी । बूझह त स्त्रीएक हत्या सॅं रामक वीरता प्रारम्भ हो इत छैन्ह । जीवन में एतबे त काजे कैलन्हि ।

हम - परन्तु...

ख० - परन्तु की ? असल में बूझह त हुनका आदिए सॅं नीक शिक्षा नहि भेटलैन्ह । विश्वामित्र सन गुरु भेटलथिन्ह , जे ताडका क बध सॅं श्रीगनेश करौलथिन्ह । नहिं त अबला पर कतहु क्षत्रियक बाण छुटय ? एहि में विश्वा मित्रक दोष छैन्ह । परन्तु विश्वामित्र क त सभ टा बात उनटे होइन्ह । ब्रम्हा क सृष्टि कैं उनटौलन्हि , पाणिनि क व्याकरण कैं उनटौलन्हि, वर्णाश्रम धर्म कैं उनटौलन्हि। तखन यदि नीति-मर्यादा कैं उनटौलन्हि त से कोन आश्चर्य।

हम- खट्टर कका, रामचन्द्रजी न्याय क मर्यादा देखा गेल छथि । एही न्याय क हेतु सीता समान पत्नीऔं कैं वनवास देबा में कुंठित नहि भेलाह ।

खट्टर कका क मुह तमतमा गेलैन्ह। बजलाह – हौ, न्याय कि यैह थिकैक जे ककरो कहि देला पर ककरो फांसी चढा दी ? न्याये करबाक छलैन्ह त वादी-प्रतिवादी दुहू कैं राजसभा में बजबितथि दुहू पक्ष क वक्तव्य सुनि, न्या य-सभा क जे निष्पक्ष निर्णय होइतैक से सुना दितथिन्ह । परन्तु से सभ त कैलन्हि नहि । चुपचाप जंगल में पठा देलथिन्ह । सेहो की, त छल सॅं । ई कोन आदर्श भेलैन्ह ? एक साधारण प्रजा कैं जतबा अधिकार भेटक चाही सेहो सीता महारानी कैं नहि भेटलन्हि !

हम- परन्तु हुनका त प्रजारंजनक आदर्श देखैबाक रहैन्ह....

खट्टर कका- फूसि बात । अयोध्या क प्रजा कथमपि नहिं चाहैत छल। तैं रातोराति चोरा कऽ रथ हांकल गेल । और लक्ष्मण त सभ में हाजिर। शूर्पन खाक नाक काटह, त चाकू लऽ कऽ तैयार ! सीता कैं वन में धऽ अबहुन, त रथ लऽ कऽ तैयार ! भोर भेने प्रजा कैं खबरि भेलैक त हाहाकार मचि गेल! सम्पूर्ण अयोध्या क्रन्दन करय लागि गेल ! परन्तु रामचन्द्र अपना जिद्द क आगॅं। प्रजाक नेहोरा सुनबे कहिया कैलन्हि ? अपना वनवास क समय में प्रजाक कोन तोष रखलन्हि जे सीताक वनवास में रखितथि ?

खट्टर कका मखान छोडबैत बजलाह - मानि लैह , जौं अयोध्याक प्रजा एक स्वर सॅं यैह कहितैन्ह जे सीता कैं राज्य सॅं निर्वासित कय दियौन्ह तथापि हिनक अपन कर्तव्य की छलैन्ह ? जखन इ जनैत छलाह महारानी निर्दोष थिकीह , अग्निपरीक्षा में उत्तीर्ण भऽ चुकल छथि- तखन संसार क कहनहि की ? ई अपना न्याय पर अटल रहितथि । यदि प्रजा विद्रोह क आशंका बूझि पडितैन्ह त बरु पुनः भरत कैं गद्दी पर बैसाय दूनू प्राणी वन क बाट धरितथि । तखन आदर्श- पालन कहबितैन्ह । परन्तु राजा राम के वल राज्ये टा बुझलन्हि, प्रेम नहि। सीता त अपन पत्नीधर्मक आगां संसार क साम्राज्य तुच्छ बुझि कऽ ठोकरा दितथि , परन्तु रामचन्द्र पतिधर्म क आ गां अयोध्या क मुकुट नहिं छोडि सकलाह !

हम - खट्टर कका, बूझि पडै अछि, सीता क वनवास सॅं अहांकैं बड्ड क्षोभ अछि।

ख०- कोना ने हो? सीताक जन्म विरोगे गेल! बेचारी कैं कहियो सुख नहि ! कहां-कहां रणे-वने स्वामी क संग फिरलीह । और जखन सुखक बेर ऎलै न्ह त स्वामी दूध क माछी जकॅं। फराक कय देलथिन्ह । वन मे त-हाय सी ता ! हाय सीता ! हुनका लेल आकाश-पाताल एक कैल गेल । समुद्र पर पूल बान्हल गेल । और सीता ऎलीह त घर में रहय नहि पौलन्हि ! स्वाइत लोक कहैत अछि जे पश्चिम-भर कन्या नहि देबक चाही ।

हम देखल जे खट्टर ककाक आंखि में नोर भरि ऎल छैन्ह । ओ कने काल छुब्ध भऽ गेलाह । पुनः कहय लगलाह – सीता सन देवी क एहन करुण अन्त ! ओ भरि जन्म राम कैं सेवलन्हि । हुनके तोषार्थ आगि पर्यंन्त में कूदि पडलीह । परन्तु ओहि सर्वश्रेष्ठ सती क प्रति हुनका लोकनि क केहन व्यवहार भेलैन्ह ? आठम मास में घर सॅं बाहर कऽ देलथिन्ह । एहन बेइज्ज ती सॅं त कंठ दबा कऽ मारि दितथिन्ह' से नीक ! बेचारी मिथिलाक कन्या छलि । सी अक्षर बाजयवाली नहि, तैं । दोसरा ठाम क रहितैन्ह त बुझा दि तैन्हि । हौ, हम पुछैत छिऔह, जौं सम्बन्धे तोडबाक छलैन्ह त बाप क घर जनकपुर पठा दितथिन्ह । ओहन घोर जंगल में कोना पठाओल गेलैन्ह ? एहन निष्ठुरता पछिमहे सॅं हो । बलिहारी कही ओहन हृदय कैं ! बेचारी कैं एहि पृथ्वी पर न्यायक आशा नहि रहलैक त पताल प्रवेश कऽ गेलि। जाहि माटिक कोखि सॅं बहराइलि ताहि में विलीन भऽ गेलि । विश्वक इतिहास में आइ धरि एहन अन्याय ककरो संग नहि भेलैक अछि! स्वाइत पृथ्वी फाटि गेलीह !

हम सान्त्वना देबाक निमित्त कहलिऎन्ह - खट्टर कका, असल में ओ धो बी-धोबिनियां फसादक जडि भेल ।

खट्टर कका लाल-लाल आंखि सॅं हमरा दिस तकैत बजलाह - हम तोरा सॅं पुछैत छियौह जे कोनो धोबी कैं अपना घर में झगडा होइक, ओ रूसि कऽ गदहा पर सॅं खसि पडय , त की हम तोरा काकी कैं नैहर पठा देबैन्ह? हम राजा रहितहुं त ओकरा धरबा मंगबितहुं, और दू-चारि सटका लगबा कऽ पुछितिऎक – की रौ नङ्गटा ! छोट मूह , खोट बात ! तु अपना बहु कैं सीता सॅं परतर देमय चललैंह अछि ! कनेक अपनो बहु कैं आगि में पैसय त कह। कहां राजा भोज , कहां भोजबा तेली ! ````` परन्तु रामचन्द्र कैं त सदाय छोटके लोक सॅं बेसी संग रहलैन्ह । निषाद-मलाह , शवरी-भिल्लनी, जटायु- गिद्ध, भालु-वानर- एही सभक बीच त रहलाह । नीक लोक क संगति कहां भेलैंन्ह ? तखन धोबी क बात कोना न सुनथु ? बाप नौडी क बात पर अप ना वनवास देलथिन्ह, अपने धोबी क बात पर स्त्री कैं वनवास देलैन्ह । हुन का वंश में सोलकन्हैक युक्ति चलैत छलैन्ह । घर में मंथरा, और बाहर में दुर्मुख !

हम – खट्टर कका, नीति क रक्षार्थ...

खट्टर कका हमरा डॅंटैत बजलाह - नीति नहि, अनीति । जखन क्षत्रिय-धर्म क आदर्श देखैबाक छलैन्ह बालि कैं ओना गाछक ओट सॅं किऎक मारल थीन्ह्? आमने-सामने लडि कऽ मारितथिन्ह । ओहि बेर 'कालहु डरे न रन रघुवंशी ' बला वचन कहां गेलैन्ह ? यदि मर्यादा क रक्षा करबाक छ्लैन्ह त वैह अनीति करबाक कारण सुग्रीबो कैं किएक नहि दंड देलथिन्ह? विभीषण कैं किऎक नहि मारलथिन्ह ? प्राणदंड देलथिन्ह ककरा त बेचारा शम्बूक कैं जे चुपचाप सात्विक वृत्ति सॅं तपस्या करैत रहय ।

हम - परन्तु मर्यादा पुरुषोत्तम कैं...

ख०- तों मर्यादापुरुषोत्तम कहुन्ह, परन्तु हमरा त हुनका सन अगुताहे न हि भेटैत अछि । जंगल में हरिण क पांछा की दौडलाह ? सीता क वियोग में गाछ धऽ धऽ कऽ की कनलाह ? कहॅं। त सुग्रीव सॅं घुट्ठीसोहार मित्रता, और जहॅं। बेचारा कैं सीताक खोज में दु-चारि दिन देरी भैलैक कि लगले धनुषवाण लऽ कऽ तैयार ! ने समुद्र पूजे करैत देरी , ने ओकरा पर प्रत्यंचे कसैत देरी ! और जखन लक्ष्मण कैं शक्तिवाण लगलैन्ह त रणभूमि मे विला प करय लगलाह । एहन अधीरता कतहु लोक कैं सोभा देलकैक अछि ? ताहू में क्षत्रीय कैं ?

हम - खट्टर कका ओ मनुष्य क अवतार लऽ कऽ ई सभ लीला देखौने छथि । तैं हेतु...

खट्टर कका किशमिश क काठी बिछैत बजलाह - असल मे बुझह त रामक दोष नहि छैन्ह । हुनक बापे अगुताह रहथिन्ह । महाराज दशरथ क सभटा काज त तेहने भेल छैन्ह । शिकार खेलाय गेलाह । घाट पर शब्द सुनलन्हि । चट द तीर छोडि देलन्हि । ई नहि विचारय लगलाह जे लोको त पानि भ रि सकैत अछि । बेचारा श्रवण कुमार कैं बेधि देलथिन्ह । आन्हर पिता क पुत्र- वियोग मे प्राण गेलैक । तकर फल भेटलैन्ह जे अपनो पुत्र-वियोग में प्राण गेलैन्ह । हौ, दू टा पटरानी रहबे करथिन्ह । तखन बुढारी बयस में ते सर विवाह करबाक सौख की भेलैन्ह ? और "वृद्धस्य तरुणी भार्या प्राणॆभ्यो पि गरीयसी !” कैकेयी में तेहन लिप्त भऽ गेलाह जे युद्धक्षेत्रो में हुनका विना रथ पर नहि चलथि । और रथो केहन रहैन्ह जे असले बेर पर टुटि गेलैन्ह नाम की त दशरथ ! और एको टा रथ काज क नहिं । नहिं त कैकेयी कैं पहिया क धूरी में अपन पहुंचा किऎक देबय पडितैन्ह ? तैं न करेजो ओहन सक्कत छलैन्ह । कोनहुना पत्नी क प्रतापे वृद्ध राजा क प्राण बॅ।चि गेलैन्ह। स्त्री कैं आंखि मूनि कय वचन देलन्हि - ‘अहां जे मांगब से हम देब।' एतबा विचार नहिं जे जौं आकाशक तारा मांगि बैसतीह त कहां सॅं देबैन्ह ? और जखन ओ राम-वनवास मंगलथिन्ह त राजा कैं छटपट्टी छुटय लगलैन्ह । कैकेयी त बहुत रक्ष रखलथिन्ह । जौं कतहु कोढ-करेज मांगि बैसितथिन्ह तखन सत्यपालक दशरथ महाराजक की अवस्था होइतैन्ह ? हौ, जखन रा जपूती शान में एक बेर वेर वचन दइए देलथिन्ह तखन पाछां कऽ एतेक वि लाप किऎक ? चौदह वर्ष क बाद त फेर बेटाक राज होयबे करितैन्ह। तावत बुझितथि जे कोरट लागल अछि। धैर्य सॅं प्रतिक्षा करितथि । नहि, जौं बहुत अधिक पुत्र स्नेह छलैन्ह त अपनो संग लागल वन जैतथि। से सभ त कैल न्हि नहि । 'हा राम ! हा राम ! “ करैत छाती पीटि कऽ मरि गेलाह । क्षत्रिय क हृदय कतहु एहन कमजोर होइक !

हम देखल जे खट्टर कका जकरा पर लगै छथिन्ह तकरा शोधि कऽ छोडि दैत छथिन्ह। एखन दशरथजी पर लागल छथिन्ह । प्रकाश्यतः कहलिऎन्ह- और लोक सभ रामायणक चरित्र सॅं शिक्षा ग्रहण करैत अछि...

खट्टर कका - शिक्षा त हमहुं ग्रहण करितहि छी। बिनु देखने तीर नहि चला बी। बिनु विचारने वचन नहि दी । वचन दी त छाती नहिं पीटी ।

हम- खट्टर कका , आहां केवल दोषे टा देखैत छिऎक ।

ख०- तखन गुण तोंही देखाबह ।

हम - देखु , महाराज दशरथ केहन सत्यनिष्ठ छलाह जे...

ख०- जे फुसिए श्रव णकुमार बनि अन्ध कैं परतारय गेलाह ।

हम- रामचन्द्रजी केहन पितृभक्त छलाह जे...

ख० - जे पिता क मृत्युओ क समाचार सुनि सोझे दक्षिण भर बढल चल गेलाह । पाछा फिरिओ कऽ नहि तकलन्हि ।

हम - लक्ष्मण केहन भ्रातृभक्त छलाह जे...

ख० - जे एक वैमात्रेयक दिस सॅं दोसर वैमात्रेय पर धनुष तनबा में एको रत्ती कुंठित नहि भेलाह ।

हम- भरत केहन त्यागी छलाह जे..

ख० - जे चौदह वर्ष धरि भाइक कहियो खोज-खबरि नहि लेलन्हि । राजधानी क राजकाज सॅं फुरसति भेटितैन्ह तखन ने जंगलक पता लगबि तथि । हौ, यदि ई अयोध्या सॅं सेना साजि कऽ लऽ जैतथि त कोन दुःखे राम कैं वानर क नेहोरा करय पडितैन्ह ।

हम – हनुमानजी केहन स्वामीभक्त छलाह जे...

ख०- जे अपन स्वामी सुग्रीव कैं छोडि अनका गहि लेलन्हि ।

हम - विभीषण केहन आदर्श छलाह जे...

ख० - जे घर क भेदिया लंका डाह करौलन्हि । एहन विभीषण सॅं भगवान देश कैं बचावथु ।

हम - तखन अहांक जनैत रामायण में एकोटा पात्र आदर्श नहिं ?

ख० – हमरा सौंसे रामायण में एकेटा पात्र आदर्श बूझि पडैत अछि ।

हम - के ?

खट्टर कका केसौर सोहैत बजलाह - रावण ।

हम – अहां कैं त सभ बात में हॅंसिए रहैत अछि ।

ख० – हॅंसी नहि करैत छिऔह । तोंही रावण में एकोटा दोष देखाबह ।

हम - धन्य छी खट्टर कका ! सभ लोक कैं रावण में दोषेदोष सुझैत छैक और अहां कैं एकोटा दोष नहि सुझैत अछि ।

ख० - तखन तोंही सुझाबह ।

हम – सीता कैं जे हरि कऽ लऽ गेलैन्ह...

ख० - से मर्यादापुरुषोत्तम कैं शिक्षा देमक हेतु जे 'ककरो बहिनिक नाक कान नहि काटी । परदेश में रहि रारि नहि बेसाही । मृगमरीचिका क पाछां नहिं दौडी । कोनो स्त्री क अपमान नहि करी । ' देखह लंको लऽ जा कऽ रावण नाक-कान नहिं कटलकैन्ह , रनिवास में नहिं लऽ गेलन्हि , अशोक वाटिका में रखलकैन्ह । लोक राक्षस कहौक, परन्तु ओकर व्यवहार तेहन सभ्यतापूर्ण भेलैक अछि जे मनुष्यो कैं शिक्षा लेबाक चाही ।

हम - खट्टर कका, अहां त उनटे गंगा बहा दैत छिऎक। रावण सन अन्यायी क पक्ष ग्रहण कय सीतापति सुन्दर श्याम कैं...

ख० - 'सीतापति निष्ठुर श्याम' कहह। विदेहक कन्या अवध गेलीह, तकर फल भेलैन्ह जे कहियो सासुर क सुख नहि भोगि सकलीह और ने फिरि कऽ नैहरै क मूह देखि सकलीह । स्वाइत हमरा लोकनि पछिमाहा सॅं हर कैत रहैत छी । कोन लग्न में विवाह भेलन्हि से नहिं जानि । दिन त वशिष्ठे तकने रहथिन्ह – अग्रहण-शुल्क-पंचमी । परन्तु कहां धारलकैन्ह ? एही द्वारे मिथिला मे केओ अग्रहण मास में कन्यादान करक हेतु जल्दी तैयार नहिं होइत अछि।

हम - खट्टर कका , अहां कैं सीता- वनवास लऽ कऽ हार्दिक पीडा अछी । बूझि पडैत अछि, जौं रामचन्द्रजी सॅं अहां कैं भेट होइत त बिना झगडा कैने नहि रहितिएन्ह । प्रणामो करितिएन्ह कि नहिं ?

ख० – प्रणाम कोना करितिएन्ह ? हम ब्राह्मण, ओ क्षत्रिय । तखन आशी र्वाद दितिऎन्ह - “नीक बुद्धि हो दोसर अवतार में एना जुनि करि । कोनो हमरे सन ब्राह्मण कैं मंत्री बनाबी । एहन काज नहि करि जाहि सॅं लोक ‘ए राम !’ कहय ।"

हम - खट्टर कका , तखन आहां रामनवमी व्रत किऎक करैत छी ? मन मे त देवता कऽ कऽ बुझिते हेबैन्ह ।

ख०- बुझैत छिऎन्ह से कोनो अपना गुण पर नहिं । सीता सन भगवती क पति, तैं भगवान । यदि ओ महारानी नहि भेटितथिन्ह त सोझे दशरथ क बेटा वा अयोध्या क राजा कहवितथि। जे जे काज ओ कैने छथि से सभ क्षत्रिय राजा करितहि अछि । केवल एकटा काज ओ विशेष कैने छथि जे दोसर विवाह नहिं कैलन्हि । जानकी क प्रतिमा बना कऽ शेष जीवन बितौ लन्हि । एही बात पर हम हुनकर सभटा कसूर माफ कऽ दैत छिऎन्ह । सीते लऽ कऽ रामक महत्व । तैं पहिने सीता तखन राम ।

हम - खट्टर कका, अहां कैं सीताजी में एतेक स्नेह अछि तखन रामचन्द्र जी कैं एना किएक कहैत छिऎन्ह ? हुनका पुरुखा समेत कैं आहां नहि छोडलिऎन्ह ।

खट्टर कका प्रसादक थार में तुलसीदल रखैत बजलाह – हौ, तों एतबो नहिं बुझैत छह ? हम हुनक सासुर क लोक छिऎन्ह कि ने ! सासुर क हजामो गारि पढैत छैक से प्रियगर लगैत छैक और हम त ब्राह्मण छिऎन्ह दोसर एना कहतैन्ह से दर्प छैक ? परन्तु मिथिलावासी त कहबे करतैन्ह मैथिल क मूह बंद कऽ देथिन्ह, एतवा सामर्थ्य भगवानो मे नहि छैन्ह ।