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Saturday, 16 August 2025

चरित्र और सामाजिक विकास


स्वामी विवेकानंद शिकागो शहर में गेरुआ वस्त्र पहने घूम रहे थे। कुछ लोगों का अत्याधिक कौतूहल देख बोले - "देखिये, आपके अमेरिका में एक दर्जी सुंदर वेषभूषा सिल कर किसी को भी सभ्य पुरुष बना देता है, परंतु हमारे भारत में चरित्र ही किसी को सभ्य पुरुष बनाता है।"

स्वामी विवेकानंद जी के ही हिसाब से - मनुष्य का चरित्र इससे तय होता है कि किसी भी काम के प्रति उसकी प्रवृत्ति कैसी है। वह वही बनता है जो उसके विचार उसे बनाते हैं। हम कर्म करते हैं और इस दौरान आये प्रत्येक विचार जिसका हम चिंतन करते हैं, वे सब हमारे चित्त पर अपना प्रभाव छोड़ते हैं। प्रत्येक मनुष्य का चरित्र इन सारे प्रभावों के आधार पर तय होता है। यदि यह प्रभाव अच्छा हो तो चरित्र अच्छा होता है और यदि खराब तो चरित्र बुरा होता है।

चरित्र निर्माण की इस प्रक्रिया से जहां यह निर्धारित होता है कि कोई व्यक्ति आगे चलकर कैसा बनेगा, वहीं यह भी तय होता है कि इससे भावी समाज और संसार का निर्माण कैसा होगा। आज अगर हम अपने आसपास भ्रष्टाचार, दुराचार और ऐसी ही समस्याओं की अधिकता देख रहे हैं, तो इन समस्याओं का मूल कारण चरित्र निर्माण की उपेक्षा ही है।

आज के दौर में अपने क्षणिक स्वार्थ में लोग जीवन के इस सबसे महत्वपूर्ण कार्य यानी चरित्र निर्माण को भुला बैठे हैं। यही वजह है कि ऊपरी तौर पर विकास के नए-नए रिकॉर्ड बनाने के बावजूद हमारा समाज नैतिक मूल्यों के पतन की समस्या से बुरी तरह जूझ रहा है। इसका परिणाम गंभीर मनोरोगों से लेकर आपसी कलह, अशांति और गहन विषाद रूपी ला-इलाज बीमारी बन रहा है। चरित्र निर्माण की बातें, आज परिवारों में उपेक्षित हैं, शैक्षणिक संस्थानों में नादारद हैं, समाज में लुप्तप्रायः है। शायद ही इसको लेकर कहीं गंभीर चर्चा होती हो। जबकि घर-परिवार एवं शिक्षा के साथ व्यक्ति निर्माण, समाज निर्माण और राष्ट्र निर्माण का जो रिश्ता जोड़ा जाता है, वह चरित्र निर्माण की धूरी पर ही टिका हुआ है। आश्चर्य नहीं कि हर युग के विचारक, समाज सुधारक चरित्र निर्माण पर बल देते रहे हैं। चरित्र निर्माण के बिना अविभावकों की चिंता, शिक्षा के प्रयोग, समाज का निर्माण अधूरा है। 

मेरी समझ से सरकार द्वारा किये जा रहे या किये जानेवाले विकास कार्यों से भी जरूरी समाज के लिए चरित्र का विकास है। वो चरित्र ही है जो बड़े से बड़े लालच में भी व्यक्ति को अपने कर्तव्य पथ से डिगने नहीं देती। कोई भी व्यक्ति सत्कर्मों और अच्छे विचारों से अपने चरित्र का निर्माण कर सकता है... उसमें निरंतरता कायम रख सकता है।

जिस तरह जीवित रहने के लिए सांस चाहिए और पोषण के लिए शरीर को भोजन-पानी की जरूरत होती है, उसी तरह चरित्र बनाए रखने के लिए भी उसे अच्छे विचारों के खाद-पानी की जरूरत होती है और यह खाद-पानी खुद को अनुशासित रखने मात्र से ही मिलती है।

अनुशासन के अभाव में जब हम अपने नैतिक मूल्यों से तालमेल नहीं बिठा पाते हैं, तो हम भीतर से टूट जाते हैं और ऐसे में वह बाहरी समाज से भी समायोजन करने में नाकाम हो जाता है। चरित्र निर्माण में अच्छे विचारों और चिंतन से ज्यादा महत्व श्रेष्ठ आचरण का है। हमारे विचार, कर्म, व्यवहार, चरित्र और लक्ष्य प्राप्ति सभी कुछ एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। हम जैसा सोचते हैं, वैसा ही पाते हैं।

एक विचारक कह गए हैं - "अपने विचार का बीज बोओ, कर्म की खेती काटो। कर्म का बीज बोओ, व्यवहार की फसल पाओ। व्यवहार का बीज बोओ, चरित्र (कीर्ति) का फल पाओ। चरित्र का बीज बोओ, भाग्य की फसल काटो।"

एक चिट्ठी धैर्यकांत के नाम - अक्टूबर 2020


डिअर धैर्यकाँत, 

कल ४ महीने बाद तुमने अपने वाल पर लिखा। जब दिल से लिखते हो, लिखते ही हो....शानदार लिखा दोस्त।

ये जितना बड़ा सच है कि लिखने से मन हल्का होता है उतना बड़ा सच ये भी है कि सवाल जवाब और प्रतिउत्तर से वही मन फिर से उतना अधिक भारी भी हो जाता है। अच्छा करते हो की अब इन चक्करों में नहीं पड़ते तुम। 

ये सच है कि सोशल मीडिया पर जो दिखता है दरअसल निजी जिंदगी में वैसा कुछ कम ही होता है। यहाँ अपने सारे दुःख दर्द, सारी कमियां और फ़टे को छुपाकर आता है इंसान। हालाँकि इसके सही वजह का पता नहीं मुझे लेकिन शायद होड़ और प्रतिस्पर्धा सबसे बड़ी वजह लगती है मुझे जिसमें इंसान को जाना कहाँ हैं वो नहीं पता होता है। देख रहा हूँ सब भाग रहे हैं... कोई किसी से बेहतर दिखने में तो कोई खुद को बड़ा ज्ञानी साबित करने में... कोई कोई तो अपनी ही जिंदगी के खालीपन को झुठलाने भर को लिखता है। 

मुझे लगता है हम सबने एक मुखौटा पहन रखा है और कहीं न कहीं यह मुखौटा शायद जरुरी भी है.... जिंदगी जीते रहने के लिए। बिना नकाब शायद आप नकार दिए जाएँ, आपके अपने भी आपको पहचानने से इंकार कर दें क्योंकि उनके लिए आपने जो चोला पहन रखा होता है वो आपको उसी में बने देखना चाहते हैं... कोई आपका वास्तविक रूप या फिर आपको आपके स्वयं की जरूरतों में नहीं देखना चाहता है। 

ऐसे में हम शायद जॉन के उस शेर को याद करके जिए जाते हैं की - कितने दिलकश हो तुम कितना दिलजूँ हूँ मैं, क्या सितम है कि हम लोग मर जाएंगे - हाँ शायद यही सोचकर की दुनियां तो दो दिन का मेला है, मर ही जाना है, कौन पंगे ले... तो दम घुटते हुए भी हम मुखौटा पहने रहते हैं।

हाँ, तुम सही हो की जब इंसान खुद को अपने ही द्वारा परिभाषित सांचें में गलत पाता है तो वो अलग अलग चीजें तलाशने और उनको आजमाने लगता है। जल्दी सबकुछ सही करने की कोशिश में वो आधा अधूरा छोड़ता जाता है सब... उसे लगता है कि ये तो बाद में कर लेंगे लेकिन ये सब अधूरे काम उसके कंधे पर बोझ बढ़ाते जाते हैं... वो झुक कर चलने लगता है, खोया रहता है, वो सिगरेट और शराब को अपना दोस्त समझने लगता है.... उसकी आँखों के निचे के गढ्ढे गहरे होते जाते हैं, उसका खुद का सिस्टम खराब हो जाता है सारा सिस्टम मैनेज करते करते। 

हाँ, रिश्ते चाहे घर के हों या फिर बाहर के या फिर सोशल मीडिया के, साले @#$@% सब स्वार्थ पर ही आधारित होते हैं। एक बार आपने स्वार्थ पूर्ति बंद किया नहीं की वो गधे के सर से सींग की तरह आपके जीवन से गायब। वो ये भी नहीं सोचते समझते की खुद तुम्हारा भी कोई स्वार्थ होगा... क्या पता लाचारी ही हो। उनके हिसाब से लाचारी तो हमारी अपनी है न... वो लोग चले जाते हैं, कहीं और... शायद किसी और की दुनियां में। हमारी बदकिस्मती की वहां वो बजाय हमारे किये की चर्चा के हमारी बदखोई करने में लग जाते हैं। वो हमारी बुराई तक ही शांत नहीं होते बल्कि हमारा ही वजूद ख़त्म करने की साजिश करने में लग जाते हैं... वो यह साबित करने में लग जाते हैं कि कैसे वो ही हमारे लिए जरुरी था, हम नहीं। इसमें एक स्टेप आगे और देखा है मैंने - जिसके सामने हमारी यह तारीफ़ हो रही होती है वो आदमी भी हमारे बारे में एक परसेप्शन बना लेता है... हमसे बिना बात किये कोई आदमी कैसे हमारे बारे में कोई विचार बना लेता है पता नहीं लेकिन आजकल ये नया ट्रेंड चला है कि आप किसी से कुछ सुनकर हमारे बारे में राय बना लो... सोशल मीडिया पर किसी को पढ़ कर उसे जज कर लो और फिर कब्जी सा मुंह फुला लो। 

तुमने लिखा की परिवार और रिश्ते आपके सामने गढ्डा खोद देते हैं। शत प्रतिशत तो ऐसा नहीं है किन्तु हम जहाँ से हैं वहां इसका प्रतिशत बहुत अधिक है। कई उदाहरण देखे हैं मैंने जब एक लड़का अपने परिवार के लिए खुद को ख़त्म कर लेता है और उसका परिवार बजाय शाबाशी के उसकी वजह से न हो पाए कामों के ताने भर देता है। उसने क्या किया ये न बताकर उसने क्या नहीं किया वही बताया गया उसे ताकि उसे याद रह सके की वो बस सहने, थोड़ा और करने और थोड़ा और करने को ही बना है। 

बड़े शहरों की प्रेमिकाएं.... अब इतने सारे उदाहरण देख लिए की इस पर मुझे लिखते हुए भी शर्म आती है। यह मान कर चलो की दिल्ली एन सी आर की प्रेमिकाएं प्रेम नहीं करती बल्कि आपके भोलेपन के हिसाब से आपकी जेब और मानसिक शक्ति (...) के खोखले होने का इंतजार भर करती हैं। बस इतना कहूंगा की प्रेम ही करना है तो बच्चे बच्चियों से करो... खुश महिलाओं को दोस्त बनाओ... ज्यादा जी करे तो केजरीवाल को चंदा दे आओ या फिर खुद को चॉकलेट, वाइन आदि गिफ्ट कर दो..... मगर दिल्ली की प्रेमिकाएं, न बाबा न। 

पता हैं मुझे इन सब बातों से कोई ख़ास मलाल भी नहीं और मैं भी तुम्हारी तरह परवाह भी नहीं करता अब किसी की। अगर भूखा हूँ तो हँसता हूँ, पेट भरे होने पर थोड़ा और हँसता हूँ... वजह की आपके भूखे होने की बात से सब... हाँ, सब के सब हँसेंगे और आपके पेट भरे होने पर हँसते देख कर लोग समझेंगे की इसको तो हंसने की बिमारी है.... असल में फ़िक्र कहाँ होती है कि इस वजह से कुछेक प्रतिशत जो अच्छे लोग हैं आपका भरोसा उनसे भी उठ जाता है... जैसे गेंहूं के साथ घुन पिसता है वैसे ही ये कुछेक प्रतिशत लोग भी पिस रहे... कोई इन पर भी भरोसा नहीं कर रहा... उन्हें उनकी नेकी का हक़ नहीं मिल रहा। 

तुम्हें तो पता ही है पिछले दिनों की कहानी जब बहुत कष्ट में था... थोड़ी झेंप भी रहती थी की जिन्हें मुझसे मदद की आशा रहती थी उन्हें कैसे कहूं की मैं खुद मदद लेने की हालत में पहुँच गया हूँ। हालाँकि फिर भी जो करीब थे वो आये, मेरा परिवार मेरे साथ खड़ा रहा... मेरे दुःख को समझा, मेरा दर्द साझा किया और पूछते रहे। कोई यहाँ था कोई अन्य बड़े शहरों में तो कोई विदेश में... पता है एक रात डेढ़ बजे किसी ने अमरीका से फोन किया और कहा - " प्रवीण, तुम्हे जो भी मदद चाहिए हम तैयार हैं... कहो तो आ जाऊँ" अच्छा लगा। 

हालाँकि मुझे उतना ही बुरा लगा जब पिछले १० महीनों के इस संघर्ष में और संभवतः जीवन की सबसे बड़ी लड़ाई में कुछ लोग या तो अनभिज्ञ बन गए या फिर सब जान बूझकर मुझसे किनारा कर लिया। पहले तो मेरी आदत के अनुसार मैंने इसकी वजह खुद को ही माना की शायद खुद की कोई कमी रही होगी मेरी। लेकिन बाद में अधिक मंथन पर पता लगा कि नहीं, ये तो बस मुझसे इसलिए जुड़े थे की मैं इनके किसी काम आ सकूँ। तुमने सही कहा था - "प्रवीण जी, सीधे नहीं बोलने वालों से दूर रहिये...." 

धैर्यकाँत, अब मैंने निर्णय ले लिया है कि सिर्फ और सिर्फ अच्छे दिनों वाले साथियों को त्याग दूंगा..... मुझे पता है तुम कहोगे की आप तो सबकुछ खुद पर लेकर किसी को जीवन भर त्यागना नहीं चाहते तो आपसे नहीं होगा ये सब। सो भाई - कोशिश करूँगा। क्योंकि पिछले दस महीनों ने (जिसे दस साल की तरह जिया है मैंने) मुझे सीखा दिया है कि मैं भी इंसान ही हूँ। वो इंसान जो सही गलत समझने में गलती कर सकता है... और उसे इस गलती को करेक्ट कर लेना चाहिए। कुछ पुराने को क्रॉस और कुछ नए को टिक करना ही चाहिए। परिणाम की चिंता किये बगैर मुंह पे कहना ही चाहिए की नहीं बॉस, आप नहीं चाहिए... भले कोई बुरा मान जाए, मुझे पागल समझे, एरोगेंट कहे या फिर कुलबोरन। 

लिखते रहो,
तुम्हारा शुभचिंतक,
प्रवीण

Thursday, 12 December 2024

पान - भोज्य, औषधि और ससंकृति से तारतम्य

पान के पत्ते में भारतीय जड़ें होने की संभावना है। जब मैं भारतीय जड़ें कहता हूँ, तो मेरा मतलब है कि पान दक्षिण पूर्व एशिया के कई देशों की मूल वनस्पति है। पंडित कैलाश कुमार मिश्रा

भारतीय लोक मान्यता है कि देवाधिदेव महादेव जो प्रथम वैद्य और प्रथम नर्तक हैं, उन्होंने अपनी पत्नी माता पार्वती के साथ हिमालय के पहाड़ पर पान का पहला बीज बोया था। यह लोक मान्यता पान को भारतीय मूल का बेल बना देती है। इसका उपयोग देवताओं, पूर्वजों और प्रकृति को अर्पित की जाने वाली अनुष्ठानिक वस्तुओं के रूप में किया जाता रहा है।

पंडित कैलाश कुमार मिश्रा

पान पर चर्चा करना एक दिलचस्प विषय है। मेरे पिताजी पान खाने के बहुत शौकीन थे। उनके जीवनकाल में वे खुद पान की समस्त सामग्री रखते थे, जिनमें पान पत्ते (मगही पान जो देखने में छोटा और पीला होता था, लेकिन मोड़ते ही टूट जाता था), सुपारी, कत्था, चूना, नाना प्रकार का जर्दा, लौंग, इलायची इत्यादि शामिल थे।

पिताजी सभी सामग्री को बहुत सावधानी से रखते थे। पान के पत्ते को लाल रंग की गीली कपड़े में लपेटकर एक बॉक्स में रखते थे। पिताजी अक्सर कहते थे, "वैसे तो पान औषधि है, परंतु हम लोग जर्दा और अन्य तम्बाकू उत्पाद डालकर इसको बर्बाद कर रहे हैं। इस आयुर्वेदिक औषधि को विष बना रहे हैं।"

पिताजी को यह बात बहुत अच्छी लगती थी कि मैं, उनका छोटा पुत्र, तम्बाकू के किसी भी उत्पाद का सेवन नहीं करता था। जो भी हो, पिताजी से मैंने यह समझा कि पान भारतीय पूजा-पाठ, अनुष्ठान, खान-पान, विवाह, उत्सव, मीटिंग, सभा का अभिन्न अंग है। मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि लखनऊ विश्वविद्यालय के मानव विज्ञान विभाग में किसी शोधार्थी ने पान खाने की परंपरा पर 1990 के दशक में अपना पीएचडी थीसिस तैयार किया था। पान की चर्चा स्वर्गीय प्रोफेसर हेतुकर झा भी करते थे।

पिताजी के एक मित्र थे हरेंद्र प्रसाद। हरेंद्र प्रसाद एक पान के खत्म होने के बाद दूसरा पान खाने के आदी थे। उनके साथ एक आदमी का यही काम था कि हरेक आधे घंटे पर बिना कहे पान बनाकर दे दे। पान के अनेक संस्मरण हैं मेरे पास लिखने के लिए। किस तरह से लोग पान खाकर दीवार, सड़क, आदि को गंदा करते हैं! खैर! यहाँ मैं पान को अनुष्ठानिक पत्ता (या सामग्री) और आयुर्वेदिक औषधि के लोक स्वरूप की चर्चा तक केंद्रित रखने जा रहा हूँ।

पान के पत्ते में भारतीय जड़ें होने की संभावना है। जब मैं भारतीय जड़ें कहता हूँ, तो मेरा मतलब है कि पान दक्षिण पूर्व एशिया के कई देशों की मूल वनस्पति है। भारत के अलावा, पान फिलीपींस, इंडोनेशिया, और प्रायद्वीपीय मलेशिया में भी पाया जाता है और इन देशों में इसका उपयोग विभिन्न रूपों में किया जाता है।

ऑस्ट्रोनेशियन लोगों द्वारा व्यापार और प्रवास के माध्यम से पान की खेती की गई और दुनिया के अन्य हिस्सों में फैलाया गया। औपनिवेशिक युग के दौरान, भारतीय अनुबंधित अप्रवासियों द्वारा पान के पत्तों को कैरिबियन में भी लाया गया था।

भारतीय लोक में एक मान्यता है कि देवाधिदेव महादेव जो प्रथम वैद्य, पथम नर्तक हैं उन्होंने अपनी पत्नी माता पार्वती के साथ हिमालय के पहाड़ पर पान का पहला बीज बोया था। यह लोक मान्यता पान को भारतीय मूल का बेल बना देती है। इसका उपयोग देवताओं, पूर्वजों और प्रकृति को अर्पित की जाने वाली अनुष्ठानिक वस्तुओं के रूप में किया जाता रहा है। भारतीय परिवेश, खासकर पूर्व भारत, हिमालय के क्षेत्र, और उत्तर पूर्व भारत में पान का उपयोग घर-घर होता है। प्रयागराज से शुरू होकर वाराणसी तक, पान वहाँ की संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन जाता है।

वाराणसी जाने का अर्थ ही नहीं है अगर आपने वहाँ पान नहीं खाया! महानायक अमिताभ बच्चन की सिनेमा डॉन को कौन नहीं जानता? उस फिल्म का पान वाला यह गीत तो आपको जरूर याद होगा:

"खाई के पान बनारस वाला
खुल जाए बंद अकाल का ताला
फिर तो ऐसा करे कमाल
सीधी कर दे सबकी हाल
छोरा गंगा किनारे वाला"

यह गीत वाराणसी की संस्कृति और पान की महत्ता को बहुत अच्छी तरह से दर्शाता है... और, इस गीत पर अमिताभ बच्चन का अभिनय ! क्या कहने हैं? अगर सीनियर बच्चन प्रयागराज के नहीं होते, वाराणसी में गंगा नदी के किनारे पान खाने की परंपरा को नहीं देखा होता, वहां के ड्रेस कोड से अवगत नहीं होते तो यह गीत अपना प्रभाव नहीं छोड़ पाता।

बंगाल (और बांग्लादेश) और त्रिपुरा की महिलाएं, उनमें भी भद्र महिलाएं, पान अवश्य खाती हैं। उनके पान में यद्यपि तम्बाकू, जर्दा, तुलसी, गुटखा आदि का प्रयोग न के बराबर होता था। पान चबाने की परंपरा ओडिशा, असम, मणिपुर में भी है।

#मिथिला में सभी जाति या समुदाय की महिलाएं तो पान नहीं खाती हैं, हां उच्च वर्ग की कुछ महिलाएं पान अवश्य खाती थीं। कम्युनिस्ट और मजदूर यूनियन के लोगों ने यद्यपि बंगाली पुरुषों में सिगरेट और बीड़ी का लत लगा दिया। जहां पढ़े-लिखे भद्र लोग सिगरेट पीने लगे, वहीं फैक्ट्री और सामान्य जीवन के बंगाली पुरुष बीड़ी धूमने लगे। यह प्रभाव यद्यपि ओडिशा, असम, मिथिला में इतना नहीं रहा।

कालांतर में कुछ अति विकसित और आधुनिक अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त सभ्रांत लोग अवश्य सिगरेट पीने लगे, बीड़ी यहां अभी भी मजदूर वर्ग तक सीमित रही। तम्बाकू वैसे ब्राह्मण और निम्न सभी वर्गों में प्रवेश कर गया। पान चलता रहा। पान है तो अनेक प्रकार के जर्दा, तुलसी, गुटखा भी आ गया। असम के लोग पान पत्ते में कच्ची सुपारी काटकर चूना के साथ खाते रहे। इसको ताम्बूल कहते थे।

पान पर चर्चा करते समय वाराणसी की याद आना स्वाभाविक है। वाराणसी की नर्तकी और बाई के पास मगध और अन्य स्थानों के राजा और जमींदार अपने बेटों को तहजीब सिखने के लिए भेजते थे। तहजीब का एक अंग पान खाना था, जिसमें पान के साथ बोलने की कला, पीकदानी का प्रयोग, और अन्य सभी पहलू शामिल थे।

भोजन की पूर्णाहुति अथवा सम्पूर्णता पान के साथ होती है। यही कारण है कि भोजन खान से प्रारम्भ होकर पान पर समाप्त होता है - खानपान। इसमें दो शब्द, "खान" और "पान" एकाकार हो जाते हैं। दोनों अलग नहीं होते क्योंकि दोनों शब्द मिलकर क्रिया की पूर्णता प्रदर्शित करते हैं।

मुझे अपने पिता के साथ झारखंड के एक छोटे से शहर सिमडेगा में बिताए अपने बचपन के दिन याद आते हैं, जो अब भारतीय राज्य झारखंड में एक जिला मुख्यालय है। सिमडेगा कॉलेज में अंग्रेजी विषय के एक प्रोफेसर थे डॉ राम नारायण झा। उनका व्यक्तित्व बहुत खूबसूरत और गंभीर था। वे हमेशा सफ़ेद पैंट और कमीज पहनते थे। उनका भव्य स्वरुप, विशाल मस्तिष्क एवं चौड़ा कपाल सभी को आकर्षित करता था डॉ झा पान के शौक़ीन थे। दिन भर में कम से कम पच्चास बार पान खाते थे। उनकी पत्नी ख़ुद तो पान नहीं खाती थीं लेकिन अपने पति के लिए बड़े ही मनोयोग से पान बनाती थीं। डॉ झा मेरे पिता के अनन्य मित्र थे। प्रतिदिन पिताजी के पास आते घंटो बात करते बीच-बीच में पान खाने का दौड़ चलता रहता।

सभी लोग मेरे पिता के साथ ज़रदा अर्थात तम्बाकू मिश्रित पान खाते थे। जर्दा में काली पत्ती, 300 नंबर का पीले रंग का इत्र और अन्य चीजों से मिश्रित तम्बाकू होता था। दुकानदार एक शरणार्थी बंगाली था, कालिदास गांगुली नाम का। वह गज़ब का पान लगाता था। फिर उसको सखुआ के कोमल हरे पत्ते में लपेट कर देता था। लपेटते समय सखुआ पत्ते के एक हिस्से में अलग से चूना और बांस की बनी तीली देता था, जिसका प्रयोग पान चबाने वाले चूना खाने और दांत खोदने में करते थे।

डॉ राम नारायण झा के कपड़े यदा-कदा पान के रंग से रंग जाते थे। इसका उनपर यद्यपि कोई असर नहीं पड़ता था। वे कहते थे, "पिछली जन्म में मैं बकरी था। जैसे बकरी जब तक जगी होती है तब तक घास चबाते रहती है, ठीक उसी तरह से मैं तक जगा रहता हूँ पान खाते रहता हूँ।"

कालिदास का पान दुकान बहुत प्रसिद्ध था। वहाँ दो भाई थे, जो दोनों भाई सुबह से शाम तक पान बनाते रहते थे, लेकिन पाँच मिनट का भी फुरसत नहीं होता था। एक बात कहना ही भूल गया था। कालिदास के यहाँ पान के दो नस्ल मिलते थे, बंगाली अथवा चालू और मगही अथवा पिली पत्ती। बंगाली पान हरे रंग के बड़े-बड़े पत्ते होते थे। ये पान कोलकाता से मंगाया जाता था। मगही या पिली पत्ती का पान बहुत ही छोटे आकृति के होते थे। रंग मरा हुआ, और कमजोर, पिलापन लिए हुए मानो पीलिया रोग से ग्रसित हो। इसका स्वाद यद्यपि बेजोड़ होता था। कीमत दुगुना देना पड़ता था। जहाँ चाहें वहीं यह टूट जाए। यह टूटन इसको मजेदार बनाता था। इसको खाने का आनंद ही अलग होता था। बांग्ला पान साग के सामान होता था। खाने वाले इसको भी खाते थे। मगही पान पटना से मंगाया जाता था। पटना अर्थात मगध इसीलिए इसका नाम मगही पान पड़ा।

एक वैद्य जी सिमडेगा में हमारे निवास पर नियमित रूप से आते थे। वे झारखंड के बानो प्रखंड में एक सरकारी आयुर्वेदिक अस्पताल के मुख्य चिकित्सा अधिकारी थे। बानो सिमडेगा सब डिवीजन में एक आदिवासी बहुल ब्लॉक स्तर की बस्ती है। वैद्य जी मेरी जन्मभूमि मिथिला के मूल निवासी मैथिल थे।
वैद्य जी सुसंस्कृत, मृदुभाषी, लंबे और गोरे रंग के व्यक्ति थे। उनके बेदाग चेहरे, बड़ी-बड़ी आंखें, सुव्यवस्थित मूंछें, उन्हें आकर्षक बनाते थे। वैद्य जी अपने साथ पान रखते थे। पान रखने का अंदाज़ शाही होता था। चांदी के कलात्मक वर्तन में पान पत्ते, चांदी के वर्तन में ही गीली सुपारी, चूना, लौंग, इलायची रखते थे।

वैद्य जी पान के साथ कभी भी जर्दा या तम्बाकू से निर्मित किसी भी वस्तु अथवा खाद्य सामग्री का प्रयोग नहीं करते थे। वे सुपारी (छलिया सुपारी) को कतरी बनाकर काट लेते थे, फिर उस कतरी को पानी में भिंगो देते थे। पानी में इत्र, लौंग, गुलाब की सूखी पंखुड़ियाँ, आदि डालते थे। सुपारी का कतरी को कम से कम १२ घंटे जल में मिट्टी के वर्तन में भिंगोये रखते थे। परिणाम यह होता था कि सुपारी का कतरी काफ़ी मुलायम, स्वादिष्ट, सुगंधित और हानिरहित होता था।

मैंने बाल सुलभ मन से वैद्य जी से जिज्ञासा किया: "पान खाना शरीर के लिए हानिकारक है न?" वैद्य जी ने मुस्कराते हुए कहा: "किसने कह दिया? गलत जानकारी है आपको। भारतीय परम्परा में पान का प्रयोग आयुर्वेद के चिकित्सक औषधि के रूप में अनादि काल से करते आ रहे हैं। पान औषधि है। यह पाचन तंत्र को बढ़ाता है। पान खाने से दातों में कीटाणु नहीं लगते और खाना खाने के बाद पान का सेवन पाचक क्रिया हेतु लाभदायक समझा जाता है। पान मुंह और पेट की बैक्टीरिया को भी मारता है और पेट में एसिड और गैस से छुटकारा दिलाने में सहायक है। पान खाने से मनुष्य लंबे समय तक निरोगी रह सकता है। वेदों में भी पान के सेवन की पवित्रता का वर्णन है। अतएव पान हर पुरुष और स्त्री को जरूर खाना चाहिए।

वैद्य जी ने आगे बताया: "जिन लोगों को कब्ज की समस्या रहती है, उन लोगों के लिए पान खाना लाभदायक होता है। अगर छाले पड़ गए हैं तो आप पान चबाइए, इससे मुंह के छाले दूर हो जाते हैं। चेहरे पर आने वाले कील-मुहासे में यह काफी लाभदायक है, क्योंकि यह खून को साफ करता है। इसमें एंटीऑक्सीडेंट तत्व मौजूद होते हैं जो त्वचा पर निखार लाने में सहायक होते हैं। किडनी यानि गुर्दा से संबंधित बीमारियों को दूर करने में भी पान खाना बहुत ही लाभदायक है। इसके सेवन से किडनी की काम करने की क्षमता बढ़ती है। पान के सेवन से सर में होने वाले दर्द से भी छुटकारा पाया जा सकता है। पान में एनाल्जेसिक तत्व पाया जाता है जो सर दर्द को कम करने में बहुत असरदार है। जिन लोगों को भूख कम लगने की शिकायत है, उनके लिए नियमित रूप से पान का सेवन करना फायदेमंद है, क्योंकि उसमें मौजूद पोषक तत्व भूख बढ़ाने में सहायक हैं।"

मैं विस्फारित नेत्रों से वैद्य जी को देखता रहा, जो मेरी अज्ञानता को दूर करने के लिए अपने ज्ञान का संचार कर रहे थे। उनके कथ्य से मेरी अज्ञानता खत्म हो रही थी। वैद्य जी बोलते जा रहे थे और मैं उनकी बातों को सुनता जा रहा था। भारतीय ज्ञान परम्परा में भोजन और औषधि दोनों अलग नहीं होते - दोनों एक दूसरे के पूरक होते हैं। काया के तीन मुख्य कार्य: कफ, पित्त और वायु का संचालन और संतुलन भोजन के द्वारा ही किया जाता रहा है। यही है भारतीय परम्परा अर्थात आयुर्वेद, सिद्धा और लोक के साथ-साथ जनजातीय औषधि परम्परा का मूल।

इस आलेख के लिखने के क्रम में मेरे वरिष्ठ मित्र विष्णु गुप्त का फोन आया। हम दोनों बहुत देर तक बात करते रहे। मैंने उन्हें बताया कि मैं पान का सेवन नहीं करता हूँ। विष्णु गुप्त जी कहने लगे: "सप्ताह में दो दिन सादा पान में चूना, मुलेठी, छोटी इलाइची, सोंठ आदि डालकर खाइए। यह स्वास्थ्य और पाचन के लिए अच्छा है।" गुप्त जी के अनुसार, "पान का पत्ता गले के कफ का इलाज करता है। इसके सेवन से गले की सर्दी और जुकाम दूर होता है। पान के पत्ते में मुलेठी मिलाकर खा ली जाए तो सर्दी-जुकाम और कफ का असरदार इलाज होता है। आप पान का सेवन खाली पेट नहीं करें, बल्कि खाने के बाद करें तो आपको यह ज्यादा फायदा पहुंचाएगा।"

कहना भूल ही गया कि तम्बाकू लैटिन अमेरिका से होते हुए पुर्तगाल के रास्ते भारत आया और भारत की भोज्य संस्कृति को बर्बाद करने का नया इतिहास लिख दिया । इसी ने पान को और उसके स्वरूप को बिगाड़ दिया। तम्बाकू खाना तो बिहारियों में सबका सबके लिए समाजवाद ले आया। लोग तम्बाकू को राजेंद्र बाबू, गोरखनाथ सिंह जैसे लोगों से जोड़ने लगे। तम्बाकू को बुद्धि वर्धक चूर्ण अर्थात बीबीसी कहने लगे। लेकिन पान का मूल स्वरूप तो औषधि का था। था क्या, अभी भी है।

कुछ दिन पहले वाराणसी को पान के लिए जीआई-टैग मिला है। यह एक अलग ही विषय हो जाएगा। इस पर फिर कभी। अब बात करते हैं पान के लोक में महत्त्व पर। लोक संस्कृति की जानकार एक महिला बता रही थीं कि उत्तरप्रदेश का पतेली विश्व प्रसिद्ध पान की खेती के लिए ख्यात है। पतेली का पान पत्ता कुछ अंडाकार, लंबा अग्रभाग एक तरफ मुड़ा हुआ और आधार का कटाव बहुत कम विकसित होता है। इसमें ५-६ शिराएं होती हैं, लेकिन बंगला पत्ती के समान फैली नहीं होती हैं। इसका रंग हरा होता है तथा स्वाद में तीखापन और मिठास होती है। पतेली के अलावा समस्त महोबा क्षेत्र में पान की खेती की जाती है। मध्यप्रदेश के कुछ भू-भाग में भी पतेली नस्ल के पान उगाये जाते हैं। आलम यह है कि उत्तर प्रदेश की बात छोड़ दीजिए, बिहार तक एक कहावत प्रचलित है:

"पान पतेली बेल पबड़ा
गहुम घटय त जाउ झोखड़ा।"

अर्थ हुआ पतेली क्षेत्र का पान, पबड़ा का बेल फल सर्वोत्कृष्ट है। अगर उत्तम गेहूं लेना चाहते हैं तो झोखड़ा में मिल जायेगा। फिर भी समस्त भारत में वाराणसी का पान प्रसिद्ध है। मैंने वाराणसी के बुनकर, शिल्पी, धातु, काष्ठ आदि पर कार्य करने वाले कलाकारों, वाराणसी के घाट, भोजन, और बहुत सी चीजों पर गहन कार्य किया है। स्वाभाविक है कि मैंने पान पर भी कार्य किया है। जब वाराणसी में पान पर कार्य कर रहा था, तो पता चला कि यहाँ के दुकानदार और ग्राहकों में पटेली अथवा महोबा के पान से अधिक मगही पान का क्रेज है। लोगों को जो आनंद मगही पान में मिलता है, वह कहीं नहीं मिलता। बहुत कम ही लोग जानते हैं कि यहाँ मिलने वाले पान के बेल की खेती कहाँ की जाती है।

वाराणसी में जो भी पान आता है, वह बिहार के मगध क्षेत्र में उगाया जाता है। आमतौर पर इसे मगही पान भी कहा जाता है। बिहार के नालंदा, औरंगाबाद और गया सहित १५ जिलों में इसकी खेती होती है। यहाँ के तकरीबन १० हजार परिवारों का भरण-पोषण इसी खेती से होता है। मगही पान की विशेषता और विशिष्टता की चर्चा पहले कर चुके हैं, अतः यहाँ इस कथ्य को यह कहते हुए विराम देना आवश्यक समझता हूँ कि पान कोई कहीं कैसा भी बना ले, राजा तो मगही पान ही रहेगा!

तीसरी कसम सिनेमा का गीत "पान खाये सइयां हमारो" जनपदीय परिवेश में पान पर एक आईना ही तो है। मिथिला में तो मान्यता है कि पान, मखान, आम और शहद स्वर्ग में भी उपलब्ध नहीं हैं। मिथिला, मगध, भोजपुर और अवध की संस्कृतियों में भी पान का अनुष्ठानिक, औषधीय, और दैनिक महत्त्व उजागर होता है। लोक संस्कृति का अवलोकन करते जाएँ और पान का स्वाद लेते रहें।

हमलोग जब बच्चे थे तो यदा-कदा पान खा लेते थे। जिसकी जीभ बहुत लाभ होता था, तो कहते थे कि उस व्यक्ति की सास उसे बहुत स्नेह करेगी। मिथिला का हरेक दूल्हा राम होता है और दुल्हन सीता। दूल्हा जब भोजन करते हैं तो मंगली हर्षोन्मादक गीत गाकर माहौल को और मधुर बनाती रहती हैं। पान के बहाने दूल्हा अर्थात राम की माता और बहन के साथ परिहास किया जाता है। गाने के बोल अनमोल होते हैं। एक गीत की दो पंक्तियाँ देखते हैं:

"आगे माई दुलहा के मुख में पानो नहीं
रानी कौशल्या के लाजो नहीं।"

इसके अलावे कुछ मैथिली लोक गीत को देखिये जहाँ पान का प्रयोग हुआ है। यह केवल चंद पके चावल से समस्त भात के पकने तक का अनुमान है :

हनुमान गीत
हनुमान बड़े बलवान, जगत मे सब जाने
लाल लंगोटा सिनुर लपेटा, मुख मे शोभनि पान
जगत मे सब जाने
ब्राम्हण गीत
पाकल बीड़ पनमा लगायब
ब्राम्हण बाबू के खुआएब
हम त नित्य पूजब हृदय खोलि के।
सोना जींजीर भरि के ना

ब्राम्हण गीत
अहाँ केर छोट भाइ ब्राम्हण पनमा के भूखल यौ अहाँ ब्राम्हण बाबू।
बरै बेटी राखल लोभाय यौ अहाँ ब्राम्हण बाबू

ब्राम्हण गीत
खाये लिअ आहे ब्राह्मण जोड़ा खिली पनमा
पहिर लिअ जोड़ा जनेऊ

भगवानक गीत
पान सुपारी प्रसाद बाँटव सौंसे समाज
पूजा करब भगवान के।
वनबेली फूल आनि दुबी अक्षत पान
पूजा करब भगवान के।

काली गीत
पाँचो बहिनियाँ काली खल खल हँसथिन्ह हे
मुंख मे जे शोभनि पाकल पान
हे अहाँ काली मैया, आई छियनि असूरा संहार हे....

कुमार गीत (लड़का )
पानक जड़िया सँ निकलल बिड़िया
घर-घर पड़ल हकार हे
किनकर बगिया अतेक दल उभरल
के साजल बरियात हे
समधिक बगिया एतेक दल उभरल
बाबा साजल बरियात हे।

अगर लोक से पान का उदाहरण और संदर्भ देने लगूं तो पन्ने भर जाएंगे! मिथिला में मान्यता है कि पान, मखान स्वर्ग में भी उपलब्ध नहीं है, इसीलिए यहाँ पितरों को पान और माखन चढ़ाया जाता है। कहना बहुत कुछ है, लेकिन कह नहीं पा रहा हूँ। लोग लंबे आलेख से भागने लगते हैं। लेकिन पान भारतीय परिवेश और पारिस्थितिकी का एक अपूर्व बेल है। असम से लेकर कर्णाटक तक लोग इसको उगाते हैं, इसका सेवन करते हैं। खान की सम्पूर्णता पान से है, इसीलिए हमारे यहाँ यह कहने की परम्परा है "खान-पान"। अब देखिये, यह शब्द युग्म - "खान-पान" जिसके यहाँ आप खाने जा रहे हैं उसके सामाजिक मर्यादा, आर्थिक अवस्था, सोच, संस्कार, शिक्षा सबको प्रदर्शित करता है।

हमारे यहाँ जब कन्या पक्ष के लोग अपनी पुत्री का विवाह तय कर लेते हैं तो लड़के अथवा वर पक्ष के यहाँ खान-पान के लिए जाते हैं। जाने का अर्थ है उसकी सामाजिक हैसियत, शिक्षा, संस्कार, आर्थिक सम्पन्नता का अवलोकन करना। अर्थ स्पष्ट हो गया ना कितना महत्वपूर्ण है पान!

अगर तीसरी कसम फिल्म का पान खाए सैयां हमारो का जिक्र नहीं किया तो हिंदी हार्टलैंड में पान का क्या महत्त्व रह गया! यह गीत पान, परम्परा, तहजीव, नृत्य, वानरस, सब कुछ बखान करता है। इस गीत में इसका अर्थ स्पष्ट है। गीत सुनिए और बनरसी पान की संस्कृति की गंगा में डुबकी लगाते रहिये:

“पान खाए सैयां हमारो
सांवली सूरतिया होंठ लाल लाल
हाय हाय मलमल का कुर्ता
मलमल के कुर्ते पे छींट लाल लाल
हमने मंगाई सुरमेदानी
के आया ज़ालिम बनारस का जर्दा
अपनी ही दुनिया में खोया रहे वो
हमरे दिल की न पूछे बेदर्दा।
बगिया गुन-गुन, पायल छुन - छुन
चुपके से आई है रुत मतवाली
खिल गई कलियां दुनिया जाने
लेकिन न जाने बगिया का माली
खा के गिलोरी शाम से ऊंघे
सो जाए वो दिया-बाती से पहले
आंगन अटारी में घबराई डोलूँ
चोरी के डर से दिल मोरा दहले”

Sunday, 28 January 2024

दफ्तर का अनुभव - Situational Leadership & Communication


मेरे एक बॉस हुए - मिस्टर साके। नहीं, नहीं, वो हिंदुस्तानी ही थे। आंध्रप्रदेश के विशुद्ध हिंदुस्तानी। मटन में मिर्च बहुत खाते थे और अनलिमिटेड पार्टी करते थे। इतने लिमिटलेस की रात दो बजे होटेल में चिकन ख़त्म होने पर पहले वेटर को धमकाया फिर पचास अंडे ऑर्डर कर दिया।

साके साहब धुन के पक्के थे। सुबह आठ से रात आठ कड़ी मेहनत वाले। खूब काम करो, खूब पार्टी करो। वैसे पियाक लोग साके का मतलब जानते होंगे। साके एक जापानी ड्रिंक है जो टकिला शॉट से मिलता जुलता है। मुझे याद है चीन के जापानी रेस्टोरेंट में यह परोसते तो साथ में छिलके समेत उबला अंडा देते... उसमें लहसन और मिर्च भी। माफ़ कीजिएगा पियाक शब्द ग़लत लिख गया। आवश्यक नहीं सब वही पियाक वही वाले हों... नैनों से/ के पीने वाले भी होते हैं।

उप्स, विषयांतर हो गया। तो साके सर ने काफ़ी कुछ सिखाया। मैं अधिक अग्रेसिव एम्प्लॉई था। अपना काम सही करने को अक्सर लड़ भी जाता। कोशिश की आख़िरी सीढ़ी तक जाता। लक्ष्य की प्राप्ति को सौ से अधिक प्रतिशत देने की कोशिश रहती। यहाँ तक की कोई ईमेल जब आए रिप्लाई तभी करने को तत्पर। एक बार आधी रात को मेल का रिप्लाई पाकर एक बड़े अधिकारी ने जवाब दिया था - सो जाओ, ऑफिस टाइम में जवाब दो बस। लेकिन मुझे तो तभी के तभी सब सुलटाना होता था। मैं कोई बात कहता तो डंके की चोट पर कहता। ज़ोर से कहता। हर जगह वही कहता। ना कम और ना ज़्यादा। जूनियर के साथ मीटिंग में भी और सीनियर के साथ भी... एक आध बार तो MD के सामने भी वही बात।

साके साहब ने समझाया। प्रवीण, ज़ोर से बोलना, दूसरे को चुप कर देना... इससे हासिल क्या होता है उस पर सोचना। उन्होंने उदाहरण देकर कहा - "एक ही बात को अलग अलग प्लेटफ़ॉर्म पर अलग तरीक़े से रखनी होती है। श्रोता की श्रेणी, कहने का माध्यम और हमारा प्रारब्ध अलग अलग होता है अलग अलग प्लेटफ़ॉर्म पर… हमें ये सब सोचकर एक ही बात को अलग अलग तरीक़े से रखना होता है। किसको कितना बताना है ये तय करना सीखो।"

दूसरी बात जो उन्होंने बताई - "ग़ुस्से में ईमेल या किसी भी संवाद का जवाब मत दो। अधिक ग़ुस्सा हो तो जवाब लिख कर रख लो, सेंड ना करो। कोशिश ये रहे की आधे दिन के बाद ही ईमेल आदि का रिप्लाई करो... सुबह अपने साथ लायी सकारात्मक ऊर्जा का उपयोग करो…"

ईमानदारी से कहूँगा। ये दोनों सीख अब तक काम आ रही। शत प्रतिशत ऐसा नहीं कर पाता... ग़लतियाँ होती है, किंतु कोशिश रहती है। सोशल मीडिया पर सार्वजनिक कम्यूनिकेशन, मैसेंजर पर, फ़ोन पर, सामने बैठ कर कम्यूनिकेशन... सब अलग अलग हैं। सबको असरकारी बनाने के अलग तरीक़े और समझ भिन्न होते हैं। ध्यान रखना चाहिए... सीखने और बदलने की उम्र नहीं होती कोई और न ही कोई तय शिक्षक.

आजकल अब व्यस्ततम दिनचर्या है, लगभग चौबीस घंटे दफ़्तर का तनाव, ईमेल, टारगेट, पीपीटी, रिपोर्ट्स... और इन सबके बीच दोस्तों के संवाद से ख़ुद को रिचार्ज करने की कोशिश... साके साहब बैंगलोर में एमडी हैं। बाद बाँकि आप सबका दिन आबाद रहे, आप सब ज़िंदाबाद रहें।