Sunday, 24 August 2025

साहित्य और राज्य से इतर मिथिला


मिथिला के इतिहास के नाम पर अधिकांशतः साहित्य विवेचना ही देखी है। चूँकि मैंने कोई किताब नहीं लिखी, और न ही टीवी में आता हूँ, साहित्य से इतर मिथिला का संक्षित इतिहास लिखने की धृष्टता करते डर रहा हूँ। चीज़ें शायद विस्तार से भले न मिलें, क़रीने से भी न मिले किंतु जो हैं वो सच्ची हैं इसकी गारंटी लेता हूँ।

मिथिला की गाँव वापसी

सन १८१२ में पटना की जनसंख्याँ तक़रीबन ३ लाख थी और कलकत्ता की १.७५ लाख. १८७१ में पटना १.६ लाख और कोलकाता ४.५ लाख. पटना की तरह यही हाल भागलपुर और पुरनियाँ का भी रहा. कारण दो थे. इस दौरान अंग्रेजों की मदद से कलकत्ता में फला फुला उद्योग और बिहार/ मिथिला इलाके में देशी उद्योग के विनाश से लोगों का शहर से गाँव की ओर पलायन. मिस्टर बुकानन ने अपने सर्वे में १९ वीं सदी के बड़े हिस्से तक इस पलायन की पुष्टि की है. अंग्रेजी शासन की दोहन निति के कारण शहर के उद्योग धंधे नष्ट होते गए और लोग गाँव में वापस आते गए.

इसका परिणाम गाँव के घरेलु उद्योग और कृषि क्षेत्र में उन्नति लेकर आया. दुष्परिणाम सिर्फ इतना की गाँव में काम कम और लोग ज्यादा हो गए. इस क्रम में अति तब हुई जब अंग्रेजों ने गाँव की जमीन का दोहन भी आरम्भ किया... १८५७ की क्रांति में सरकार के खिलाफ ज्यादा लोगों का जुटना संभवतः इसी करण हुआ. लोग शहर में मारे गए और गाँव में भी शुकुन से न रह पाए तो विरोध लाजिमी था. ऊपर से कुछ स्थानीय लोगों द्वारा अंग्रेजों की चमचई...

इसको लिखने का कारण सिर्फ इतना की मुझे इसी प्रकार की घुटन आज के हिन्दुस्तान में दिखती है. मुझे लगता है की लोग गाँव वापस जायेंगे... गाँव छोटे उद्योग धंधों, शिक्षा और व्यापार का केंद्र बनेगा... सरकारें जलेंगी...

दलान

उद्योग व् पलायन

अक्सर लोगों से सुनता हूँ, बिहार और मिथिला का खस्ता हाल है... लोग खतरनाक तरीके से पलायन कर रहे हैं... ब्ला ब्ला ब्ला. जरा अन्दर घुसिए तो पता चलता है की मिथिला से पलायन का इतिहास हजारों वर्ष पुराना रहा है. विद्वान, व्यापारी, मजदुर... सब बेहतर पारितोषिक के लिए बाहर जाते रहे. इतिहासकारों ने इस बात का सबुत ८०० वीं ईस्वी से बताया है.

जूट, नील और साल्ट-पिटर के नजदीकी उत्पादन क्षेत्रों (फारबिसगंज, किशनगंज दलसिंहसराय आदि) में मजदूरी के अलावा लोग मोटिया या तिहाडी मजदूरी करने नेपाल, मोरंग, सिल्लिगुड़ी और कलकत्ता भी जाते रहे हैं. श्री जे सी झा ने अपनी किताब Migration and Achievements of Maithil Pandits में लिखा है - मैथिल पंडित बेहतर अर्थ लाभ के लिए देश के अन्य क्षेत्रों में जाते रहे हैं.

हालाँकि तब और अब के इस पलायन में फर्क है. तब लोग मूलतः वापसी में अपने साथ कृषि की नई तकनीक सीख कर, स्वस्थ जीवन जीने के गुर सीखकर, घरेलु उद्योग लगाने की नई तकनीक सीख कर आते थे. जबकि अब हम छोटे कपडे, कान फाडू पंजाबी संगीत, प्रेम त्रिकोण और धोखेबाजी की नई तकनीक ज्यादा सीखते हैं.

इस दौर में एक वक़्त मिथिला क्षेत्र में उद्योग फला-फुला भी. अठारहवीं और उन्नीसवी शताब्दी में मिथिला के अलग अलग शहरों में विभिन्न उद्योग लगे. मधुबनी में मलमल, दुलालगंज व् पुरनियाँ में सस्ते कपड़ों का तो किशनगंज में कागज का उद्योग चला. दरभंगा, खगडिया, किशनगंज आदि ईलाका पीतल व् कांसे के बर्तनों के लिए जाना जाता था... भागलपुर सिल्क, डोरिया, चारखाना के लिए और मुंगेर घोड़े के नाल, स्टोव, जूते के लिए प्रसिद्ध था.

इन सबमे आश्चर्यजनक तरीके से पुरनियाँ तब भी काफी आगे था. कहते हैं पुरनियाँ का सिंदूर उत्पादन व् निर्यात तथा टेंट हाउस के सामान बनाने का काम विख्यात था. मेरे शहर दरभंगा के लोगों को बुरा न लगे इसलिए बताता चलूँ की दरभंगा शहर उस वक़्त हाथी दांत से बने सामानों का प्रमुख उत्पादन केंद्र था.


मिथिला में स्त्री

जितना पुराना इतिहास पुरुषों द्वारा मिथिला छोड़ने का रहा है ठीक उतना ही अकेली रहने वाली स्त्रियों के शोषण (विभिन्न स्तरों पर) का भी रहा. मैथिल समाज का छुपा हुआ किन्तु सत्य पक्ष है की स्त्रियाँ सताई जाती रही... परदे के पीछे यौन प्रताड़ना... लांछन... दोषारोपण... आदि करते हुए मैथिल समाज खुद को कलमुंहा साबित करता आया है.

इसका एक सकारात्मक पक्ष भी था. क्षेत्र में मैथिल स्त्रियों में शिक्षा का स्तर बढ़ा और वो स्वाबलंबी बनी. बिहार के औसतन ६% के सामने पूसा में स्त्री शिक्षा का दर १३%, सोनबरसा में ६%, मनिहारी में ९% थी. (जिन्हें % कम लग रहा है उनके लिए – १९९०-२००१ में यह दर २८% था)

स्वाभाविक रूप से गाँव की सत्ता स्त्रियों के हाथ में आ गई थी ऐसे में. गाँव की महिलाएं घरेलु उद्योग, पशु पालन आदि में आगे दिखने लगी थी. संभवतः गांधी का चरखा आन्दोलन इसी वजह से मिथिला के घर घर में पहुँच पाया.

समय के साथ साथ मैथिल स्त्रियों की दुनियां थोड़ी स्वप्निल बनाई गई जब दूर देश के सन्देश उसके पास भौतिक और काल्पनिक तरीके से पहुँचने लगे. इस रंग में भी भंग तब पड़ा जब पुरुष अपने साथ बीमारियाँ भी साथ लाने लगे.


मिथिला में जातियां

यहाँ हिन्दू परंपरा अपने प्रखरतम रूप में सभी जटिलताओं के साथ सदा विद्यमान रहीं. अलग जातियों के अलग अलग देवता और अलग गहबर होते थे. जातियों के देवताओं के नाम रोचक थे.

श्याम सिंह डोम जाति के, अमर सिंह हलवाई व् धोबियों के, गनिनाथ-गोविन्द हलवाइयों के सलहेस दुसाधों के दुलरा दयाल/ जय सिंह मल्लाहों के, विहुला तेली जाती के, दिनाभद्री मुसहरों के तो लालवन बाबा चमारों के देवता थे.

स्वाभाविक तौर पर सामाजिक कुरीतियाँ, अधविश्वास और धारणाएं ज्यादा थीं. तमाम् विरोधी उदाहरण के बावजूद ब्राम्हण, राजपूत या लाला विपदा में दुसाध, मुसहर के गहबर में जाते थे. जातियों के हिसाब से कार्य बंटे थे जो उत्तरोत्तर कम होते गए.

मिथिलांचल के कई इलाकों में मुसलमानों द्वारा मनाये जाने वाले ताजिये में हिन्दुओं का शामिल होना और हिन्दुओं के त्योहारों में मुस्लिमों के साथ होने के उदहारण भी हैं. कालांतर में हम समझदार होते गए और विषमतायें उग्र रूप धारण करने लगी.


ऐसे में यह स्पष्ट है कि हमें हमारे सीमित सोच से इतर मिथिला को बृहत् तौर पर देखे जाने की आवश्यकता है। मिथिला मात्र विद्यापति विद्यापति समारोह और प्रणाम मिथिलावासी और हमर मिथिला महान तक सीमित नहीं है। 

3 comments:

  1. Anonymous8/24/2025

    हां स्त्रियों के साथ पहले भेदभाव अत्यधिक था यौन शोषण घर में ही होता था और बाहर किसी को पता नहीं क्योंकि उसे दबा दिया जाता था, दूसरी बात हमें यह समझ में आई जाति भेदभाव यह पहले बहुत ज्यादा थी और अत्याचार भी था निम्न जाति पर ,उन्हें साथ बैठने की इजाजत नहीं थी, उनकी स्त्रियों के साथ गलत व्यवहार होता था, बाकी मेरे जैसे अनपढ़ लोगों के लिए यह लेख समझना मुश्किल है।

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  2. लेख की सबसे बड़ी विशेषता इसकी ईमानदार दृष्टि है। लेखक मिथिला के इतिहास की रोशनी में औद्योगिक उत्थान-पतन, गाँव वापसी की प्रवृत्ति और स्त्रियों की स्थिति का स्पष्ट उल्लेख करता है। विशेषकर मिथिला की स्त्री पर की गई टिप्पणी उस यथार्थ को सामने लाती है जिसे अक्सर हमारे मैथिल समाज में दबा दिया जाता है।

    लेख की संरचना थोड़ी विखंडित प्रतीत होती है। कई जगह आँकड़े और उदाहरण दिए गए हैं, पर उनके बीच क्रमबद्धता और गहन विश्लेषण की कमी है। जैसे पलायन और उद्योग पर चर्चा विस्तृत है, पर उसका तुलनात्मक अध्ययन (पूर्व और वर्तमान संदर्भों में) और स्पष्ट निष्कर्ष और अधिक मजबूत हो सकता था।

    सामाजिक कुरीतियों और जातीय जटिलताओं पर लेखक ने साहसिक टिप्पणी की है, किन्तु यह हिस्सा अधिक शोधपरक प्रमाण और तुलनात्मक उदाहरणों की माँग करता है। अन्यथा यह महज़ टिप्पणियों की तरह रह जाता है।

    यह लेख उस मानसिकता को चुनौती देता है जो मिथिला को सिर्फ "विद्यापति", "प्रणाम मिथिलावासी" या "हमर मिथिला महान" जैसी भावुकताओं में सीमित कर देती है। लेख की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि यह मिथिला को व्यापक ऐतिहासिक और सामाजिक फ्रेम में रखकर उसकी वर्तमान प्रासंगिकता को रेखांकित करता है।

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  3. Anonymous8/24/2025

    ऐसे मुद्दों का जिक्र है जिसे हर संभव कवर लगा के रखा जाता है | आजकल मिथिला विकास जिसे समझा जाता उससे तो विकास होने से रही |

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