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Sunday, 17 August 2025

अमृता - इमरोज़ की कहानी के बहाने

भारत की लोकप्रिय कवयित्रियों में से एक अमृता प्रीतम ने एक बार लिखा था- "मैं सारी ज़िंदगी जो भी सोचती और लिखती रही, वो सब देवताओं को जगाने की कोशिश थी, उन देवताओं को जो इंसान के भीतर सो गए हैं।”


अमृता और इमरोज़ के बीच का सिलसिला धीरे-धीरे ही शुरू हुआ था। अमृता ने एक चित्रकार सेठी से अपनी किताब 'आख़िरी ख़त' का कवर डिज़ाइन करने का अनुरोध किया था। सेठी ने कहा कि वो एक ऐसे व्यक्ति को जानते हैं जो ये काम उनसे बेहतर कर सकता है। सेठी के कहने पर अमृता ने इमरोज़ को अपने पास बुलाया। उस ज़माने में वो उर्दू पत्रिका शमा में काम किया करते थे। इमरोज़ ने उनके कहने पर इस किताब का डिज़ाइन तैयार किया। इमरोज़ याद करते हैं, ''उन्हें डिज़ाइन भी पसंद आ गया और आर्टिस्ट भी। उसके बाद मिलने-जुलने का सिलसिला शुरू हो गया। हम दोनों पास ही रहते थे। मैं साउथ पटेल नगर में और वो वेस्ट पटेल नगर में।" 

"एक बार मैं यूँ ही उनसे मिलने चला गया। बातों-बातों में मैंने कह दिया कि मैं आज के दिन पैदा हुआ था। गांवों में लोग पैदा तो होते हैं लेकिन उनके जन्मदिन नहीं होते। वो एक मिनट के लिए उठीं, बाहर गईं और फिर आकर वापस बैठ गईं। थोड़ी देर में एक नौकर प्लेट में केक रखकर बाहर चला गया। उन्होंने केक काट कर एक टुकड़ा मुझे दिया और एक ख़ुद लिया। ना उन्होंने हैपी बर्थडे कहा ना ही मैंने केक खाकर शुक्रिया कहा। बस एक-दूसरे को देखते रहे। आँखों से ज़रूर लग रहा था कि हम दोनों खुश हैं।'' 

पिता की चपत

ये तो एक शुरुआत भर थी लेकिन इससे बरसों पहले अमृता के ज़हन में एक काल्पनिक प्रेमी मौजूद था और उसे उन्होंने राजन नाम भी दिया था। अमृता ने इसी नाम को अपनी ज़िंदगी की पहली नज़्म का विषय बनाया। एक बार अमृता ने बीबीसी से बात करते हुए कहा था कि जब वो स्कूल में पढ़ती थीं तो उन्होंने एक नज़्म लिखी। उसे उन्होंने ये सोचकर अपनी जेब में डाल लिया कि स्कूल जाकर अपनी सहेली को दिखाऊँगी। 


अमृता अपने पिता के पास कुछ पैसे मांगने गईं। उन्होंने वो पैसे उनके हाथ में न देकर उनकी जेब में डालने चाहे। उसी जेब में वो नज़्म रखी हुई थी। पिता का हाथ उस नज़्म पर पड़ा तो उन्होंने उसे निकालकर पढ़ लिया। पूछा कि क्या इसे तुमने लिखा है। अमृता ने झूठ बोला कि ये नज़्म उनकी सहेली ने लिखी है। उन्होंने उस झूठ को पकड़ लिया और उसे दोबारा पढ़ा। पढ़ने के बाद पूछा कि ये राजन कौन है? अमृता ने कहा, कोई नहीं। उन्हें ऐतबार नहीं हुआ। पिता ने उन्हें ज़ोर से चपत लगाई और वो काग़ज़ फाड़ दिया। अमृता बताती हैं, ''ये हश्र था मेरी पहली नज़्म का। झूठ बोलकर अपनी नज़्म किसी और के नाम लगानी चाही थी लेकिन वो नज़्म एक चपत को साथ लिए फिर से मेरे नाम लग गई।'' 

अलग-अलग कमरे इमरोज़ के साथ 

दुनिया में हर आशिक़ की तमन्ना होती है कि वो अपने इश्क़ का इज़हार करें लेकिन अमृता और इमरोज़ इस मामले में अनूठे थे कि उन्होंने कभी भी एक दूसरे से नहीं कहा कि वो एक-दूसरे से प्यार करते हैं। इमरोज़ बताते हैं, ''जब प्यार है तो बोलने की क्या ज़रूरत है? फ़िल्मों में भी आप उठने-बैठने के तरीक़े से बता सकते हैं कि हीरो-हीरोइन एक दूसरे से प्यार करते हैं लेकिन वो फिर भी बार-बार कहते हैं कि वो एक-दूसरे से प्यार करते हैं और ये भी कहते हैं कि वो सच्चा प्यार करते हैं जैसे कि प्यार भी कभी झूठा होता है।'' 

परंपरा ये है कि आदमी-औरत एक ही कमरे में रहते हैं। हम पहले दिन से ही एक ही छत के नीचे अलग-अलग कमरों में रहते रहे। वो रात के समय लिखती थीं। जब ना कोई आवाज़ होती हो ना टेलीफ़ोन की घंटी बजती हो और ना कोई आता-जाता हो। उस समय मैं सो रहा होता था। उनको लिखते समय चाय चाहिए होती थी। वो ख़ुद तो उठकर चाय बनाने जा नहीं सकती थीं। इसलिए मैंने रात के एक बजे उठना शुरू कर दिया। मैं चाय बनाता और चुपचाप उनके आगे रख आता। वो लिखने में इतनी खोई हुई होती थीं कि मेरी तरफ़ देखती भी नहीं थीं। ये सिलसिला चालीस-पचास सालों तक चला। 

उमा त्रिलोक इमरोज़ और अमृता दोनों की नज़दीकी दोस्त रही हैं और उन पर उन्होंने एक किताब भी लिखी है- 'अमृता एंड इमरोज़- ए लव स्टोरी।' उमा कहती हैं कि अमृता और इमरोज़ की लव-रिलेशनशिप तो रही है लेकिन इसमें आज़ादी बहुत है। बहुत कम लोगों को पता है कि वो अलग-अलग कमरों में रहते थे एक ही घर में और जब इसका ज़िक्र होता था तो इमरोज़ कहा करते थे कि एक-दूसरे की ख़ुशबू तो आती है। ऐसा जोड़ा मैंने बहुत कम देखा है कि एक दूसरे पर इतनी निर्भरता है लेकिन कोई दावा नहीं है। 

बुख़ार गायब हुआ

वर्ष 1958 में जब इमरोज़ को मुंबई में नौकरी मिली तो अमृता को दिल ही दिल अच्छा नहीं लगा। उन्हें लगा कि साहिर लुधियानवी की तरह इमरोज़ भी उनसे अलग हो जाएंगे। इमरोज़ बताते हैं कि गुरु दत्त उन्हें अपने साथ रखना चाहते थे। वेतन पर बात तय नहीं हो पा रही थी। अचानक एक दिन अपॉएंटमेंट-लैटर आ गया और वो उतने पैसे देने के लिए राज़ी हो गए जितने मैं चाहता था। 


मैं बहुत ख़ुश हुआ। दिल्ली में अमृता ही अकेले थीं जिनसे मैं अपनी ख़ुशी शेयर कर सकता था। मुझे ख़ुश देख कर वो ख़ुश तो हुईं लेकिन फिर उनकी आंखों में आंसू आ गए। उन्होंने थोड़ा घुमा-फिराकर जताया कि वो मुझे मिस करेंगी, लेकिन कहा कुछ नहीं। मेरे जाने में अभी तीन दिन बाक़ी थे। उन्होंने कहा कि ये तीन दिन जैसे मेरी ज़िंदगी के आख़िरी दिन हों। तीन दिन हम दोनों जहाँ भी उनका जी चाहता, जाकर बैठते। फिर मैं मुंबई चला गया। मेरे जाते ही अमृता को बुख़ार आ गया। तय तो मैंने यहीं कर लिया था कि मैं वहाँ नौकरी नहीं करूँगा। दूसरे दिन ही मैंने फ़ोन किया कि मैं वापस आ रहा हूँ। उन्होंने पूछा सब कुछ ठीक है ना। मैंने कहा कि सब कुछ ठीक है लेकिन मैं इस शहर में नहीं रह सकता। मैंने तब भी उन्हें नहीं बताया कि मैं उनके लिए वापस आ रहा हूँ। मैंने उन्हें अपनी ट्रेन और कोच नंबर बता दिया था। जब मैं दिल्ली पहुंचा वो मेरे कोच के बाहर खड़ी थीं और मुझे देखते ही उनका बुख़ार उतर गया। 

साहिर से भी प्यार

अमृता को साहिर लुधियानवी से बेपनाह मोहब्बत थी। अपनी आत्मकथा 'रसीदी टिकट' में वो लिखती हैं कि किस तरह साहिर लाहौर में उनके घर आया करते थे और एक के बाद एक सिगरेट पिया करते थे। साहिर के जाने के बाद वो उनकी सिगरेट की बटों को दोबारा पिया करती थीं। इस तरह उन्हें सिगरेट पीने की लत लगी। अमृता साहिर को ताउम्र नहीं भुला पाईं और इमरोज़ को भी इसका अंदाज़ा था। अमृता और इमरोज़ की दोस्त उमा त्रिलोक कहती हैं कि ये कोई अजीब बात नहीं थी। दोनों इस बारे में काफ़ी सहज थे। 

उमा त्रिलोक आगे बताती हैं, ''वो ये कहती थी कि साहिर एक तरह से आसमान हैं और इमरोज़ मेरे घर की छत! साहिर और अमृता का प्लैटोनिक इश्क था। इमरोज़ ने मुझे एक बात बताई कि जब उनके पास कार नहीं थी वो अक्सर उन्हें स्कूटर पर ले जाते थे।" 

"अमृता की उंगलियाँ हमेशा कुछ न कुछ लिखती रहती थीं, चाहे उनके हाथ में कलम हो या न हो। उन्होंने कई बार पीछे बैठे हुए मेरी पीठ पर साहिर का नाम लिख दिया। इससे उन्हें पता चला कि वो साहिर को कितना चाहती थीं! लेकिन इससे फ़र्क क्या पड़ता है। वो उन्हें चाहती हैं तो चाहती हैं। मैं भी उन्हें चाहता हूँ।'' 

साथी भी और ड्राइवर भी

अमृता जहाँ भी जाती थीं इमरोज़ को साथ लेकर जाती थीं। यहाँ तक कि जब उन्हें राज्यसभा के लिए मनोनीत किया गया तो इमरोज़ हर दिन उनके साथ संसद भवन जाते थे और बाहर बैठकर उन का इंतज़ार किया करते थे। 


वो उनके साथी भी थे और उनके ड्राइवर भी। इमरोज़ कहते हैं, ''अमृता काफ़ी मशहूर थीं। उनको कई दूतावासों की ओर से अक्सर खाने पर बुलाया जाता था। मैं उनको लेकर जाता था और उन्हें वापस भी लाता था। मेरा नाम अगर कार्ड पर नहीं होता था तो मैं अंदर नहीं जाता था। मेरा डिनर मेरे साथ जाता था और मैं कार में बैठकर संगीत सुनते हुए अमृता का इंतज़ार करता था।" 

"धीरे-धीरे उनको पता चला गया कि इनका ब्वॉय-फ़्रेंड भी है। तब उन्होंने मेरा नाम भी कार्ड पर लिखना शुरू कर दिया। जब वो संसद भवन से बाहर निकलती थीं तो उद्घोषक को कहती थीं कि इमरोज़ को बुला दो। वो समझता था कि मैं उनका ड्राइवर हूँ। वो चिल्लाकर कहता था- इमरोज़ ड्राइवर और मैं गाड़ी लेकर पहुंच जाता था।'' 

जिस्म छोड़ा है साथ नहीं

अमृता प्रीतम का विवाह प्रीतम सिंह से हुआ था लेकिन कुछ वर्ष बाद उनका तलाक़ हो गया था। अमृता का आख़िरी समय बहुत तकलीफ़ और दर्द में बीता। बाथरूम में गिर जाने से उनके कूल्हे की हड्डी टूट गई। उसके बाद मिले दर्द ने उन्हें कभी नहीं छोड़ा। 

उमा त्रिलोक कहती हैं, ''इमरोज़ ने अमृता की सेवा करने में अपने आपको पूरी तरह से झोंक दिया। उन दिनों को अमृता के लिए इमरोज़ ने ख़ूबसूरत बना दिया। उन्होंने उनकी बीमारी को उनके साथ-साथ सहा। बहुत ही प्यार से वो उनको खिलाते, उनको पिलाते, उनको नहलाते, उनको कपड़े पहनाते। वो क़रीब-क़रीब शाकाहारी हो गईं थीं बाद में, वो उनसे बातें करते, उन पर कविताएं लिखते, उनकी पसंद के फूल लेकर आते। जबकि वो इस काबिल भी नहीं थीं कि वो हूँ-हाँ करके उसका जवाब ही दे दें।''

31 अक्तूबर 2005 को अमृता ने आख़िरी सांस ली। लेकिन इमरोज़ के लिए अमृता अब भी उनके साथ हैं। उनके बिल्कुल क़रीब। इमरोज़ कहते हैं- ''उसने जिस्म छोड़ा है साथ नहीं। वो अब भी मिलती है कभी तारों की छांव में कभी बादलों की छांव में कभी किरणों की रोशनी में कभी ख़्यालों के उजाले में हम उसी तरह मिलकर चलते हैं चुपचाप हमें चलते हुए देखकर फूल हमें बुला लेते हैं हम फूलों के घेरे में बैठकर एक-दूसरे को अपना अपना कलाम सुनाते हैं उसने जिस्म छोड़ है साथ नहीं।

नोट : यह आलेख सचिन यादव जी समेत कई अन्य आलेखों को पढ़कर लिखा गया है। इन सब बातों का ज़िक्र उमा त्रिलोक की "अमृता इमरोज़" और खुद अमृता प्रीतम की 'रसीदी टिकट" में भी है.

Saturday, 16 August 2025

"न त्वत्समश्चाभ्यधिकश्च् दृश्यते" - खट्टर काका के संस्मरण


मैथिली साहित्यक क्षितिज पर जाज्वल्यमान नक्षत्र सन अहर्निश प्रदीप्त सर्वाधिक लोकप्रिय रचनाकार प्रो.हरिमोहन झाक जन्म १८ सितम्बर १९०८ केँ वैशाली जिलाक कुमर बाजितपुर गाम मे भेल रहनि। हिंदी आ मैथिलीक लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकार जनार्दन झा जनसीदनक तेसर संतान प्रो. झा केँ संस्कार मे पांडित्य आ साहित्य परिवार सँ उपहार मे भेटलनि। बाल्यकालहि सँ 'ननकिङबू' केँ पिताक सानिध्य मे साहित्यक गहन बोध होएब आरंभ भए गेल रहनि आ खेलौनाक स्थान पर ओ शब्दालङ्कार सँ खेलाए लागल रहथि। कहबी अछि जे पिता-पुत्रक संवाद सेहो सानुप्रास पद्य मे होइत रहनि। 

प्रो. झा नियमित शिक्षा सँ दूर रहि पिताक साहचर्य मे विद्योपार्जन करैत रहलाह आ पंद्रह बरख धरि हिनक नामाकरण कोनो विद्यालय मे नहि कराओल गेल। पिताक संसर्ग मे रहैत 'ननकिङबू' पूर्ण मनोयोग सँ साहित्यिक अवगाहन करैत रहलाक आ 'अपूर्णे पंचमेवर्षे वर्णयामि जगत्रयम' चरित्रार्थ करए लगलाह । विद्यालाय मे नामांकनक समय संस्कृत मे धाराप्रवाह वक्तृता सँ अचंभित गुरुजन समाज हिनक विशिष्ट प्रतिभाक आदर कएलनि आ हिनक नामाकरण सोझे मैट्रिक मे कराओल गेल आ १९२५ मे पटना विश्वविद्यालय सँ ई प्रथम श्रेणी मे मैट्रिकक परीक्षा उतीर्ण कएलनि। १९२७ मे इंटरमिडियटक परीक्षा मे तेजस्वी छात्र हरिमोहन बिहार आ उड़ीसा मे संयुक्त रूप सँ सर्वोच्च्य स्थान प्राप्त कएलनि । १९३२ मे दर्शनशास्त्र सँ स्नातक मे सर्वोच्च स्थान प्राप्त कए स्वर्ण पदक सँ विभूषित भेलाह आ १९४८ मे पटना कॉलेज मे प्राध्यापक नियुक्त भेलाह से आगाँ पटना विश्वविद्यालय मे प्रोफेसर तथा विभागाध्यक्ष पद केँ सेहो सुशोभित केलाह ।

बाल्यकालहि सँ साहित्यिक परिवेश भेटैत रहबाक कारणेँ साहित्य मे हिनक विशेष अभिरुचि स्वभावहि भए गेल रहनि। पिता जनार्दन झा जनसीदनक बहुतो काव्यक पहिल श्रोता प्रो. झा भेल करथि। एहि क्रम मे अपने सेहो पद्य रचब आरम्भ कए देने छलाह। पिताक संग भ्रमण मे रहबाक कारण सँ हिनका विभिन्न साहित्यिक विद्वान् ओ पंडित लोकनिक सानिध्य भेटैत रहलनि। जखन पित्तिक देख-रेख मे नियमित छात्रजीवन आरंभ कएलनि तँ हिनक 'पोएट्रिक' स्थान 'ज्योमेट्री' लए लेलक। बहुमुखी प्रतिभाक संपन्न प्रो. झा सदिखन अपन अध्यापक लोकनिक प्रिय पात्र बनल रहलाह आ नियमित अध्ययनक संग साहित्य सेहो पढ़िते रहलाह। ओना तँ साहित्यिक संसर्ग हिनका सबदिना भेटैत रहलनि मुदा प्रो. झा जखन लहेरियासराय पुस्तक भंडार मे रहब आरम्भ कएलनि तखन आचर्य रामलोचन शरणक रूप मे हिनका एकगोट आदर्श साहित्यिक गुरु भेटि गेलनि। एहिठाम सँ ओ साहित्यिक क्षेत्र मे मुखर भए प्रवेश कएलनि। 

पुस्तक भंडार ताहि समय मे महत्वपूर्ण साहित्यिक केंद्र केँ रूप मे स्थापित भए गेल छल जाहि ठाम ओहि समयक अधिकांश विद्वतजनक आन- जान होइत रहैत छल। प्रतिदिन संध्या काल मे विभिन्न साहित्यिक पक्ष पर एहिठाम परिचर्चा होइत छल। एकर खूब अनुकूल प्रभाव प्रो. झाक साहित्यिक जीवन पड़ भेलनि आ हुनक साहित्यिक विकासक श्रीवृद्धि होबए लगलनि आ हिनक आरंभिक रचना सभ मैथिलीक पत्रिका 'मिथिला' मे प्रकाशित होइत रहलनि। मैथिलीक सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यास 'कन्यादान' एही पत्रिका मे पहिलुक बेर क्रमशः छपैत रहल। एही समय मे हिनक किछु छात्रोपयोगी पोथी सभ सेहो प्रकशित भेलनि यथा 'तीस दिन मे संस्कृत' ,'तीस दिन मे अंग्रेजी' आदि। ई पोथी सभ अपन रोचक शैली आ तथ्यक सहजताक कारण सँ छात्र लोकनिक बीच बहुत प्रसिद्ध भेल छल।

हरिमोहन झा जाहि समय मे रचना करैत छलाह से साहित्यिक आ सामाजिक उत्थान आ जनजागरणक समय रहैक । लोकक परिपेक्ष आ सरोकार मे परिवर्तन होएब आरम्भ भए गेल छलैक। एहि प्रभाव सँ समुच्चा विश्व एकटा नव वैचारिक परिवेश मे प्रविष्ट कए रहल छल। वैश्विक प्रभाव सँ भारत मे सेहो एकाधिक रूप मे परिवर्तन दृष्टिगोचर भए रहल छलैक । एहि परिवर्तनकारी समयक प्रभाव मे हिनक लेखनी मे समकालीन समाज मे पसरल धार्मिक रूढ़ीपंथ केर वर्णन प्रखरतम रूप मे भेटैत अछि। एहि समय मे सामान्यतः दूगोट विचारधारा मुख्य रूपेँ सक्रीय छलैक । एकटा वर्ग पाश्यात आदर्श केँ अपनबैत अपन समाज केँ पुनर्गठित आ चेतना सम्पन्न करबाक आग्रही छल तँ दोसर दिस किछु लोक अपन गौरवमय अतीत सँ सकारात्मक तत्व सबकेँ लए ताहि प्रवाभ केँ समेटैत समाज केँ पुनर्गठित आ चेतना सम्पन्न बनेबाक आग्रही छल। मिथिला पर एहि पुनरोत्थान प्रवित्ति केँ विशेष प्रभाव पड़लै। दोसर वर्ग जे पहिलुक स्थापित व्यवहारक सीमा मे रहैत सुधार चाहैत छलाह तिनकर सीमा के तोरैत हरिमोहन झा धर्मसातर पर प्रहारक रुख अपनौलनी। 

हुनक साहित्य में बुद्धिवाद और तर्कवाद केर सर्वोपरि स्थान भेटैत अछि आ हुनक धारणा रहैन जे तर्क नहि कए सकैत अछि से मूर्ख अछि। हिनक रचना मे एक दिस बौद्धक दुख:वाद केर प्रभाव तँ दोसर दिस चार्वाक केर दर्शनक प्रभाव भेटैत अछि। हिनकर लेखनी मे वर्ण व्यवस्थाक निंदा,दलित विमर्शक पक्ष,सामंती शोषणक विरोध आदि बड़ कम भेटैत अछि,तें हिनका मार्क्सवादी किंवा जनवादी तँ नहि मानवतावादी कहब बेसी युक्तसङ्गत होएत आ से हिनक रचना कन्याक जीवन आ पांच पात्र मे देखल जा सकैत अछि। ई धार्मिक पाखंड केँ अपन लेखनीक जड़ि बनौलनि आ किंसाइत एहि केँ सभक बीज मानि साबित करबाक यत्न कएलनि जे नाक एम्हर सँ छुबु वा उम्हर सँ बात एक्कहि।

अपन रचना काल मे प्रो. झा करीब दू दर्जन पोथीक रचना कएलनि। ई मूलतः गद्यकार छलाह। हिनकर लिखल मैथिली कृति मे विशेषतः उपन्यास आओर कथा अछि । यद्यपि पंडित झाक कविता सेहो ओतबे मनलग्गू आ प्रभावकारी होइत छल। कविता सभ मे व्यंग केर माध्यम सँ सामाजिक व्यवस्था पर प्रहार करैत हिनक कविता ढाला झा ,बुचकुन बाबू, पंडित आ मेम आदि सभ एखनहुँ प्रासंगिक अछि । हिनका द्वारा लिखल गेल उपन्यास सभ मे कन्यादान आ द्विरागमन सबसँ बेसी प्रसिद्ध अछि। बस्तुतः ई एके उपन्यासक दू भाग कहल जएबाक चाही । कथा संग्रह सभ मे प्रणम्य देवता,चर्चरी आ रंगशाला प्रमुख अछि । एकर अतिरिक्त हिनक आत्मकथा 'जीवन यात्रा' जे साहित्य अकादमी सँ छपल आ एहि पोथी पर पंडित झाकेँ मरणोपरांत साहित्य अकादमी पुरस्कार देल गेलनि। हिनक रचना सभ 'हरिमोहन झा रचनावली' नाम सँ सेहो प्रकाशित भेल अछि। हिनक सर्वश्रेष्ट कृति भेलनि 'खट्टर काकाक' तरंग' जकर अनुवाद कतेको भाषा मे भेल। प्रो. झा दर्शनशास्त्रक उद्भट विद्वान छलाह। एहि विषय मे हिनक सेहो किछु महत्वपूर्ण पोथी आ अनुदित पोथी सभ अछि। जाहि मे न्याय दर्शन(१९४०), निगम तर्कशास्त्र (१९५२),वैशेषिक दर्शन (१९४३),भारतीय दर्शन (अनुवाद १९५३) आ ट्रेन्ड्स ऑफ लिंग्विस्टिक एनेलिसिस इन इंडियन फिलोसोफी । एहि सभ मे हिनकर शोध ग्रंथ - “ट्रेन्ड्स ऑफ लिंग्विस्टिक एनेलिसिस इन इंडियन फिलोसोफी” सर्वाधिक प्रसिद्ध अछि। हिनक किछु रचना संस्कृत मे सेहो भेटैत अछि जाहि मे 'संस्कृत इन थर्टी डेज ' आ 'संस्कृत अनुवाद चंद्रिका' छात्रोपयोगी आ प्रसिद्ध अछि। एकर अतिरिक्त प्रो झा कतिपय पोथी/पत्रिकाक सम्पादन कएल जाहि मे 'जयंती स्मारक प्रमुख अछि।

प्रो.झा द्वारा लिखल कथा आ ताहि मे वर्णित पात्र लोकक स्मृति मे सहजहि घर करैत अछि आ किछु पात्र तँ एतेक प्रचलित भेल जकर उदहारण एखनहुँ लोकव्यवहार मे अकानल जा सकैत अछि। चाहे तितिर दाई होथि वा खटर काका। के एहन मैथिलीक पाठक हेताह जे एहि पात्र सँ अवगत नहि हेताह। वस्तुतः प्रो झा केँ अपन भाषा पर ततेक मजगूत पकड़ छनि जे अपन शब्द विन्यास सँ कथानक केँ नचबैत लोकक स्मृति मे अपन विशिष्ट स्थान बनबैत अछि। अपन कथा सभ मे क्लिष्ट संस्कृतक शब्द सभक परित्याग करैत लोक मे प्रचलित शब्द आ फकड़ा आदिक प्रयोग करैत रचना सभ केँ जनसामान्यक लगीच अनैत अछि। गामक ठेंठ शब्द आ गमैया परिवेशक वर्णन करैत सामाजिक कुरुति पर व्यंगक माध्यमे अपन भाषाक निजताक पूर्ण व्यवहार करैत अमर रचना सभ करैत रहलाह। रचना सभ पढ़ैत काल वर्णित घटनाक्रम सद्य: घटित आ वास्तविक प्रतिक होइत अछि। पढ़ैत काल कखन हँसी छुटत आ कखन आँखि नोरायत ई अटकर कठिन भए जाइत अछि। 
हिनक रचना सभ मे परिवर्तनक स्वर उठैत अछि। नव परिवेशक झाँकी प्रस्तुत करैत अछि। पाठक केँ उचित -अनुचित सँ अवगत करबैत ओकरा अपन स्वत्व केँ चिन्हबाक मादे प्रेरित करैत अछि। ग्रामसेविका,मर्यादाक भंग ,ग्रेजुएट पुतौह एहने भूमिका मे लिखल कथा सभ अछि जे एकटा परिवर्तित समाज आ ताहि मे स्त्रीक भूमिका केँ सोंझा अनैत अछि। सामाजिक रूढ़ता पर प्रहार करैत कथा कन्याक जीवन , परिवारिक सामंजस्य आ मध्यम वर्गीय परिवारक सुच्चा चित्रण करैत कथा पंच पत्र आ मिथिलाक व्यवहार सँ परिचित करबैत कथा तिरहुताम सन अनेको कथा सभ अपन संवाद शैली आ कथ्य केर लेल विश्व साहित्यक कोनो भाषा केँ समक्ष ठाढ़ होएबाक सामर्थ्य रखैत अछि।

प्रो.झाक पत्र लिखबाक शैली सेहो विलक्षण रहनि। पिता,अग्रज,माए,पुत्र आ पत्नी सँ नियमित पत्राचार होइत छलनि।आगाँ साहित्यिक पत्राचार सेहो खूब होबए लगलनि। एहि पत्र सभ मे एकदिस प्रो.झाक व्यक्तिगत जिनगी केँ बहुत लगीच सँ देखल जाए सकैत अछि तँ दोसर दिस समकालीन परिदृश्य आ परिस्थितिक केँ सेहो फरीछ अवलोकन होइत अछि। आत्मीय भाषा शैली आ लेखनी मे निहित आपकता सहजहि आकर्षित करैत अछि। हिनक एहि विधाक विलक्षणता दू गोट कथा मे खूब प्रमुखता सँ उजागर भेल अछि। पहिल कथा अछि पाँच पत्र आ दोसर अछि दरोगाजीक मोंछ। पाँच पत्र कथा मे पांच गोट छोट -छोट पत्रक सङ्कलन अछि आ विशेषता ई जे पांचो पत्र विभिन्न मनोभावक मे एकटा समयांतरक संग लिखल गेल अछि। कथाक स्वरुप एकदम छोट अछि मुदा जँ भाव पक्षक विस्तार करी तँ एकटा सम्पूर्ण महाकाव्य बनि सोझाँ अबैत अछि। अभिव्यंजनाक शैली मे लिखल ई कथा अपन विशिष्ट शैलीक कारणे मैथिली साहित्य मे पृथक स्थान रखैत अछि। एहि मे निहित यथार्थक बोध ,करुणा ,सम्बन्धक गरिमा ओ आत्मीयता ,वैवाहिक जीवन आ पारिवारिक स्थिति एकहि संह मुखर भए पाठकक सोझाँ अबैत अछि। दोसर कथा अछि दरोग़ाजिक मोंछ। एहि मे संशय आ द्वन्द केर चित्रण भेल अछि जकर जड़ि मे रहैत अछि एकगोट अधटुकड़ी पत्र। ई कथा अपन रोचक सस्पेंश आ विलक्षण शिल्पक एकगोट माइलस्टोन ठाढ़ करैत अछि। प्रो.झाक केँ डायरी लिखब सेहो खूब रुचैत रहनि। प्रतिदिन किछु ने किछु लिखथि। अपन विचार सभकेँ 'My Stray Thoughts' शीर्षक सँ नोटबुक मे लिखल करथि। एहिसभ विधा मे लिखल रचना सभ संकलन आ प्रकाशनक माँग करैत अछि जाहि सँ पाठक अपन लोकप्रिय साहित्यकार केँ आओर लगीच सँ जानि सकताह।

हरिमोहन झाक गद्य सँ हमरा लोकनि खूब नीक सँ परिचित छी। एहन विरले मैथिली साहित्यानुरागी होएताह जे हिनक कथा सँ परिचय नहि हेतनि। गद्यक तुलना मे हिनक पद्य सँ पाठकक परिचय कम भेल अछि। हिनक गद्य ततेक लोकप्रिय भेलनि जे एहि आलोक मे हिनक पद्य हराएल सन लगैत अछि। बाद मे हरिमोहन झा रचनावली भाग ‍१ सँ ४ धरि प्रकाशित भेल आ रचनावलीक चारिम भाग मे हुनक ओ कविता सभ संकलित कएल गेल जे प्रणम्य देवता ओ खट्टर ककाक तरंग नामक पोथीमे नहि आएल छल। हरिमोहन झा समय-समय पर कविता सेहो लिखैत रहलाह जे विभिन्न समकालीन पत्र - पत्रिका सभ मे प्रकाशित होइत रहल। 

मिथिला मे व्याप्त आडम्बर, अर्थाभाव, परिवर्तित होइत समय आदि विभिन्न विषय पर लिखल हिनक कविता सभ अपन विलक्षण शिल्प आ अद्भभुत शैलीक हेतु सर्वथा पठनीय आ चिंतनीय अछि। हरिमोहन झाक कविता सभ सेहो हुनक कथे जकाँ हास्य-व्यंग सँ ओतप्रोत अछि। एहि व्यंगक ई विशेषता अछि जे ई अपन साहित्यिक गरिमाक निर्वहण करैत एकटा नव दृष्टिकोण पाठकक सोझाँ अनैत अछि। स्थापित चलन ओ कोनहुना ढोआ रहल परिपाटीक विरोध जखन एहि विधाक संग पद्य मे अबैत अछि तँ मनलग्गू होएबाक संगहि एकटा गंभीर विमर्श ठाढ़ करैत अछि जाहि मे समकालीन परिस्थितिक संग आँखि मिलेबाक खगता अभरैत अछि। प्रो.झाक कविता कतेको कवि सम्मलेन आ कवि गोष्ठीक आकर्षण रहल अछि।

प्रो झाक जीवन एकटा स्फुट किंवदंती सँ कम नहि कहल जाए सकैत अछि। प्रो.झा सँ संबंधित बहुतो संस्मरण सभ भेटैत अछि। एहि संस्मरण सभ मे हुनकर व्यक्तित्वक विलक्षणता ,आशु प्रतिभा, नामक धाख,साहित्यिक ओजन ,लिखबाक सनक आ अधीत विद्वताक परिचय भेटैत अछि। हिनक सद्यः स्फूर्त कविताक विषय मे एकगोट प्रचलित संस्मरण एहि प्रकार सँ अछि। जखन ई बीस बरखक रहथि तखन भारतीय हिंदी साहित्य सम्मलेनक अधिवेशन ( मुज्जफ्फारपुर) हरिऔधजीक अध्यक्षता मे भेल रहैक आ मंच पर रामधारी सिंह दिनकर,गोपाल सिंह नेपाली,राम वृक्ष बेनीपुरी सन उद्भट विद्वान सभ उपस्थित रहथिन। एहि बीच एकटा ठेंठ भोजपुरिया कवि मंच पर आबि तिरहुतिया केँ बनबए लगलाह आ कविता पाठ करैत कहला : "अइली अइसन तिरहुत देस/मउगा अदमी उजबुज भेस// मन लायक भोजन न पैली,चुडा दही फेंट कर खैली। एकर उतारा मे प्रो. झा अपन कविता मे कहलखिन -"भोजपुरिया सब केहन कठोर ,पुछैथ तसलबा तोर की मोर// सतुआ के मुठरा जे सानथि,चुडा दहिक मर्म की जानथि। सभा भवन करतल ध्वनि सँ गूँज उठल,हरिऔध जी माला पहिरौलखिन,बेनीपुरी जी बजला बचबा खूब सुनाओल,थएथए भ गेल ,आ भोजपुरिया कवि भरि पाँज कए धए कहलखिन आब तिरहुतक लोहा मानि गेलहुँ। ` 

एहने एकटा आओर संस्मरण अछि। एक बेर आकाशवाणी मे प्रतिभागीक चयन करबाक लेल हिनका जज चुनल गेल रहनि। एकटा गायक ऑडिशन मे समदाउन उठओलक "बड़ रे जतन सँ सिया दाए कें पाललहुँ , सेहो रघुबर लेने जाय।" से तेना खिसिया कए गौलकैक जे बुझाए सियाजीक पोसबाक खरचा माँगि रहल हो। जखन हरिमोहन झाकें पूछल गेलनि जे समदाउन केहन लागल तँ ओ अपन उत्तर मे कहलखिन जे हिनक विधा सँ सम हटा दियौ, ई दाउने टा कए रहल छथि।

मैथिली साहित्य मे विद्यापतिक बाद सबसँ लोकप्रिय जँ कोनो साहित्यकार भेलाह तँ से थिकाह हरिमोहन झा। हिनका द्वारा बनाओल साहित्यिक पात्र सभ आमलोकक बीच खूब प्रचलित भेल। जिनका साहित्यिक रूचि नहिओ रहनि सेहो लोकनि एहि पात्र सभसँ परिचित छलाह आ सामाजिक विभिन्न पक्ष केँ एहि पात्र सभक माध्यम सँ बूझैत छलाह। कोनो साहित्यकारक सभ सँ पैघ उपलब्धि ई होइत छैक जे ओकर रचनाक प्रभाव सँ किछु सकारात्मक परिवेशक निर्माण समाज मे होइ आ ई उपलब्धि तखन आओर विशिष्ट भए जाइत छैक जखन रचनाकार केँ प्रत्यक्ष रूप सँ ई दृष्टिगोचर होइत छैक। प्रो. झाक साहित्यक लोक पड़ अकल्पनीय प्रभाव पड़लैक। कन्यादान पढ़लाक उपरान्त बहुतो युवक लोकनि अपन विवाह मे टाका नहि लेलनि। गामक कतेको कन्या लोकनि बुच्चीदाइ सँ प्रभावित भए आधुनिक शिक्षा लेबाक लेल अग्रसर भेलीह। जाहि अभिजात्य वर्गक किछु लोक हिनक विरोध करैत छल ,हिनक साहित्य केँ अश्लील कहैत छल ताही वर्गक बहुतो माए लोकनि अपन कन्याक विवाह मे 'कन्यादान' पोथी साँठए लगलीह। एहन कहबी अछि जे अभिजात्य पंडित वर्ग प्रो. झाक साहित्यक दिन मे खिधांस करैत छलाह ओ लोकनि राति मे लालटेन मे हिनक साहित्य पढ़ैत छलाह। प्रो. झा मिथिला मे व्याप्त आडम्बर,स्त्री शिक्षाक प्रति उदासीनता, कन्या विवाह आ बहु विवाह सन स्थापित कुरीति आ जाति-धर्मक विभेद मे ओझराएल समाजक विभिन्न आयाम केँ अपन साहित्य मे उजागर करैत,अपन तर्क सँ ओकरा खंडित करैत, ताहि सँ होबए बाला हानि केँ उजागर करैत सहज भाषा आ मनलग्गू संवाद शैली मे पाठक धरि आनि एकदिस सूतल समाज मे चेतनाक विस्तार कएलनि आ दोसर दिस मैथिली कथा साहित्य केँ मजबूती दैत स्थापित सेहो कएलनि।

जहिना विद्यापति मैथिली पद्य केँ स्थापित कएलाह आ एकरा आमलोक धरि पहुँचा साहित्यिक प्रतिष्ठा प्रदान कएलनि तहिना हरिमोहन झा मैथिली गद्य केँ एकटा नव आयाम दैत बेस पठनीय बनओलनि आ मैथिली गद्यक विद्यापति कहेबाक अवसर पओलनि। मैथिलीक श्रीवृद्धिक लेल आजीवन साकांक्ष रहल प्रो. झा द्वारा लिखल उपन्यास 'कन्यादान' पर पहिल मैथिली सिनेमा सेहो बनल। एखनधरि मैथिली मे सबसँ बेसी पढ़ल जाए बला लेखकक गौरव सेहो हिनकहि प्राप्त छनि। हिनक बहुत रास पोथी आब अनुपलब्ध भए रहल अछि आ एहि पोथी सभक मात्र फोटोकॉपी उपलब्ध भए पबैत अछि। एहि मादे विशेष पहल करबाक खगता अछि। मैथिलि भाषा केँ स्थापित करबा मे, लोकप्रिय बनएबा मे, एकर एकगोट बजार विकसित करबा मे हिनक योगदान अभूतपूर्व छनि । ई काव्य शास्त्र विनोदेना बला उक्ति केँ पूर्णतः सत्यापित करैत काव्य, शास्त्र आ विनोद तीनू पर सामान अधिपत्य रखैत अपन रचना सभ मे दिगंत धरि जिबैत २३ फ़रवरी १९८४ केँ देहातीत भेलाह। जिनकर एक कान मे सदति वेदक ऋचा गुंजायमान होइत रहलनि आ दोसर कान मे फ्रायड किंवा चार्वाकक सूक्ति समाहित रहनि, जे विनोद मे खट्टर कका रहथि आ दर्शन मे विकट पाहून, जिनका पर कन्यादान दायित्व रहनि आ तकर जे द्विरागमन धरि निर्वाह कएलनि,मैथिली साहित्यक एहि पितृ पुरुषक आयाम केँ प्रणाम।

सन्दर्भ :
१.देसिल बयना –हरिमोहन झा विशेषांक
२.अंतिका – हरिमोहन झा विशेषांक
३. हरिमोहन झा रचनावली
४. जीवन यात्रा
५ . बिछल कथा

विकास वत्सनाभ

Monday, 4 August 2025

काली भैंस के दूध से कैसे गोरा हो सकता हूँ माँ - संघी मोगैंबो

एक वक़्त था जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सनातनी और देशभक्ति की विचारधारा में पलने वाले अमरीश पुरी जी ने कभी भी फिल्मों में काम न करने का निर्णय लिया था। बाद में मुंबई रहकर लगभग 18 वर्ष के संघर्ष के बाद फ़िल्मों की शुरुआत करते हुए उसी अमरीश पुरी ने हिंदी के अलावा कन्नड़, पंजाबी, मलयालम, तेलुगू, तमिल और हॉलीवुड समेत करीब 400 फिल्मों में काम किया। 

जी हाँ, अमरीश पुरी संघी थे ! 

अमरीश पुरी का जन्म 22 जून 1932 को पंजाब प्रान्त हुआ था। उनके पिता का नाम लाला निहाल सिंह और माता जी का नाम वेद कौर था। चमन पुरी, मदन पुरी, बहन चंद्रकांता और उनके छोटे भाई हरीश पुरी समेत वो पाँच भाई बहन थे। पंजाब और फिर दिल्ली के अपने घरों में रहकर उन्होंने आरम्भिक शिक्षा प्राप्त की थी। 

उनके बचपन की एक रोचक बात है कि चूँकि वो दिखने में सभी भाई बहनों में थोड़े काले थे, पहले तो काफी दूध पीया की शायद गोरा हो जाऊं फिर एक बार जब काली भैंस देखी तो कहा की इसके दूध से तो मैं और भी काला हो जाऊंगा, क्योंकि भैंस काली है - सो अपनी माता जी को आगे भैंस का दूध न देने का आग्रह कर दिया। 

अमरीश के बड़े भाई चमन और मदन पुरी सिनेमा में पहले से थे। मदन तो कोलकाता से अपनी नौकरी छोड़कर मुंबई चले गए थे जिसपर अमरीश पुरी के पिता बहुत नाखुश थे। उनके हिसाब से उनके परिवार में सबको सरकारी नौकरी करनी चाहिए। बकौल निहाल सिंह, फ़िल्मी दुनियां पाप और पापियों का अड्डा है जहाँ सिर्फ राजा महाराजा टाइप लोगों को जाना चाहिए। वो अपने साथ रह रहे अमरीश को अक्सर ऐसा कहते कि फिल्मों से दूर रहो। नतीजतन अमरीश पूरी ने लगभग 15 साल की बाली उम्र में ही यह तय कर लिया कि था वो कुछ भी करेंगे, फिल्मों में नहीं जायेंगे।


निहाल सिंह जी की सोच के पीछे एक ख़ास वजह थी। उन्होंने अपने भतीजे और संभवतः बॉलीवुड के पहले सुपर स्टार के एल सहगल को मात्र 42 वर्ष की उम्र में मरते देखा था। कहते हैं, शहगल साहब ड्रम के ड्रम रम पी जाया करते थे... तो अमरीश जी अपने पिता को दुःख न पहुंचाने का और फिल्मों की ओर रुख न करने का प्रण लेते हुए बी एम् कॉलेज शिमला में मन लगा कर पढ़ने लगे... ताकि अच्छी सरकारी नौकरी मिल सके। 

चूँकि वो वक़्त आजादी से पहले का था। कॉलेज के शुरूआती दिनों में ही देशप्रेम और आज़ादी की ओर आकर्षित होते हुए अमरीश पुरी ने आर. एस. एस. की सदस्यता ले ली। संघ के साथ जुड़कर अमरीश जी के साथ दो महत्वपूर्ण बातें हुयी। पहला की - उनके आदर्श बदल गए और "फ़िल्मी दुनियां गलत है" - अपने पिता के अलावा वो भी ऐसा मानने लगे। दूसरी बात - अमरीश पुरी देशभक्ति के रंग में रंग गए। उस वक़्त संघ की 'राष्ट्र के लिए बलिदान' की विचारधारा से प्रभावित अमरीश पुरी थोड़े दिनों में ही संघ के प्रशिक्षु से प्रशिक्षक बन गए। वो संघ के शिविरों में युवाओं को सैनिक प्रशिक्षण देने लगे। संभवत: आजीवन अनुशासित और सादगी भारी ज़िंदगी को जीना उन्होंने यहीं से सीखा। 

संघ के सम्बन्ध में अपनी आत्मकथा में उन्होंने कहा है - "बहुत ईमानदारी से कहूंगा कि मैं हिंदुत्व की विचारधारा की ओर आकर्षित हुआ था, जिसके अनुसार हम हिंदू हैं और हमें विदेशी शक्तियों से हिंदुस्तान की रक्षा करनी है, उन्हें निकाल बाहर करना है ताकि अपने देश पर हमारा शासन हो। लेकिन, इसका धार्मिक कट्टरता से कोई सम्बंध नहीं था, यह मात्र देशभक्ति थी"

आगे जनवरी 1948 में महात्मा गांधी की हत्या और उसमें संघ के होने की सम्भावना ने अमरीश पुरी को संघ से थोड़ा विमुख कर दिया। वो इसके ख़िलाफ़ कभी कुछ न बोले किंतु धीरे धीरे अलग होकर कॉलेज में नाटक और गायन करने लगे। यही नहीं, शिक्षा पूरी कर वो मुंबई अपने भाई मदन पुरी के पास चले गए। 


कई सारे स्क्रीन टेस्ट में फ़ेल होने के बाद अमरीश पुरी ने वहाँ मुफ़्त में थिएटर में काम करना शुरू किया। गुज़ारे के लिए यहाँ वहाँ नौकरी में हाथ मारते रहे। कभी माचिस के ब्राण्ड का कमीशन एजेंट बने तो कभी बीमा कम्पनी के लिपिक। बीमा कम्पनी में काम करते उसी दफ़्तर में उनकी जीवन संगिनी भी मिली। 27 वर्ष की उम्र में उन्होंने उर्मिला जी से शादी कर ली। ज़िम्मेवारी बढ़ी तो ध्यान ऐक्टिंग से हट कर नौकरी पर ही रहा। दफ़्तर के ही एक महानुभाव इब्राहिम अलका जी को न जाने कैसे उनमें ऐक्टर दिख गया और वो मुफ़्त में थिएटर करने लगे।  

क़िस्मत देखिए की पहले नाटक में अंधे का रोल मिला और दूजे में मृत व्यक्ति का। दोनों रोल में आँखें निर्जीव और खुली रखनी थी। इस तरह लगभग 17-18 साल मुफ़्त में थिएटर करते अमरीश पुरी अपनी पहली फ़िल्म के मक़ाम पर पहुँचे। अपनी राष्ट्रवादी छवि और लॉबी न बना पाने की आज से उन्हें कोई नामचीन पुरस्कार तो नहीं मिल पाया किंतु दर्शकों का बेपनाह प्यार ऐसा मिला की लोग फ़िल्मी दुनियाँ के विलेन "मोगेम्बो" और "मिस्टर इंडिया" से प्रेम करने लगे। लोग हीरोईन के खड़ूस बाप बलदेव सिंह को दिल दे बैठे। 

अमरीश पुरी के अभिनय से सजी कुछ मशहूर फिल्मों में 'निशांत', 'गांधी', 'कुली', 'नगीना', 'राम लखन', 'त्रिदेव', 'फूल और कांटे', 'विश्वात्मा', 'दामिनी', 'करण अर्जुन', 'कोयला' आदि शामिल हैं। उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय फिल्‍म 'गांधी' में 'खान' की भूमिका भी निभाई थी। उनके जीवन की अंतिम फिल्‍म 'किसना' थी जो 2004 में ब्रेन ट्यूमर से हुई उनकी मौत के बाद 2005 में रिलीज हुई। 

थिएटर से कोई पैसा न बना पाने वाले अमरीश पुरी ने कहा था - "मैंने जीवन में जो कुछ हासिल किया उसका श्रेय सिर्फ़ और सिर्फ़ थिएटर को जाता है।" अपनी आत्मकथा "एक्ट ऑफ़ लाइफ़" में अमरीश पुरी कहते हैं - "जीवन का सूक्ष्म अवलोकन ही एक अभिनेता को असाधारण बनाता है।"

Thursday, 16 January 2025

श्रेष्ठ शासक, दानवीर, धर्म रक्षक और दूरदर्शी उद्योगपति राजा - रामेश्वर सिंह ठाकुर

एक #मैथिल थे... जो 1878 में भारतीय सिविल सेवा में भर्ती हुए थे और फिर क्रमशः दरभंगा, छपरा तथा भागलपुर में सहायक मजिस्ट्रेट रहे। वो लेफ्टिनेन्ट गवर्नर की कार्यकारी परिषद में नियुक्त होने वाले पहले भारतीय भी थे।

वह 1899 में भारत के गवर्नर जनरल की भारत परिषद के सदस्य थे। बिहार लैंडहोल्डर एसोसिएशन के अध्यक्ष, ऑल इंडिया लैंडहोल्डर एसोसिएशन के अध्यक्ष, भारत धर्म महामंडल के अध्यक्ष, राज्य परिषद के सदस्य, कलकत्ता में विक्टोरिया मेमोरियल के ट्रस्टी, हिंदू विश्वविद्यालय सोसायटी के अध्यक्ष और भारतीय पुलिस आयोग के सदस्य भी थे वो मैथिल।

ये मैथिल कामाख्या मंदिर के प्रबंध न्यासी भी थे... भारतीय उद्योग संघ के अध्यक्ष भी थे, मैथिल महासभा के अध्यक्ष भी थे और गंगा केनाल कमीशन के सदस्य भी थे। 

इस मैथिल भाई ने बिहार में चीनी कारखाना लगाया, बंगाल में जुट कारखाना लगाया, कानपुर में कपड़ा कारखाना भी लगाया, असम में चाय बगान भी डाला और पटना में प्रकाशन की स्थापना भी की।

ये गैर झा / मिश्रा मैथिल ऐसे दानी थे की कोलकाता यूनिवर्सिटी, पटना मेडिकल कॉलेज, दिल्ली के लेडी हार्डिंग कॉलेज, अलाहाबाद यूनिवर्सिटी और अलीगढ़ यूनिवर्सिटी को जमीन, मकान और अकूत धन दे दिया।

इतनी विविधताओं का नेतृत्व करनेवाला भारत में तो क्या दुनियाँ भर में शायद ही कोई दूसरा होगा। शासन, धर्म, स्वास्थ्य, उद्योग और शिक्षा के तत्कालीन सर्वोच्च संस्थाओं का एक साथ अध्यक्षीय पद का निर्वाहन करने की क्षमता भारत के दूसरे किसी व्यक्ति में नहीं है। 

कहते हैं रामेश्वर सिंह जब 1898 में राज दरभंगा यानी 'आरडी ग्रुप आफ कंपनी' की कमान संभाले तो कंपनी का वेल्थ 19 करोड़ के करीब था. 1929 में उन्होंने अपनी कारोबारी सूझबूझ से कंपनी को लगभग 2 हजार करोड़ की कंपनी बना दिया था. इस मैथिल का रिकार्ड रतन टाटा भी नहीं तोड़ पाये...

किन्तु... किन्तु, किन्तु, किन्तु साहिबान... हम मैथिल महान कविता पाठ, माला-दोपटा-पाग और झा-2 की आड़ में इस महापुरुष को भुला बैठे हैं। हम इनके द्वारा निर्मित बिल्डिंग्स के सामने फोटो सेशन और रील मेकिंग तो कर लेते हैं किन्तु इस महान विभूति सह उनकी कीर्तियों को बिसार देते हैं।

आज ही के दिन 16 जनवरी 1860 को जन्में दरभंगा महाराज स्व. रामेश्वर सिंह ठाकुर को नमन !


#DarbhangaMaharaj #RameshwarSingh #MithilaState