Wednesday, 10 April 2024

मेरा बियॉन्ड द लिमिट सोचना


यूँ ही सोचते रहने की आदत है सो सोचते रहते हैं हम ! हालाँकि इस चक्कर में खुद के सर के बाल भी साथ छोड़ गए. घर परिवार वाले भी बस मजबूरीवश ही साथ हैं, वरना तो इस सोचते रहने की आदत की वजह से कई बार ये भी भूल जाता हूँ की मैं भाई, दोस्त, पिता, पति और पुत्र भी हूँ. अब करूँ भी तो क्या, सोचता तो उनके बारे में भी हूँ न. हां ये दीगर बात है कि कई बार ‘बियॉन्ड दी लिमिट’ सोच जाता हूँ और जिसका मुझसे या मेरे करीबियों से कोई लेना देना नहीं. अच्छा ऐसा भी नहीं है कि मुझे इसका कोई प्राप्य नहीं, आखिरी बार यूँ ही जब सघन सोच में था तो धर्मपत्नी ने ‘पागल’ कह कर मेरा उत्साह वर्धन किया था.

अब चाहे जो भी हो मेरा ये मानना है की हर इंसान सोच रहा है. अगर जो वो सोचे न तो फिर वो इंसान नहीं भगवान् घोषित हो. सोचने की अपनी अपनी लिमिट होती होगी, दायरा भी होगा अपना अलग अलग. लेकिन मेरा ये शत प्रतिशत मानना है कि हम सबके सोचने में कोई न कोई समरसता तो होगी ही. मेरी समस्या शायद यह है कि मेरे अन्दर यही समरसता नहीं.

अब देखो, सोते समय अगर मैं ये सोचने लगूं की मैं बहुत अच्छा इंसान नहीं हूँ क्योंकि मैंने आज एक दुकानदार से ढेरों सामान निकलवाये और लिया बस एक. अब सोच यहाँ तक जाती है की– वो दुकानदार जरुर मुझे बद्दुआ दे रहा होगा और मुझे कल उसके दूकान पर जाकर उससे माफ़ी मांगनी चाहिए और उसके दिखाए सारे सामान खरीद लेने चाहिए– आप क्या कहेंगे इस सोच पर ?

एक दिन यूँ ही बस में सफ़र कर रहा था तो अचानक से सोच आने लगी – "ये दुनिया ही एकदम से गलत बनायीं है बनाने वालो ने. कोई तारतम्य नहीं है चीजों को बनाने में. कहीं कुछ कम है तो कहीं कुछ ज्यादा. मुझे किसी से बात करके दुनिया भर की तामीर को तोड़ फोड़ देना चहिये और सब कुछ नए सिरे से बनाना चाहिए. सड़कें, पुल, इमारतें, फ्लाईओवर, पेड़ पौधे, नदियाँ…. सब के सब कबाड़ कर उसे करीने से सजाते हुए लगाना चाहिए"- इसी सोच के चक्कर में उस दिन मैं राजकोट जीरो माईल उतरने के बजाय २० किलोमीटर आगे चला गया था.

मैं जब सोचने पर आ जाता हूँ तो कुछ भी सोच लेता हूँ. आपको बता दूँ, मैं यात्रा में निशाचर हो जाता हूँ. एक बार ट्रेन में चेयर-कार की सुविधा का आनंद लेता हुआ मैं दिल्ली जा रहा था. सुबह के २ बजे होंगे. समूचे डब्बे में लोग सो रहे थे. औंधे मुंह. कोई इधर तो कोई उधर. कोई तो मुंह ढँक कर सो रहा था और कोई मुंह फाड़ कर. न किसी को कपड़ों का लिहाज और न ये समझ की किसके कंधे पे सोये हैं. सो भैय्या ऐसे सबके सोये मने मेरी सोच जाग उठी – "ये सारे लोग कितने गलत तरीके से बैठे हैं यार. सीट समायोज्य होने चाहिए थे. ये क्या की कोई किसी अन्य के परिवार के साथ ऐसे बैठा है... और फिर सोते समय सब के धड़ एक तरफ ही झुके क्यों नहीं... या फिर जिनके कपडे अपनी जगहों पे नहीं वो लोग दुसरे की आँखों से ओझल क्यूँ नहीं हो जाते" – इस सोच का अंत ऐसे हुआ की एक महिला ने मेरी नजरों पर संदेह करते हुए अपने पतिदेव को जगा दिया.

मुझे पता है आप में से कई लोग अब तक मेरी धर्मपत्नी द्वारा कहे शब्द को सच मान चुके होंगे या फिर इस लेख के ख़त्म होने के इन्तजार में होंगे. मुझे नहीं लगता इसमें मेरा कोई भी दोष है. अगर दोष है तो बस उसमें जिसने मुझे बनाया. अब देखिये जब माइक्रोसॉफ्ट एक ही तरह के सॉफ्टवेयर बना सकता है जो हरेक बार एक ही तरह से काम करता है, हर बार ५ और ५ का जोड़ १० ही बताता है तो फिर ऊपर वाले ने क्यों ऐसा नहीं किया हमारे साथ. क्यों हम हर बार अलग अलग तरीके से और अलग परिणाम देने वाला काम कर जाते हैं भला ? खैर, इस चक्कर में और इस तरह के कई और लफड़ों में ऊपर वाले को दोषी मानते हुए मैंने उसे भी नीचे वाला हीं मानना शुरू कर दिया है – हाँ, मेरे इस अजूबे और अनोखे सोच का नतीजा यह है कि लोग मुझे नास्तिक मानने लगे हैं.

एक बार की बात है पत्नी (धर्म वाली ) के साथ मुंबई में एक होटल में रुका था. खूब घुमे, खाया-पीया लेकिन बीवी को इस बात का दर्द था की टैक्सी वाले ने सिर्फ ११०० रूपये ही क्यों लिए. अब मेरी सोच शुरू - "अरे ओये भगवान् जी महाराज, आपने ये नियम सार्वजानिक क्यूँ नहीं किया की ‘खर्चा जो है वो मजे का अनुक्र्मानुपाती है’ – खैर मेरा क्या. मैं सोचने लगा और फिर बीवी से कह दिया की अगली बार जब कभी हमें घुमने और मजे करने का मन होगा तो कुछ हजार रूपये हम कहीं किसी नदी में बहा आयेंगे या फिर फाड़ कर गुड्डी की तरह हवा में उड़ा देंगे. लेकिन इस सोच का अंत बड़ा ही अजीबोगरीब हुआ. जब मैं अपने बटुए के साथ साथ उसमे से झांकते ३३०० रूपये के गुम होने की खुशखबरी पत्नी को सुनाने लगा तो उसने अगले एक सप्ताह तक मौन व्रत धारण कर लिया.

जब कभी कोई सोच मुझे बहुत जोर मारने लगती है तो मैं एकांतवास में किसी नदी का किनारा धड लेता हूँ. ऐसे ही एक दिन एक सोच से प्रताड़ित होता हुआ बैठा था. मेरी सोच का विषय था मानवता में समता. दरअसल, इस सोच मे कुछ सेन्सरशिप है सो ज्यादा नहीं कह पाऊंगा. सिवाय इसके की – जब कभी किसी राह चलती महिला या नवयुवती को देखता हूँ तो वो संदेह की नज़रों से क्यों घूरती है, जबकि उसी तरीके से और उतने ही सेकेंड के लिए मैं किसी पुरुष या नवयुवक को भी देखता हूँ – अब सोच का क्या, आ कर चला गया किन्तु इस सोच को लोगों को बताने से होने वाले परिणामों को सोच मैं आजतक सशंकित हूँ.

ऐसा नहीं की मैं रिश्तों के बारे में नहीं सोचता. कई बार ये भी मन में आया है की अगर मेरा बेटा मुझसे ज्यादा समझदार है और कमाऊ है तो फिर घर का गार्जियन वो क्यों नहीं है...या फिर मेरा छोटा भाई या छोटी बहन मुझ बड़े से ज्यादा परिपक्व है तो फिर प्राथमिकता उसे क्यों नहीं…

खैर जाने दीजिये.. आपलोग मेरी सोच के चक्कर में ना पड़ें और एक बार ये सोच कर देखें की – देश का प्रधानमंत्री-नरेन्द्र मोदी, रक्षा मंत्री- राहुल गाँधी, कानून मंत्री - अरविन्द केजरीवाल, गृह मंत्री - ममता बनर्जी, विदेश मंत्री - शशि थरूर और वित्त मंत्री - अमर्त्य सेन को बना दें तो अच्छा नहीं होता ? 

- आचार्य प्रवीण आनंद जी महाराज !

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