Tuesday, 19 March 2024

एकल मन में मौजूद दोनों पंथ

"कई बार यूँ ही देखा है, ये जो मन की सीमा-रेखा है, मन तोड़ने लगता है" - गीतकार योगेश और गायक मुकेश ने रजनीगंधा फ़िल्म में प्रस्तुत किया है यह सुंदर गीत। गाने में मेरी पसंदीदा नायिका अपने बिखड़े बालों के साथ सड़क पर कुछ तलाशती नज़र आती है... विद्या सिन्हा साड़ी में सेंसुअस लगती ही है। आगे नायक दिनेश ठाकुर जब कार में बैठ कर बड़ी सी सिगरेट जला बाहर देख रहा होता है तो नायिका भी बार बार पलट कर उसकी ओर देखती है... शायद उसे नायक से अपेक्षा होती है कि वो कुछ कहे। नायक बेफ़िकर हो सिगरेट का धुआँ छोड़ रहा होता है। सीट पर रखे नायक के एक हाथ को नायिका के साड़ी का पल्लू छूता जाता है... नायक नायिका दोनों विपरीत दिशा में देख रहे होते हैं... ऐसे में भले ही दुनियाँ के सामने दोनों एक दूजे को कुछ न कह रहे हों किंतु नायक का हाथ और नायिका के साड़ी का पल्लू एक दूसरे से कुछ कह रहे होते हैं शायद...


असल में खामखां ही लिख गया ये सब... जैसे क्रिकेट का स्कोर बताते हुए कोई क्रिकेट विशेषज्ञ बन जाता है वैसे मैं भी बेफजूल ही कमेंट्री कर बैठा. दरअसल मुझे कहना ये था कि इस गीत में मन की सीमा रेखा को मन द्वारा तोड़ने की जो बात हुई है वो ग़लत है. मेरी समझ में एक आदमी (या औरत) में ही दो आदमी या दो औरत होते हैं जो एक दूसरे से तालमेल नहीं रखते, एक दूजे की बात से इत्तेफ़ाक नहीं रखते... और यही एक दूसरे को तोड़ते हैं.

इस हिसाब से गीतकार योगेश का विरोध जताते हुए मैं यह कहना चाहता हूँ की इंसान का शरीर एक भले हो, उसमें दो इंसान रहता है। एक पक्ष और दुजा प्रतिपक्ष... या शायद एक दक्षिणपंथी और दुजा वामपंथी. एक जिसे सही ठहराता है दुजा उसे ही ग़लत कहता है. इंसान भले बाहर से एक दिखने का नाटक करता हो, अंदर ही अंदर वो ख़ुद के ही अंदर वाले दुसरे व्यक्ति से जूझता रहता है. किसी एक ही परिस्थिति में एक पल को आदमी के अन्दर का एक आदमी आनंदित होकर इसे नियति मान लेता है, दूजे ही पल किसी वजह से आये अवरोधक पर उसे ये सब बेफजूल और पाप या दुष्कर्म मानने लगता है. दोनों ही एक ही मन है... एक सामने, एक पीछे नेपथ्य में... बारी बारी से मंच पर अपनी प्रस्तुति देता... फिल्मों के डबल रोल सा... 

मुझे लगता है कि दुनियाँ को नजर में आने वाला हमारे अंदर का शख़्स शायद दक्षिणपंथी ही होता है और वो जो सामने नहीं आता, अंदर ही अंदर उसे तोड़ता रहता है वो पक्का वामपंथी होता है. समाज को दिखने वाला हमारा दक्षिणपंथी चेहरा सब कुछ आयडीयलिस्टिक भले करता हो, अंदर का दूसरा (वामी) इंसान उसे बार बार कहता रहता है - "स्याले, इतना दिखावा क्यूँ करता है, सब पता है मुझे कि अंदर से क्या है तू... चाहता तो कुछ और है तू... बोलता कुछ और है... तेरे मन में साले जॉन एलिया है लेकिन बाहर से राजन जी महराज बना है.."

कई बार अंदर का यह द्वन्द इतना अधिक हो जाता होगा की हमारे अंदर का छुपा हुआ वामपंथी चेहरा उसे ही धमकाता होगा - "सुधर जा वरना कहीं मैं सामने आ गया तो दुनियाँ के सामने तेरे नाटक का पटाक्षेप हो जाएगा, सबके सामने तेरा असली चेहरा आकर तेरी पोल खोल जाएगा"

ऐसे में हमारे अंदर का पहला मानव इस छुपे (किंतु असली) मानव को समझाता होगा.... समझाता क्या, उसको नयी नवेली दुल्हन की तरह पोलहाता होगा - "मान जाओ, प्लीज़, मान जाओ न, मुझे बने रहने दो न 'महान'... आख़िर हम दोनों एक ही शरीर (लोकतंत्र) के वासी हैं न, मेरी भलाई तुम्हारी भलाई..." और फिर मुख्य इंसान यानी की लोकतंत्र उस उस दिन बस थोड़ा ठमक भर जाता है जब उसका वामपंथी चेहरा जवाब देता है - "देख, तेरी ही भलाई को कहता हूँ, स्वयं और स्वयं की प्रस्तुति में अधिक बड़ी खाई रखेगा तो एक दिन उसी में गिर जाएगा" - किन्तु अफसोस ! यह ठमकना क्षणिक मात्र के लिए इसलिए होता है क्योंकि सत्ता और सारे टूल्स दक्षिणपंथी चेहरे के पास हैं, उसे पता है कि उसके अंदर का वामपंथ भले कितना भी क़समकस करे, उसे दबाया जा सकता है... ऐसे में यह निर्धारित करना की असल दोषी कौन सा पंथ है, मुश्किल है... बेहतर कौन है, कहना मुश्किल है... बेहतर तो शायद यही है कि दोनों के बीच की खाई न्यून हो और दोनों थोडा सामंजस्य दिखाएँ...


Note ~ कैसा लगा अवश्य बताएँ, पेमेंट गूगल पे पर कर सकते हैं... अग्रिम धन्यवाद समेत - आपका शुभेक्षु - रिटायर्ड आचार्य - प्रवीण कुमार झा "बेलौनवाले"

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