२४ जनवरी को कर्पूरी ठाकुर जी का जन्मदिन है। वो कर्पूरी ठाकुर जो मेरी समझ से बिहार में पिछड़ों के पहले नेता थे। हालाँकि पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के राजनैतिक गुरुओं की समस्या है कि वो अपने समाज के दबे कुचले होने की बात तो करते हैं किन्तु इनकी ऊर्जा मुलभुत समस्याओं को दूर करने के बजाय अगड़ों या बहुसंख्यकों को नीचा दिखाने में अधिक खर्च होती है।

मुझे आज भी उम्मीद है इस वर्ग से उस नेता के उभरने की जो द्वेष और हीन भावना से ऊपर उठकर अपने समाज का हित करे। पता नहीं क्यों हम ओबैसी और चंद्रशेखर ही पैदा करते हैं जिनकी राजनीती सिर्फ विरोध के इर्दगिर्द घूमकर शुरू होती है और फिर किसी न किसी की भक्ति में समाप्त हो जाती है।
कर्पूरी जी उस वक़्त अपने समाज में दसवीं की पास करने वाले बिरले होंगे। उनके पिता उन्हें लेकर गांव के धनाढ्य (कथित उच्च वर्ग) के पास ये खुशखबरी देने गए तो जवाब मिला - "वाह, मैट्रिक पास केलें, पैर दबा हमर कने" दो सवाल हैं कि उनके पिता वहां क्यों गए और क्या सभी उच्च वर्गीय ऐसे होते हैं ?
ये शायद इसी बात का परिणाम था कि कर्पूरी बिहार की राजनीती में चल रहे अगड़ों के वर्चस्व को समाप्त करने में आजन्म लगे रहे। वो राजनीती, शिक्षा और नौकरियों में पिछड़ों की हिस्सेदारी हेतु शार्ट कट अपनाते रहे। शार्ट कट इसलिए क्योंकि दूरगामी परिणाम वाली चीजें न करने की वजह से उनके हिस्से का फोकस किया समाज आज भी बेहतर हालत में नहीं है।
खैर, तो प्रथम मुख्यमंत्रित्व काल में यशवंत सिन्हा जी इनके मुख्य सचिव रहे। कर्पूरी बाबू सर्वप्रथम पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण का प्रस्ताव रख इसे अमल में लाया। दूसरे कार्यकाल में मुंगेरी लाल कमीशन को लागु कर इन्होने बैकवार्ड राजनीती में भी दो धरा बना दिया जो कर्पूरी फार्मूला के नाम से प्रसिद्द हुआ। आगे इन्होने ३ % महिला और ३% अगड़ी जाती के पिछड़ों के लिए भी आरक्षण का प्रस्ताव रखा जो की काबिले तारीफ़ था।
कर्पूरी शिक्षा मंत्री भी रहे। दसवीं में अंग्रेजी की अनिवार्यता को समाप्त कर के बिहार की शिक्षा व्यवस्था को बर्बाद करने का पहला कदम कर्पूरी ठाकुर ने ही लिया। उर्दू को राज्य की दूसरी राजकीय भाषा बनाने का श्रेय भी इनको ही जाता है। कर्पूरी ने शिक्षा के क्षेत्र में एक अनोखा काम किया था। पहली बार मिशनरी स्कूल में हिंदी को अनिवार्य विषय बनाने का निर्णय उनका ही रहा। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि मैथिली को अष्टम सूची में शामिल करने को सबसे पहली बार इन्होने ही केंद्र को लिखा था जिसे लोकसभा में तब के सांसद गौरीशंकर राजहंस ने पढ़ा भी था।
उनके कई करीबी लोग अंत समय में कर्पूरी के भ्रष्ट होने की बात भी करते हैं। लोग यह भी कहते हैं कि दूसरी पारी में कर्पूरी बाबू सुबह ब्रश तभी करते जब अकाउंट में कुछ पैसे आ जाते थे। ये वक़्त था जब कर्पूरी यादव जैसी कौम को छोड़कर मलाह, कुर्मी, चमार आदि से जुड़ने की कोशिश करने लगे थे. अपनी मौत से ३ दिन पहले ही इस वर्ग के लिए बड़ी रैली भी की। आज की राजनीती के बड़े धुरंधर लालू, राम विलास आदि ने पिछड़ों से कनेक्ट करने का तरीका इनसे ही सीखा। लालू जी तो इन्हें कॉपी में इतने आगे निकल गए की लोग इन्हें "कपटी ठाकुर" कहने लगे।
आंदोलनरत युवाओं को उनसे सिखने लायक काफी कुछ है। कर्पूरी बाबू पहले बिहारी राजनीतिज्ञ थे आंदोलन में "जिहाद" शब्द का इस्तेमाल किया था। हालाँकि यह जिहाद कांग्रेस के खिलाफ था। नुक्कड़ सभाओं के द्वारा छोटे छोटे समूहों को जगाना उन्होंने ही आरम्भ किया था। उनका दिया नारा - "पूरा राशन पूरा काम, नहीं तो होगा चक्का जाम" बहुत अधिक प्रसिद्ध रहा। जन आंदोलन के दौर में लोहिया की इच्छा के विपरीत ये जनसंघ के साथ भी गये।
मैं आज भी इसकी वजह नहीं ढूंढ पाया की आखिर क्यों बेटे को अमरीका ईलाज का इंदिरा गाँधी का प्रस्ताव ठुकरा कर इन्होने जे पी के कहने पर न्यूजीलैंड में इलाज करवाया था। शायद ये उनका कट्टर कांग्रेस विरोध हो.... आखिर पहली गैर कांग्रेसी सरकार के नेता बनने का सौभाग्य प्राप्त था उन्हें जिसे मेंटेन करना चाहते हों वो। दीगर बात है कि आज उनके चेले फट चुके कांग्रेस के पिछवाड़े में ही सुकून महसूस कर रहे।
इन सभी बातों से दीगर कर्पूरी ठाकुर की मौत संदेहास्पद रही। उनकी लोकप्रियता कई लोगों के लिए नागवार थी और यही वजह है कि इनके मौत की जांच आवश्यक है। अफ़सोस बड़े बड़े दलित चिंतक और इनके किसी चेले ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। यह सवाल आज भी जिन्दा है कि आखिर क्यों जबकि उच्च रक्त चाप व दिल के मरीज के लिए नमक खाना जहर के समान है, बावजूद उन्हें सांख्य योगक्रिया के तहत अतुलानंद ने 16 फरवरी 1988 को पानी में सेंधा नमक मिलाकर तेरह लीटर पानी पिलाया और 17 फरवरी को अस्पताल में उनकी मौत हो गयी?
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