
स्वामी विवेकानंद शिकागो शहर में गेरुआ वस्त्र पहने घूम रहे थे। कुछ लोगों का अत्याधिक कौतूहल देख बोले - "देखिये, आपके अमेरिका में एक दर्जी सुंदर वेषभूषा सिल कर किसी को भी सभ्य पुरुष बना देता है, परंतु हमारे भारत में चरित्र ही किसी को सभ्य पुरुष बनाता है।"
स्वामी विवेकानंद जी के ही हिसाब से - मनुष्य का चरित्र इससे तय होता है कि किसी भी काम के प्रति उसकी प्रवृत्ति कैसी है। वह वही बनता है जो उसके विचार उसे बनाते हैं। हम कर्म करते हैं और इस दौरान आये प्रत्येक विचार जिसका हम चिंतन करते हैं, वे सब हमारे चित्त पर अपना प्रभाव छोड़ते हैं। प्रत्येक मनुष्य का चरित्र इन सारे प्रभावों के आधार पर तय होता है। यदि यह प्रभाव अच्छा हो तो चरित्र अच्छा होता है और यदि खराब तो चरित्र बुरा होता है।
चरित्र निर्माण की इस प्रक्रिया से जहां यह निर्धारित होता है कि कोई व्यक्ति आगे चलकर कैसा बनेगा, वहीं यह भी तय होता है कि इससे भावी समाज और संसार का निर्माण कैसा होगा। आज अगर हम अपने आसपास भ्रष्टाचार, दुराचार और ऐसी ही समस्याओं की अधिकता देख रहे हैं, तो इन समस्याओं का मूल कारण चरित्र निर्माण की उपेक्षा ही है।
आज के दौर में अपने क्षणिक स्वार्थ में लोग जीवन के इस सबसे महत्वपूर्ण कार्य यानी चरित्र निर्माण को भुला बैठे हैं। यही वजह है कि ऊपरी तौर पर विकास के नए-नए रिकॉर्ड बनाने के बावजूद हमारा समाज नैतिक मूल्यों के पतन की समस्या से बुरी तरह जूझ रहा है। इसका परिणाम गंभीर मनोरोगों से लेकर आपसी कलह, अशांति और गहन विषाद रूपी ला-इलाज बीमारी बन रहा है। चरित्र निर्माण की बातें, आज परिवारों में उपेक्षित हैं, शैक्षणिक संस्थानों में नादारद हैं, समाज में लुप्तप्रायः है। शायद ही इसको लेकर कहीं गंभीर चर्चा होती हो। जबकि घर-परिवार एवं शिक्षा के साथ व्यक्ति निर्माण, समाज निर्माण और राष्ट्र निर्माण का जो रिश्ता जोड़ा जाता है, वह चरित्र निर्माण की धूरी पर ही टिका हुआ है। आश्चर्य नहीं कि हर युग के विचारक, समाज सुधारक चरित्र निर्माण पर बल देते रहे हैं। चरित्र निर्माण के बिना अविभावकों की चिंता, शिक्षा के प्रयोग, समाज का निर्माण अधूरा है।
मेरी समझ से सरकार द्वारा किये जा रहे या किये जानेवाले विकास कार्यों से भी जरूरी समाज के लिए चरित्र का विकास है। वो चरित्र ही है जो बड़े से बड़े लालच में भी व्यक्ति को अपने कर्तव्य पथ से डिगने नहीं देती। कोई भी व्यक्ति सत्कर्मों और अच्छे विचारों से अपने चरित्र का निर्माण कर सकता है... उसमें निरंतरता कायम रख सकता है।
जिस तरह जीवित रहने के लिए सांस चाहिए और पोषण के लिए शरीर को भोजन-पानी की जरूरत होती है, उसी तरह चरित्र बनाए रखने के लिए भी उसे अच्छे विचारों के खाद-पानी की जरूरत होती है और यह खाद-पानी खुद को अनुशासित रखने मात्र से ही मिलती है।
अनुशासन के अभाव में जब हम अपने नैतिक मूल्यों से तालमेल नहीं बिठा पाते हैं, तो हम भीतर से टूट जाते हैं और ऐसे में वह बाहरी समाज से भी समायोजन करने में नाकाम हो जाता है। चरित्र निर्माण में अच्छे विचारों और चिंतन से ज्यादा महत्व श्रेष्ठ आचरण का है। हमारे विचार, कर्म, व्यवहार, चरित्र और लक्ष्य प्राप्ति सभी कुछ एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। हम जैसा सोचते हैं, वैसा ही पाते हैं।
एक विचारक कह गए हैं - "अपने विचार का बीज बोओ, कर्म की खेती काटो। कर्म का बीज बोओ, व्यवहार की फसल पाओ। व्यवहार का बीज बोओ, चरित्र (कीर्ति) का फल पाओ। चरित्र का बीज बोओ, भाग्य की फसल काटो।"
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