Sunday, 7 April 2024

भाजपा स्थापना दिवस विशेष - चुनाव जीतना नहीं समाज सुधारना उद्देश्य

एक समर्थ राष्ट्र और बेहतर समाज निर्माण के लक्ष्य के साथ भाजपा का गठन 6 अप्रैल, 1980 को नई दिल्ली के कोटला मैदान में आयोजित एक कार्यकर्ता अधिवेशन में किया गया था जहाँ प्रथम अध्यक्ष श्री अटल बिहारी वाजपेयी निर्वाचित हुए थे. 

कभी आरएसएस की पार्टी से अब मोदी-शाह की पार्टी बन चुकी भाजपा के स्थापना दिवस पर जबकि देश भर में दो लाख बड़े झंडे फहराने का लक्ष्य रखा गया था, एक समय था जब भाजपा कार्यकर्ता की जेब में दो रूपये नहीं थे, उसके पास स्वयं के भोजन की गारंटी नहीं थी. आज लाखों की भीड़ एक कस्बे में जुटाने वाली पार्टी के पास कभी अनुमंडल में दस कार्यकर्त्ता नहीं थे. 

इस अवसर पर जबकि नई पीढ़ी भाजपा को अमीरों, ऐशबाज़ों और राजनैतिक निश्चिंतता की पार्टी मात्र मानती है, बीते जमाने के कुछ ऐसे क़िस्से प्रस्तुत हैं जो मैंने अलग अलग समय में लिखे थे. उद्देश्य तब की भाजपा और अब की भाजपा को बताना है... जबकि आज राजनीती ठेका और शोशेबाजी प्रधान हो चली है. किसी का कोई विरोध या समर्थन भी उद्देश्य नहीं. पढ़ें - दस रोचक कथाएं.

(१) भाजपा तब और अब

राजनीति में सूचिता और धर्म का पालन करने की बात की थी भाजपा ने अपने #स्थापना पर. आपने दो दशकों तक इसका पालन भी किया... फिर आपलोगों ने आज एक राष्ट्रीय दल को गुजरात का दल बना दिया. आप बनिया पार्टी कहे जाते थे, आज बनियागिरी मात्र उद्देश्य है. तब आप भले दो सीट वाले थे, सिद्धांतों के पक्के और विचारधारा पर अडिग माने जाते थे, आप सच में कांग्रेस के एंटी विचारधारा वाले माने जाते थे. दुर्भाग्य, आज आपने अपने अन्दर न केवल कांग्रेसी लोग बल्कि उनकी दूषित विचारधारा का भी समावेश कर लिया... पहले दिल जीता करते थे, अब चुनाव मात्र और वो भी उन्हीं सब सब हथकंडों को अपना कर जिसका विरोध आपकी राजनीति थी.

(२) जक्शन पार्टी से जनसंघ और फिर भाजपा

जनसंघ से पहले जनता पार्टी और भी भारतीय जनता पार्टी. इस सफ़र की शुरुआत से पहले का सर्वाधिक स्कोर था ३२ जो भाजपा के २ से आरम्भ हुआ था. भाजपा उस वक़्त कैडर बेस दल हुआ करता था. उसका कार्यकर्ता चना फाँक कर और सतुआ पी कर वो कमाल कर जाता था जो आज के महँगे पोस्टर और टेकी प्रचार से नहीं होता.

एक घटना मिथिला से है कि दरभंगा जिला अंतर्गत गाँव नवानगर के स्व. उमाकान्त झा जी अपने एकमात्र माइक ऑपरेटर को लेकर बैलगाड़ी से गाँव गाँव प्रचार करते. साथ में थोड़ा चना और सत्तू बांधा होता बाँकि गाँव वालों पर निर्भर होता था अगर वो कुछ खिला दें तो. उस वक़्त गाँव का गाँव कांग्रेसी ही था. जनसंघ से नई नई बनी भाजपा को कई सालों तक लोग जक्शन पार्टी कहते रहे. एक गाँव (देकुलि) में ऐसा हुआ की 'जक्शन पार्टी' की टायर गाड़ी पर गाँव के एक दबंग कांग्रेसी ने झबड़ा कुत्ता हुलका दिया और कहा गया कि आप इस गाँव में प्रवेश नहीं कर सकते हैं. मिथिला के एक और प्रसिद्ध गाँव नवादा में गाँव से बाहर की गाछी में बड़ी मुश्किल से सभा करने की अनुमति मिली...वहाँ बने एकमात्र सदस्य ने उमा बाबु को चुरा दही भी खिलाया.

इसी तरह की कथाएँ देश के कई अन्य स्थानों की भी है। जहाँ आज के कार्यकर्ता बड़ी गाड़ी के बिना टुसकते नहीं वहीं उस वक़्त सायकल से ७०-८० किलोमीटर नाप दिया जाता था. इसी त्याग और समर्पण की बुवाई आज पार्टी काट रही है.

(३) स्वदेशी जागरण मंच

जब आपकी #स्थापना हुई थी... आपके साथ आरएसएस का एक मंच हुआ करता था, "स्वदेशी जागरण मंच". असल में यह मंच अभी भी है... कहीं दबा कुचला कोने में पड़ा हुआ, मगर उस वक़्त इसकी बहुत चर्चा थी. ख़ुद को कांग्रेस से अलग आर्थिक नीति वाला साबित करते थे ये लोग. स्वदेशी अपनाओ, विदेशी छोड़ो, कृषि को व्यवसाय बनाओ.. यही नारा था इनका. कई जगह विदेशी सामान की होली जला देते थे ये लोग... इनका दावा था, एक बार इनका दल सत्ता में आ जाए, स्वदेशी और कृषि के प्रसार से देश की आर्थिक दशा दुनिया में सबसे बेहतर होगी.

आज आपके और मेरे सामने है... मनमोहन सिंह की आर्थिक नीति से एक क़दम आगे नहीं बढ़ पाए हैं ये लोग... अब स्वदेशी जागरण मंच का नाम भी नहीं लेता कोई. स्वदेशी के नाम पर रामदेव बाबा ने इस दल का चुनाव ख़र्चा विभाग मात्र खोल लिया है. खेती की बात करने की ज़रूरत है क्या

(४) दरभंगा में गोविन्दाचार्य जी - समाज सुधरे का मकसद

बात संभवत: 1980 के आस पास की है. उन दिनों दरभंगा आरएसएस दफ़्तर में गोविंदाचार्य जी रहा करते थे. स्व. उमाकांत जी कार्यालय प्रभारी थे. दरभंगा टावर पर कुछ मनचले लड़के कॉलेज की लड़कियों को छेड़ते थे. ये दोनों व्यक्ति दरभंगा पुलिस दफ़्तर में शिकायत लेकर गए और उमा बाबू मैथिली में शिकायत करने लगे तो पुलिस के बड़े साहब अंग्रेज़ी में बोलने लगे... जवाब में गोविंदाचार्य जी साहब के सामने बैठ गए और उन्हें सात भाषाओं में अपनी शिकायत बताई. पुलिस दफ़्तर के साहब का जवाब था - "भाई हम तो कुछ नहीं कर सकते, देख लो जो तुम लोग हीं कुछ कर सकते हो तो" उमा बाबू, गोविंदाचार्य जी के साथ चुपचाप वहाँ से निकल आए.


अगले दिन कॉलेज का वक़्त समाप्त हुआ, लड़कियाँ आई, वो लड़के भी... और छेड़ने लगे. अचानक से उन लड़कों को कुछ लोग पिटने लगे और यूँ पीटा की कहते हैं, दरभंगा टावर पर अगले 15 साल तक कोई छेड़ छाड़ नहीं हुई. कांड के बाद सभी लड़के संघ के दफ़्तर में अपना अपना हथियार (छड़ी, पेना और लाठी) रख आए.

तो वो भी एक दौर था, ये भी एक दौर है, वसूलों का... जब गोविंदाचार्य कहते थे - हम चुनाव जीतने मात्र को नहीं आए हैं... हमारा मक़सद है समाज सुधरे. #स्थापना दिवस मनाने वालों... चुनाव जीतना और सत्ता हथियाना मात्र मक़सद बना लिया है आज तुम लोगों ने.

(५) जब सड़क पर मंत्री जी को कार्यकर्त्ता ने रोका

दल में कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाने की बात याद आ गयी.भाजपा में इस गुण का अविष्कार हुआ था शायद. 1978, राँची. स्वर्गीय कैलाशपति मिश्रा नए नए मंत्री बने थे. अंबेसडर कार से झक्क सफ़ेद धोती कुर्ते में आ रहे थे. रास्ते में मटमैले धोती कुर्ते में कोई खड़ा था. सेक्योरिटी ने कहा - साहब, कोई कार्यकर्ता है, बोल रहा है - "ये कार, ये झक्क सफ़ेद कपड़े सब मेरी वजह से हैं, दिया है तो उतारना भी आता है. बोलो अपने मंत्री को की मिलें पहले फिर आगे जाने दूँगा"

कैलाशपति जी कार से उतरे, उमा जी को गले लगाया और सब बात चीत ख़त्म कर उनके ठिकाने तक छोड़ा... एक कार्यकर्ता की यह इज़्ज़त थी उस वक़्त. आज कार्यकर्ताओं को गाली देकर, डंडे बरसा कर भाग दिया जाता है... किसी किसी राज्य में तो कार्यकर्ता जिनसे चुनाव रूपी युद्ध लड़ते हैं बाद में दल के बडे लोग उन्हीं के साथ मिलकर सरकार बना लेते हैं... कार्यकर्ता ख़ून के घूँट पी कर रह जाता है... कल जब उसे उम्मीद होती थी की ईमानदार प्रयास और सूचिता उसे पार्टी में ऊपर पहुँचा देगी वहीं आज ऊपर पहुँचने का क्रायटेरिया दल के लिए पैसा जमा करने की औक़ात और अन्य दलों में पहुँच मात्र है. #स्थापना दिवस पर आप करोड़ों खर्चें, ठीक है.. मगर एक बार तो सुन लेते कार्यकर्ता की.

(६) बहेड़ा, दरभंगा - यज्ञ स्थल पर महिलाएं लड़ी

स्व. उमा जी गाँव में रहते, अटल, आडवाणी, गोविन्दाचार्य, कैलाशपति मिश्रा आदि से जुड़े रहे. देश के अलग अलग राज्यों में सरस्वती शिशु विद्या मंदिर की स्थापना, दुरूह ईलाकों में संघ के शाखा की शुरुआत, कच्छ का रण, आदिवासी इलाकों में धर्म परिवर्तन की लड़ाई, उग्र कम्युनिस्ट द्वारा फसल की लुट-पाट के खिलाफ आवाज, इलाके के आतंक "मालवर डाकू" का खात्मा.. इमरजेंसी में गाँव के हर परिवार से एक सदस्य को न केवल जेल ले जाना बल्कि वहां जेल के अन्दर गुंडों की पिटाई.. हर जगह उमा बाबु न के केवल अग्रणी रहे बल्कि संघ और भाजपा के मूल मन्त्र "समाज में सुधार" को जी कर दिखाया.

इस सम्बन्ध में दरभंगा जिले के बहेड़ा क्षेत्र में आयोजित एक यज्ञ में सांप्रदायिक शक्तियों द्वारा उत्पन्न विघ्न बाधा और प्रशासन द्वारा लगाए प्रतिबन्ध के समय की एक कथा बड़ी रोचक है जब उन्होंने यज्ञ में आयीं महिलाओं को वहां के बर्तनों और लकड़ियों से अपनी लड़ाई करना सिखाया.

(७) नावानगर के संघी उमा बाबु जो गाँव के हर एक परिवार से आदमी जेल ले गए

दरभंगा बेनीपुर को केंद्र में रखकर एक साधारण कार्यकर्त्ता नावानगर वासी उमाकांत बाबु पुरे प्रदेश की भाजपा को "सँभालते" कभी अध्यक्ष रहे स्व. ताराकांत झा जी इनको गुरु जी कहते, पाँव छूते. उनको उमा बाबु ने चुनाव लडवा दिया. बोले - आप बस नमस्ते करना जनता को, मैं देख लूँगा आगे, दरभंगा में बाये बने वकिल स्व. शिवनाथ वर्मा को संघ के कार्यकर्ताओं की मदद से जाना पहचाना नाम बना दिया... आज के कट्टर लालू दल समर्थक "अब्दुल बारी सिद्दकी" कभी उमा बाबु के चेले हुआ करते थे. कहते हैं आज तक पटना सिद्दकी के आवास पर लोग उमा बाबु के नाम से काम निकलवाते हैं.


हमारे इलाके में हावीभुआर, महिनाम, नवादा और मझौडा बड़े गाँव थे. कांग्रेसी और दबंग स्व. महेंद्र झा आजाद के आगे जाने की हिम्मत नहीं होती किसी की. ऐसे में वहां शाखा लगवा देना, स्व. रामाश्रय राय (धरौरा), पवन ठाकुर (मझौडा), बिमलेंदु जी (पौड़ी), महेंद्र झा (महिनाम), सुरेश सिंह, (बेनीपुर), हरिश्चंद्र झा (नवादा), जीतेन्द्र बाबु (देकुली) .... ये उमा बाबु की पहली फसल थी. आज के दरभंगा शहर विधायक संजय सरावगी हर महीने आशीर्वाद लेने आते, वर्तमान दरभंगा सांसद गोपला जी ठाकुर कभी इनका झोला उठाने वालों में से रहे, पूर्व सांसद कीर्ति आजाद ने उमा बाबु के सम्मान में उनका गाँव गोद लिया...

हालाँकि इनके गाँव को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा, विकास कार्य अवरुद्ध रहे किन्तु सूबे भर में गाँव की इज्जत थी.. पटना भाजपा कार्यालय से रणनीति हेतु तलब होती इनकी... हालाँकि आज के धुरंधर भाजपाई सब भुला बैठे हैं.

(८) अल्पसंख्यक चेहरा - सिकंदर बख्त


भाजपा में एक चेहरा हुए सिकंदर बख़्त। जैसे आज मुख़्तार अब्बास नकवी हैं वैसे उस वक़्त दल में अल्पसंख्यक चेहरा रहे सिकंदर बख़्त। हालाँकि सिकंदर बख़्त मलाई नहीं खा पाए. बख़्त साहब हाकी के अच्छे खिलाड़ी थे और जीवन का पहला चुनाव दिल्ली नगर निगम का जीते किंतु कांग्रेस के नेता के रूप में. बाद में १९६९ के कांग्रेस के विभाजन से इनका मोहभंग हो गया और इमर्जेन्सी में लगभग साल भर जेल में रहे. इसके बाद बख्त साहब जनता पार्टी के टिकट से चाँदनी चौक के सांसद बन गए. १९८० में भाजपा की स्थापना के बाद वो महासचिव बने और फिर ४ वर्षों के बाद पदोन्नत होकर उपाध्यक्ष. केंद्र सरकार में कई बार मंत्री भी रहे और मृत्यु के वक़्त वो केरल के राज्यपाल थे.


इनका ज़िक्र इसलिए क्योंकि उस वक़्त अल्पसंख्यक का मुखौटा भी परिणाम देने वाला था ना कि मात्र अल्पसंख्यक होने के नाम पर राज्यसभा की लालसा पाले आज के थकेले.

(९) आडवाणी थे पहले मेनेजर (प्रबंधक)

कांग्रेस एक बड़ी पार्टी थी किंतु उसका हर एक विभाग और क्षेत्र गांधी परिवार से शुरू होता, वहीं विस्तार पाता और वहीं उसका क्रियाकलाप और लेखा जोखा रहता. आडवाणी जी के नाम यह एक और बड़ी उपलब्धि रही की उन्होंने दल में न केवल अलग अलग विभाग बनाए बल्कि उनका अघोषित विभागाध्यक्ष भी बनाया. जैसे दल में सदस्यता के लिए कौन कार्य करेगा, दल के लिए पैसे कौन लाएगा, प्रचार प्रसार का कार्यभार किसका होगा, दल के संचालन में टेक्नॉलजी कौन लाएगा, आगामी नीतियाँ कौन बनाएगा, विदेश विभाग या अर्थ नीति संकोष्ठ... यहाँ तक की ग्रामीण क्षेत्र कौन देखेगा और शहरी कौन ? आडवाणी अलग अलग स्तर की मीटिंग में नयी पीढ़ी के नेताओं को प्रोत्साहन देते रहे जो की मेरी समझ से आप फिर लुप्त है.

दरअसल भारतीय राजनीति में लाल कृष्ण आडवाणी दृढ़ निश्चय के साथ प्रबंधन के प्रथम उदाहरण रहे।

(१०) भाजपा का शरीर

भाजपा का बेस अटल आडवाणी मुरली मनोहर रहे. बाद में इसमें कई चेहरे जुड़े जिनमें भैरोसिंह शेखावत, उमा भारती, कल्याण सिंह, कैलाशपति मिश्रा आदि हुए. किंतु तीन प्रमुख नाम यही रहे. यदि मैं एक शरीर से इसकी तुलना करूँ तो वाजपेयी इसके आवरण थे, आडवाणी जी मैकेनिजम तो मुरली मनोहर इसके पीछे की इंजीनियरिंग.


शुरुआत के कई सालों तक कांग्रेस और वाम दल भाजपा को अछूत साबित करती रही तो इस धारा के विपरीत प्रतिउत्तर की तेज़ धारा बहाने वाले हुए आडवाणी जी. आडवाणी न केवल देश में उपलब्ध सबसे बेहतर संगठनकर्ता थे बल्कि उनमें आवश्यक श्रम के लिए ऊर्जा भी थी. कभी अपनी ऊर्जा को दल की भलाई से ईतर ख़र्च किया हो ऐसा उदाहरण नहीं मिलता है. इस ऊर्जा से जब उन्होंने भाजपा के शरीर को खड़ा किया तो वाजपेयी ने चमकाया.

यह एक विवादास्पद बयान होगा किंतु वाजपेयी में नेतृत्व क्षमता नहीं थी. मैं बुराई नहीं कर रहा, वाजपेयी वाकपटू और कवि हृदय थे सो नि:संदेह आडवाणी से अधिक लोकप्रिय रहे. बाद में वाजपेयी का यही गुण अन्य दलों के बीच भाजपा की स्वीकार्यता में काम आया. किंतु भाजपा विजय के मैच में मैन ऑफ़ दी मैच #आडवाणी थे और रहेंगे.

2 comments:

  1. Anonymous4/07/2024

    Excellent post

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  2. Anonymous4/07/2024

    वाह भैया की महिनों बाद आज blogspot पढ़ा हूं मुझे तो याद ही नहीं था कि आप ब्लॉगस्पॉट पर लिखते हैं। मैं पहले अक्सर लिखा करता था अब मुझे भी फ़िर से वो अपना वक्त याद आ गया। आपने बहुत सटीक विश्लेषण किया है भैया पढ़ कर ख़ुशी मिला। ~ कृष्णा

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