Sunday, 24 August 2025

साहित्य और राज्य से इतर मिथिला


मिथिला के इतिहास के नाम पर अधिकांशतः साहित्य विवेचना ही देखी है। चूँकि मैंने कोई किताब नहीं लिखी, और न ही टीवी में आता हूँ, साहित्य से इतर मिथिला का संक्षित इतिहास लिखने की धृष्टता करते डर रहा हूँ। चीज़ें शायद विस्तार से भले न मिलें, क़रीने से भी न मिले किंतु जो हैं वो सच्ची हैं इसकी गारंटी लेता हूँ।

मिथिला की गाँव वापसी

सन १८१२ में पटना की जनसंख्याँ तक़रीबन ३ लाख थी और कलकत्ता की १.७५ लाख. १८७१ में पटना १.६ लाख और कोलकाता ४.५ लाख. पटना की तरह यही हाल भागलपुर और पुरनियाँ का भी रहा. कारण दो थे. इस दौरान अंग्रेजों की मदद से कलकत्ता में फला फुला उद्योग और बिहार/ मिथिला इलाके में देशी उद्योग के विनाश से लोगों का शहर से गाँव की ओर पलायन. मिस्टर बुकानन ने अपने सर्वे में १९ वीं सदी के बड़े हिस्से तक इस पलायन की पुष्टि की है. अंग्रेजी शासन की दोहन निति के कारण शहर के उद्योग धंधे नष्ट होते गए और लोग गाँव में वापस आते गए.

इसका परिणाम गाँव के घरेलु उद्योग और कृषि क्षेत्र में उन्नति लेकर आया. दुष्परिणाम सिर्फ इतना की गाँव में काम कम और लोग ज्यादा हो गए. इस क्रम में अति तब हुई जब अंग्रेजों ने गाँव की जमीन का दोहन भी आरम्भ किया... १८५७ की क्रांति में सरकार के खिलाफ ज्यादा लोगों का जुटना संभवतः इसी करण हुआ. लोग शहर में मारे गए और गाँव में भी शुकुन से न रह पाए तो विरोध लाजिमी था. ऊपर से कुछ स्थानीय लोगों द्वारा अंग्रेजों की चमचई...

इसको लिखने का कारण सिर्फ इतना की मुझे इसी प्रकार की घुटन आज के हिन्दुस्तान में दिखती है. मुझे लगता है की लोग गाँव वापस जायेंगे... गाँव छोटे उद्योग धंधों, शिक्षा और व्यापार का केंद्र बनेगा... सरकारें जलेंगी...

दलान

उद्योग व् पलायन

अक्सर लोगों से सुनता हूँ, बिहार और मिथिला का खस्ता हाल है... लोग खतरनाक तरीके से पलायन कर रहे हैं... ब्ला ब्ला ब्ला. जरा अन्दर घुसिए तो पता चलता है की मिथिला से पलायन का इतिहास हजारों वर्ष पुराना रहा है. विद्वान, व्यापारी, मजदुर... सब बेहतर पारितोषिक के लिए बाहर जाते रहे. इतिहासकारों ने इस बात का सबुत ८०० वीं ईस्वी से बताया है.

जूट, नील और साल्ट-पिटर के नजदीकी उत्पादन क्षेत्रों (फारबिसगंज, किशनगंज दलसिंहसराय आदि) में मजदूरी के अलावा लोग मोटिया या तिहाडी मजदूरी करने नेपाल, मोरंग, सिल्लिगुड़ी और कलकत्ता भी जाते रहे हैं. श्री जे सी झा ने अपनी किताब Migration and Achievements of Maithil Pandits में लिखा है - मैथिल पंडित बेहतर अर्थ लाभ के लिए देश के अन्य क्षेत्रों में जाते रहे हैं.

हालाँकि तब और अब के इस पलायन में फर्क है. तब लोग मूलतः वापसी में अपने साथ कृषि की नई तकनीक सीख कर, स्वस्थ जीवन जीने के गुर सीखकर, घरेलु उद्योग लगाने की नई तकनीक सीख कर आते थे. जबकि अब हम छोटे कपडे, कान फाडू पंजाबी संगीत, प्रेम त्रिकोण और धोखेबाजी की नई तकनीक ज्यादा सीखते हैं.

इस दौर में एक वक़्त मिथिला क्षेत्र में उद्योग फला-फुला भी. अठारहवीं और उन्नीसवी शताब्दी में मिथिला के अलग अलग शहरों में विभिन्न उद्योग लगे. मधुबनी में मलमल, दुलालगंज व् पुरनियाँ में सस्ते कपड़ों का तो किशनगंज में कागज का उद्योग चला. दरभंगा, खगडिया, किशनगंज आदि ईलाका पीतल व् कांसे के बर्तनों के लिए जाना जाता था... भागलपुर सिल्क, डोरिया, चारखाना के लिए और मुंगेर घोड़े के नाल, स्टोव, जूते के लिए प्रसिद्ध था.

इन सबमे आश्चर्यजनक तरीके से पुरनियाँ तब भी काफी आगे था. कहते हैं पुरनियाँ का सिंदूर उत्पादन व् निर्यात तथा टेंट हाउस के सामान बनाने का काम विख्यात था. मेरे शहर दरभंगा के लोगों को बुरा न लगे इसलिए बताता चलूँ की दरभंगा शहर उस वक़्त हाथी दांत से बने सामानों का प्रमुख उत्पादन केंद्र था.


मिथिला में स्त्री

जितना पुराना इतिहास पुरुषों द्वारा मिथिला छोड़ने का रहा है ठीक उतना ही अकेली रहने वाली स्त्रियों के शोषण (विभिन्न स्तरों पर) का भी रहा. मैथिल समाज का छुपा हुआ किन्तु सत्य पक्ष है की स्त्रियाँ सताई जाती रही... परदे के पीछे यौन प्रताड़ना... लांछन... दोषारोपण... आदि करते हुए मैथिल समाज खुद को कलमुंहा साबित करता आया है.

इसका एक सकारात्मक पक्ष भी था. क्षेत्र में मैथिल स्त्रियों में शिक्षा का स्तर बढ़ा और वो स्वाबलंबी बनी. बिहार के औसतन ६% के सामने पूसा में स्त्री शिक्षा का दर १३%, सोनबरसा में ६%, मनिहारी में ९% थी. (जिन्हें % कम लग रहा है उनके लिए – १९९०-२००१ में यह दर २८% था)

स्वाभाविक रूप से गाँव की सत्ता स्त्रियों के हाथ में आ गई थी ऐसे में. गाँव की महिलाएं घरेलु उद्योग, पशु पालन आदि में आगे दिखने लगी थी. संभवतः गांधी का चरखा आन्दोलन इसी वजह से मिथिला के घर घर में पहुँच पाया.

समय के साथ साथ मैथिल स्त्रियों की दुनियां थोड़ी स्वप्निल बनाई गई जब दूर देश के सन्देश उसके पास भौतिक और काल्पनिक तरीके से पहुँचने लगे. इस रंग में भी भंग तब पड़ा जब पुरुष अपने साथ बीमारियाँ भी साथ लाने लगे.


मिथिला में जातियां

यहाँ हिन्दू परंपरा अपने प्रखरतम रूप में सभी जटिलताओं के साथ सदा विद्यमान रहीं. अलग जातियों के अलग अलग देवता और अलग गहबर होते थे. जातियों के देवताओं के नाम रोचक थे.

श्याम सिंह डोम जाति के, अमर सिंह हलवाई व् धोबियों के, गनिनाथ-गोविन्द हलवाइयों के सलहेस दुसाधों के दुलरा दयाल/ जय सिंह मल्लाहों के, विहुला तेली जाती के, दिनाभद्री मुसहरों के तो लालवन बाबा चमारों के देवता थे.

स्वाभाविक तौर पर सामाजिक कुरीतियाँ, अधविश्वास और धारणाएं ज्यादा थीं. तमाम् विरोधी उदाहरण के बावजूद ब्राम्हण, राजपूत या लाला विपदा में दुसाध, मुसहर के गहबर में जाते थे. जातियों के हिसाब से कार्य बंटे थे जो उत्तरोत्तर कम होते गए.

मिथिलांचल के कई इलाकों में मुसलमानों द्वारा मनाये जाने वाले ताजिये में हिन्दुओं का शामिल होना और हिन्दुओं के त्योहारों में मुस्लिमों के साथ होने के उदहारण भी हैं. कालांतर में हम समझदार होते गए और विषमतायें उग्र रूप धारण करने लगी.


ऐसे में यह स्पष्ट है कि हमें हमारे सीमित सोच से इतर मिथिला को बृहत् तौर पर देखे जाने की आवश्यकता है। मिथिला मात्र विद्यापति विद्यापति समारोह और प्रणाम मिथिलावासी और हमर मिथिला महान तक सीमित नहीं है। 

Sunday, 17 August 2025

मित्र धैर्यकांतक नाम लिखल एकटा पाती

२० अक्टूबर २०२२, पुणे
प्रिय धैर्यकाँत, 

काल्हि चारि मासक बाद अहां अपन मुखपृष्ठ पर लिखलहुं। अहां जखन लिखैत छी, हृदय सं लिखैत छी‌। अद्भुत लिखलहुं मित्र।

ई एकटा पैघ सत्य थिक जे लिखला सं मोन हल्लुक होइत छैक मुदा सत्य त' इहो थिक जे प्रश्न, उत्तर आ तकर प्रतिउत्तर सं वैह मोन फेर सं ओहिना भारी भ' जाइत छैक। अहां नीक करैत छी जे आब एहि सभ फेरी मे नहि पड़ैत छी।


ई सत्य थिक जे सोशल मीडिया पर जे किछु देखाइत छैक वास्तव मे असल जिनगी मे ओहेन किछु नहिए जकां होइत छैक। एतय अपन सभटा दुख, कष्ट, कमी आ कमजोरी कें नुका क' अबैत अछि लोक। हालाँकि एहि सभक कारण की हेतैक तकर जनतब नहि अछि हमरा मुदा, संभवतः एकटा होड़ आ प्रतिस्पर्धा हमरा जनैत सभसं पैघ कारण भ' सकैत छैक जाहि मे मनुक्ख कें कत' जयबाक छैक तकर ओकरा कोनो जनतब नहि। देखि रहल छी जे सभ पड़ाएल जा रहल अछि...एक-दोसर सं नीक देखेबाक लेल त' कियो स्वयं के बड्ड पैघ ज्ञानी प्रमाणित करबाक लेल... किछु गोटें त' अपनहि जिनगीक एकांत अवस्था भ्रमित करबाक लेल लिखैत अछि। 

हमरा लगैत अछि जे हम सभ एकटा मुखौटा पहीरि लेने छी आ कतहु ने कतहु ई मुखौटा संभवतः आवश्यको अछि। जिनगी जीबाक लेल। बिना आवरण कें संभवतः अहां नकारि देल जाइ, अहांक अपनहि लोक अहांकें चिन्हबा सं मना क' देथि, कारण हुनका सभक लेल अहाँ जे आवरण धारण कयलहुं ओ सभ अहाकें आब ओही आवरण मे देखय चाहैत छथि। कियो अहांक वास्तविक रूप अथवा अहांकें स्वयं कें आवश्यक रूप मे नहि देखय चाहैत अछि। एहेन स्थिति मे हम सभ 'जॉन'क ओहि शेर कें मोन पाड़ि जीबैत जा रहल छी जे - 

"कितने दिलकश हो तुम कितना दिलजूं हूँ मैं, 
क्या सितम है कि हम लोग मर जाएंगे" 

हं, संभवतः इएह सोचि क' जे संसार त' दू दिनक मेला अछि, मरबाक अछिए तखन किए शत्रुता मोल ली! त' साहस करैत हम सभ आवरण धारण कयने रहैत छी।

हं, अहां सही छी जे जखन मनुक्ख स्वयं कें अपनहि द्वारा परिभाषित सांच मे गलत पबैत अछि त' ओ अलग-अलग युक्ति ताकय लगैत अछि आ ओकरा अजमाबय लगैत अछि। जल्दीसं सभ किछु सरियाबै के प्रयत्न करै मे ओ सभ किछु आधा-अधूरा छोड़ैत जाइत अछि। ओकरा लगैत छैक जे ई सभ त' बाद मे क' लेब मुदा ई सभटा आधा काज ओकर कान्ह पर बोझ बनैत चलि जाइत छैक। ओ झुकि क' चलै लगैत अछि, हेराएल जकां रहैत अछि,सिगरेट आ शराब कें अपन मित्र बूझय लगैय अछि। ओकर आंखिक नीचां गहींर होइत जाइत छैक,ओकर अपन सभटा व्यवस्था खराब होइत जाइत छैक दोसरक व्यवस्था कें ठीक करबाक फेर मे।

हं, संबंध चाहे घरक होइ अथवा बाहर, अथवा सोशल मीडियाक, सभटा स्वार्थे पर आधारित रहैत छैक। जखनहि अहां स्वार्थ पूर्ति करब बंद कयलहुं कि ओ गधाक सींग जकां अहांक जीवन सं विलीन। ओ इहो नहि सोचत जे अहांक सेहो कोनो स्वार्थ भ' सकैत अछि। कोन ठेकान जे कोनो विवशता हुअए। हुनकर सभक हिसाबे विवशता त' हमर अपन अछि ने! ओ सभ चलि जाइत छथि कतहु आर आ... संभवतः कोनो आर व्यक्तिक दुनिया मे। हमर सभक दुर्भाग्य जे ओतय ओ हमर केलहाक चर्च करबाक स्थान पर हमर सोखर करबा मे लागि जाइत अछि। ओ हमर कुचिष्टा करबा धरि चैन नहि होइत अछि बल्कि हमर अस्तित्व समाप्त करबाक योजना मे लागि जाइत अछि। ओ ई प्रमाणित करबा मे लागि जाइत अछि जे ओ कोना हमरा लेल आवश्यक छल, हम नहि। एहि मे एक स्तर आगू हम इहो देखलियै जे जाहि व्यक्तिक सोझां हमर प्रशंसा होइत रहैत अछि ओ व्यक्ति हमरा संदर्भ मे एकटा अवधारणा बना लैत अछि। हमरा सं बिना कोनो गप कयने कोनो व्यक्ति कोना हमरा संदर्भ मे कोनो अवधारणा बना लैत अछि से नहि कहि मुदा, आइ-काल्हि ई बड्ड चलती मे छैक जे अहां किनको सं किछु सुनि क' हमरा संदर्भ मे राय बना लिअ। सोशल मीडिया पर किनको पढ़ि क' हुनकर आंकलन क' लिअ आ फेर मोनमोटाव क' लिअ। 

अहां लिखलहुं जे परिवार आ संबंध अहांक सोझां खाधि खूनि दैत अछि। शत-प्रतिशत त' एहेन नहि छैक मुदा हम सभ जतय सं छी ओतय एकर अनुपात बहुत अधिक छैक। कतेक उदाहरण देखने छियै हम जखन एकटा लड़का अपन परिवारक लेल स्वयं कें समाप्त क' लैत अछि आ ओकर परिवार ओकरा शाबाशी देबाक स्थान पर ओकरा सं जे काज नहि भेल रहैत छैक तकर उलहन देबय लगैत छैक। ओ की सभ कयलक से नहि बता क' ओ की सभ नहि क' सकल वैह कहल जाइत छैक, जाहि सं ओकरा मोन रहै जे ओ मात्र सहबाक लेल आ थोड़े आर काज करबाक लेल मात्र बनल अछि।

पैघ शहरक प्रेमिका सभ! आब एतेक उदाहरण देखि चुकलहुं जे एहि सभ पर हमरा किछु लिखतो लाज लगैए। ई मानि क' चलू जे 'दिल्ली एन सी आर'क प्रेमिका सभ प्रेम नहि करैत अछि बल्कि, अहांक मासूमियतक हिसाब सं अहांक जेब आ मानसिक शक्ति (...) कें खोखला होबाक बाट तकैत अछि। बस एतबै कहब जे जं प्रेम करबाक अछि त' बच्चा सभसं करू, महिला सभकें मित्र बनाउ। बेसी मोन हुअए त' केजरीवाल कें चंदा द' आउ अथवा स्वयं कें चॉकलेट, वाइन आदि गिफ्ट क' दिअ। मुदा दिल्लीक प्रेमिका! नहि-नहि! 

जनै छी! हमरा एहि सभ बात सभक कोनो ख़ास कचोट नहि अछि आ हमहूं अहीं जकां तकर कोनो परवाहो नहि करैत छी। जं हम भूखल छी त' हॅंसैत छी, पेट भरला पर कने आर हॅंसैत छी। तकर कारण जे अहाक भूखल रहबा सं सभ... हं, सभ! सभ हँसत आ अहांक पेट भरल बूझि हँसैत देखि क' लोक बूझत जे एकरा हॅंसबाक बीमारी छैक। असल मे चिन्ता कतय होइत छैक जे एहि कारण किछु प्रतिशत जे नीक लोक छथि, हुनको सभक भरोस समाप्त भ' जाइत छनि। गहूमक संग जेना जौ पिसाइत अछि ओहिना किछु प्रतिशत लोक पिसाइत रहथि। कियो हिनका सभ पर भरोस नही क' रहल। हुनका सभकें हुनकर सभक नीक कर्मक लाभ नहि भेटि रहल।

अहां त' जनैत छी बीतल समयक ओ सभटा बात जहिया हम बहुत कष्ट मे रही। किछु संकोच सेहो रहैत छल जे जिनका सभकें हमरा सं उपकारक आशा रहैत छलनि हुनका सभकें हम कोना कहियनि जे हम मदति लेबाक स्थिति मे पहुंच गेल छी। हालाँकि तैयो जे सभ हमर लगीच रहथि ओ सभ अयलथि, हमर परिवार हमर संग ठाढ़ छल। हमर दुःख कें बुझलक, हमर तकलीफ मे साझी बनल आ पूछैत रहल। कियो एतय त' कियो कोनो अन्य पैघ शहर मे, अथवा कियो विदेश मे। जनै छी! एक राति डेढ़ बजे कियो हमरा अमरीका सं फोन कयलनि आ कहलनि - " प्रवीण, अहांकें जे मदति चाही से कहू, हम तैयार छी... कहू त' हम आबि जाउ।" नीक लागल। 

हालाँकि हमरा ओतबै अधलाह लागल जखन बीतल १० मासक एहि संघर्ष मे आ संभवतः जीवनक सभसॅं पैघ लड़ाइ मे किछु गोटें या त' अनभिज्ञ बनि गेलथि अथवा जानि-बूझि क' हमरा सं कतिया गेलथि। पहिने त' हमर आदतिक हिसाब सं हम एहि सभक कारण स्वयं कें मानलहुं जे संभवतः हमरहि मे कोनो कमी रहल हैत। मुदा बाद मे अधिक मंथन कयलाक बाद बुझबा मे आयल जे नहि, ई सभ त' हमरा सं मात्र एहि लेल जुड़ल रहथि जे हम हिनकर सभक कोनो काज आबि सकी। अहां सही कहने रही - "प्रवीण जी, सोझ गप नहि करै बला सं दूर रहू।" 

धैर्यकाँत, हम आब ई निर्णय ल' लेलहुं अछि जे मात्र सुखक समयक मित्र कें त्यागि देब। हम जनैत छी जे अहां कहब कि हम त' सभ किछु स्वयं पर ल' किनको जीवन भरिक लेल नहि त्याग' चाहैत छी तें अहां सं ई सभ नहि होयत। त' भाइ हम इएह कहब जे हम ई प्रयत्न करब। कारण, बीतल दस मास (जकरा हम दस साल जकां जीलहुं) हमरा सिखा देलक जे हमहूं मनुक्ख छी। ओ मनुक्ख जे नीक-बेजाए बुझबा मे गलती क' सकैत अछि आ ओकरा एहि गलती कें सुधारि लेबाक चाही। किछु पुरान कें 'क्रॉस' आ किछु नब कें 'टिक' क' लेबाक चाही। परिणामक चिंताक बिना मुंह पर कहबाक चाही जे 'नहि साहेब! अहां नहि चाही।' चाहे कियो खराब मानि जाए, हमरा बताह बूझय, अभिमानी कहै अथवा कुलबोरन। 

लिखैत रहू,
अहांक शुभचिंतक,

प्रवीण

अमृता - इमरोज़ की कहानी के बहाने

भारत की लोकप्रिय कवयित्रियों में से एक अमृता प्रीतम ने एक बार लिखा था- "मैं सारी ज़िंदगी जो भी सोचती और लिखती रही, वो सब देवताओं को जगाने की कोशिश थी, उन देवताओं को जो इंसान के भीतर सो गए हैं।”


अमृता और इमरोज़ के बीच का सिलसिला धीरे-धीरे ही शुरू हुआ था। अमृता ने एक चित्रकार सेठी से अपनी किताब 'आख़िरी ख़त' का कवर डिज़ाइन करने का अनुरोध किया था। सेठी ने कहा कि वो एक ऐसे व्यक्ति को जानते हैं जो ये काम उनसे बेहतर कर सकता है। सेठी के कहने पर अमृता ने इमरोज़ को अपने पास बुलाया। उस ज़माने में वो उर्दू पत्रिका शमा में काम किया करते थे। इमरोज़ ने उनके कहने पर इस किताब का डिज़ाइन तैयार किया। इमरोज़ याद करते हैं, ''उन्हें डिज़ाइन भी पसंद आ गया और आर्टिस्ट भी। उसके बाद मिलने-जुलने का सिलसिला शुरू हो गया। हम दोनों पास ही रहते थे। मैं साउथ पटेल नगर में और वो वेस्ट पटेल नगर में।" 

"एक बार मैं यूँ ही उनसे मिलने चला गया। बातों-बातों में मैंने कह दिया कि मैं आज के दिन पैदा हुआ था। गांवों में लोग पैदा तो होते हैं लेकिन उनके जन्मदिन नहीं होते। वो एक मिनट के लिए उठीं, बाहर गईं और फिर आकर वापस बैठ गईं। थोड़ी देर में एक नौकर प्लेट में केक रखकर बाहर चला गया। उन्होंने केक काट कर एक टुकड़ा मुझे दिया और एक ख़ुद लिया। ना उन्होंने हैपी बर्थडे कहा ना ही मैंने केक खाकर शुक्रिया कहा। बस एक-दूसरे को देखते रहे। आँखों से ज़रूर लग रहा था कि हम दोनों खुश हैं।'' 

पिता की चपत

ये तो एक शुरुआत भर थी लेकिन इससे बरसों पहले अमृता के ज़हन में एक काल्पनिक प्रेमी मौजूद था और उसे उन्होंने राजन नाम भी दिया था। अमृता ने इसी नाम को अपनी ज़िंदगी की पहली नज़्म का विषय बनाया। एक बार अमृता ने बीबीसी से बात करते हुए कहा था कि जब वो स्कूल में पढ़ती थीं तो उन्होंने एक नज़्म लिखी। उसे उन्होंने ये सोचकर अपनी जेब में डाल लिया कि स्कूल जाकर अपनी सहेली को दिखाऊँगी। 


अमृता अपने पिता के पास कुछ पैसे मांगने गईं। उन्होंने वो पैसे उनके हाथ में न देकर उनकी जेब में डालने चाहे। उसी जेब में वो नज़्म रखी हुई थी। पिता का हाथ उस नज़्म पर पड़ा तो उन्होंने उसे निकालकर पढ़ लिया। पूछा कि क्या इसे तुमने लिखा है। अमृता ने झूठ बोला कि ये नज़्म उनकी सहेली ने लिखी है। उन्होंने उस झूठ को पकड़ लिया और उसे दोबारा पढ़ा। पढ़ने के बाद पूछा कि ये राजन कौन है? अमृता ने कहा, कोई नहीं। उन्हें ऐतबार नहीं हुआ। पिता ने उन्हें ज़ोर से चपत लगाई और वो काग़ज़ फाड़ दिया। अमृता बताती हैं, ''ये हश्र था मेरी पहली नज़्म का। झूठ बोलकर अपनी नज़्म किसी और के नाम लगानी चाही थी लेकिन वो नज़्म एक चपत को साथ लिए फिर से मेरे नाम लग गई।'' 

अलग-अलग कमरे इमरोज़ के साथ 

दुनिया में हर आशिक़ की तमन्ना होती है कि वो अपने इश्क़ का इज़हार करें लेकिन अमृता और इमरोज़ इस मामले में अनूठे थे कि उन्होंने कभी भी एक दूसरे से नहीं कहा कि वो एक-दूसरे से प्यार करते हैं। इमरोज़ बताते हैं, ''जब प्यार है तो बोलने की क्या ज़रूरत है? फ़िल्मों में भी आप उठने-बैठने के तरीक़े से बता सकते हैं कि हीरो-हीरोइन एक दूसरे से प्यार करते हैं लेकिन वो फिर भी बार-बार कहते हैं कि वो एक-दूसरे से प्यार करते हैं और ये भी कहते हैं कि वो सच्चा प्यार करते हैं जैसे कि प्यार भी कभी झूठा होता है।'' 

परंपरा ये है कि आदमी-औरत एक ही कमरे में रहते हैं। हम पहले दिन से ही एक ही छत के नीचे अलग-अलग कमरों में रहते रहे। वो रात के समय लिखती थीं। जब ना कोई आवाज़ होती हो ना टेलीफ़ोन की घंटी बजती हो और ना कोई आता-जाता हो। उस समय मैं सो रहा होता था। उनको लिखते समय चाय चाहिए होती थी। वो ख़ुद तो उठकर चाय बनाने जा नहीं सकती थीं। इसलिए मैंने रात के एक बजे उठना शुरू कर दिया। मैं चाय बनाता और चुपचाप उनके आगे रख आता। वो लिखने में इतनी खोई हुई होती थीं कि मेरी तरफ़ देखती भी नहीं थीं। ये सिलसिला चालीस-पचास सालों तक चला। 

उमा त्रिलोक इमरोज़ और अमृता दोनों की नज़दीकी दोस्त रही हैं और उन पर उन्होंने एक किताब भी लिखी है- 'अमृता एंड इमरोज़- ए लव स्टोरी।' उमा कहती हैं कि अमृता और इमरोज़ की लव-रिलेशनशिप तो रही है लेकिन इसमें आज़ादी बहुत है। बहुत कम लोगों को पता है कि वो अलग-अलग कमरों में रहते थे एक ही घर में और जब इसका ज़िक्र होता था तो इमरोज़ कहा करते थे कि एक-दूसरे की ख़ुशबू तो आती है। ऐसा जोड़ा मैंने बहुत कम देखा है कि एक दूसरे पर इतनी निर्भरता है लेकिन कोई दावा नहीं है। 

बुख़ार गायब हुआ

वर्ष 1958 में जब इमरोज़ को मुंबई में नौकरी मिली तो अमृता को दिल ही दिल अच्छा नहीं लगा। उन्हें लगा कि साहिर लुधियानवी की तरह इमरोज़ भी उनसे अलग हो जाएंगे। इमरोज़ बताते हैं कि गुरु दत्त उन्हें अपने साथ रखना चाहते थे। वेतन पर बात तय नहीं हो पा रही थी। अचानक एक दिन अपॉएंटमेंट-लैटर आ गया और वो उतने पैसे देने के लिए राज़ी हो गए जितने मैं चाहता था। 


मैं बहुत ख़ुश हुआ। दिल्ली में अमृता ही अकेले थीं जिनसे मैं अपनी ख़ुशी शेयर कर सकता था। मुझे ख़ुश देख कर वो ख़ुश तो हुईं लेकिन फिर उनकी आंखों में आंसू आ गए। उन्होंने थोड़ा घुमा-फिराकर जताया कि वो मुझे मिस करेंगी, लेकिन कहा कुछ नहीं। मेरे जाने में अभी तीन दिन बाक़ी थे। उन्होंने कहा कि ये तीन दिन जैसे मेरी ज़िंदगी के आख़िरी दिन हों। तीन दिन हम दोनों जहाँ भी उनका जी चाहता, जाकर बैठते। फिर मैं मुंबई चला गया। मेरे जाते ही अमृता को बुख़ार आ गया। तय तो मैंने यहीं कर लिया था कि मैं वहाँ नौकरी नहीं करूँगा। दूसरे दिन ही मैंने फ़ोन किया कि मैं वापस आ रहा हूँ। उन्होंने पूछा सब कुछ ठीक है ना। मैंने कहा कि सब कुछ ठीक है लेकिन मैं इस शहर में नहीं रह सकता। मैंने तब भी उन्हें नहीं बताया कि मैं उनके लिए वापस आ रहा हूँ। मैंने उन्हें अपनी ट्रेन और कोच नंबर बता दिया था। जब मैं दिल्ली पहुंचा वो मेरे कोच के बाहर खड़ी थीं और मुझे देखते ही उनका बुख़ार उतर गया। 

साहिर से भी प्यार

अमृता को साहिर लुधियानवी से बेपनाह मोहब्बत थी। अपनी आत्मकथा 'रसीदी टिकट' में वो लिखती हैं कि किस तरह साहिर लाहौर में उनके घर आया करते थे और एक के बाद एक सिगरेट पिया करते थे। साहिर के जाने के बाद वो उनकी सिगरेट की बटों को दोबारा पिया करती थीं। इस तरह उन्हें सिगरेट पीने की लत लगी। अमृता साहिर को ताउम्र नहीं भुला पाईं और इमरोज़ को भी इसका अंदाज़ा था। अमृता और इमरोज़ की दोस्त उमा त्रिलोक कहती हैं कि ये कोई अजीब बात नहीं थी। दोनों इस बारे में काफ़ी सहज थे। 

उमा त्रिलोक आगे बताती हैं, ''वो ये कहती थी कि साहिर एक तरह से आसमान हैं और इमरोज़ मेरे घर की छत! साहिर और अमृता का प्लैटोनिक इश्क था। इमरोज़ ने मुझे एक बात बताई कि जब उनके पास कार नहीं थी वो अक्सर उन्हें स्कूटर पर ले जाते थे।" 

"अमृता की उंगलियाँ हमेशा कुछ न कुछ लिखती रहती थीं, चाहे उनके हाथ में कलम हो या न हो। उन्होंने कई बार पीछे बैठे हुए मेरी पीठ पर साहिर का नाम लिख दिया। इससे उन्हें पता चला कि वो साहिर को कितना चाहती थीं! लेकिन इससे फ़र्क क्या पड़ता है। वो उन्हें चाहती हैं तो चाहती हैं। मैं भी उन्हें चाहता हूँ।'' 

साथी भी और ड्राइवर भी

अमृता जहाँ भी जाती थीं इमरोज़ को साथ लेकर जाती थीं। यहाँ तक कि जब उन्हें राज्यसभा के लिए मनोनीत किया गया तो इमरोज़ हर दिन उनके साथ संसद भवन जाते थे और बाहर बैठकर उन का इंतज़ार किया करते थे। 


वो उनके साथी भी थे और उनके ड्राइवर भी। इमरोज़ कहते हैं, ''अमृता काफ़ी मशहूर थीं। उनको कई दूतावासों की ओर से अक्सर खाने पर बुलाया जाता था। मैं उनको लेकर जाता था और उन्हें वापस भी लाता था। मेरा नाम अगर कार्ड पर नहीं होता था तो मैं अंदर नहीं जाता था। मेरा डिनर मेरे साथ जाता था और मैं कार में बैठकर संगीत सुनते हुए अमृता का इंतज़ार करता था।" 

"धीरे-धीरे उनको पता चला गया कि इनका ब्वॉय-फ़्रेंड भी है। तब उन्होंने मेरा नाम भी कार्ड पर लिखना शुरू कर दिया। जब वो संसद भवन से बाहर निकलती थीं तो उद्घोषक को कहती थीं कि इमरोज़ को बुला दो। वो समझता था कि मैं उनका ड्राइवर हूँ। वो चिल्लाकर कहता था- इमरोज़ ड्राइवर और मैं गाड़ी लेकर पहुंच जाता था।'' 

जिस्म छोड़ा है साथ नहीं

अमृता प्रीतम का विवाह प्रीतम सिंह से हुआ था लेकिन कुछ वर्ष बाद उनका तलाक़ हो गया था। अमृता का आख़िरी समय बहुत तकलीफ़ और दर्द में बीता। बाथरूम में गिर जाने से उनके कूल्हे की हड्डी टूट गई। उसके बाद मिले दर्द ने उन्हें कभी नहीं छोड़ा। 

उमा त्रिलोक कहती हैं, ''इमरोज़ ने अमृता की सेवा करने में अपने आपको पूरी तरह से झोंक दिया। उन दिनों को अमृता के लिए इमरोज़ ने ख़ूबसूरत बना दिया। उन्होंने उनकी बीमारी को उनके साथ-साथ सहा। बहुत ही प्यार से वो उनको खिलाते, उनको पिलाते, उनको नहलाते, उनको कपड़े पहनाते। वो क़रीब-क़रीब शाकाहारी हो गईं थीं बाद में, वो उनसे बातें करते, उन पर कविताएं लिखते, उनकी पसंद के फूल लेकर आते। जबकि वो इस काबिल भी नहीं थीं कि वो हूँ-हाँ करके उसका जवाब ही दे दें।''

31 अक्तूबर 2005 को अमृता ने आख़िरी सांस ली। लेकिन इमरोज़ के लिए अमृता अब भी उनके साथ हैं। उनके बिल्कुल क़रीब। इमरोज़ कहते हैं- ''उसने जिस्म छोड़ा है साथ नहीं। वो अब भी मिलती है कभी तारों की छांव में कभी बादलों की छांव में कभी किरणों की रोशनी में कभी ख़्यालों के उजाले में हम उसी तरह मिलकर चलते हैं चुपचाप हमें चलते हुए देखकर फूल हमें बुला लेते हैं हम फूलों के घेरे में बैठकर एक-दूसरे को अपना अपना कलाम सुनाते हैं उसने जिस्म छोड़ है साथ नहीं।

नोट : यह आलेख सचिन यादव जी समेत कई अन्य आलेखों को पढ़कर लिखा गया है। इन सब बातों का ज़िक्र उमा त्रिलोक की "अमृता इमरोज़" और खुद अमृता प्रीतम की 'रसीदी टिकट" में भी है.

Saturday, 16 August 2025

चरित्र और सामाजिक विकास


स्वामी विवेकानंद शिकागो शहर में गेरुआ वस्त्र पहने घूम रहे थे। कुछ लोगों का अत्याधिक कौतूहल देख बोले - "देखिये, आपके अमेरिका में एक दर्जी सुंदर वेषभूषा सिल कर किसी को भी सभ्य पुरुष बना देता है, परंतु हमारे भारत में चरित्र ही किसी को सभ्य पुरुष बनाता है।"

स्वामी विवेकानंद जी के ही हिसाब से - मनुष्य का चरित्र इससे तय होता है कि किसी भी काम के प्रति उसकी प्रवृत्ति कैसी है। वह वही बनता है जो उसके विचार उसे बनाते हैं। हम कर्म करते हैं और इस दौरान आये प्रत्येक विचार जिसका हम चिंतन करते हैं, वे सब हमारे चित्त पर अपना प्रभाव छोड़ते हैं। प्रत्येक मनुष्य का चरित्र इन सारे प्रभावों के आधार पर तय होता है। यदि यह प्रभाव अच्छा हो तो चरित्र अच्छा होता है और यदि खराब तो चरित्र बुरा होता है।

चरित्र निर्माण की इस प्रक्रिया से जहां यह निर्धारित होता है कि कोई व्यक्ति आगे चलकर कैसा बनेगा, वहीं यह भी तय होता है कि इससे भावी समाज और संसार का निर्माण कैसा होगा। आज अगर हम अपने आसपास भ्रष्टाचार, दुराचार और ऐसी ही समस्याओं की अधिकता देख रहे हैं, तो इन समस्याओं का मूल कारण चरित्र निर्माण की उपेक्षा ही है।

आज के दौर में अपने क्षणिक स्वार्थ में लोग जीवन के इस सबसे महत्वपूर्ण कार्य यानी चरित्र निर्माण को भुला बैठे हैं। यही वजह है कि ऊपरी तौर पर विकास के नए-नए रिकॉर्ड बनाने के बावजूद हमारा समाज नैतिक मूल्यों के पतन की समस्या से बुरी तरह जूझ रहा है। इसका परिणाम गंभीर मनोरोगों से लेकर आपसी कलह, अशांति और गहन विषाद रूपी ला-इलाज बीमारी बन रहा है। चरित्र निर्माण की बातें, आज परिवारों में उपेक्षित हैं, शैक्षणिक संस्थानों में नादारद हैं, समाज में लुप्तप्रायः है। शायद ही इसको लेकर कहीं गंभीर चर्चा होती हो। जबकि घर-परिवार एवं शिक्षा के साथ व्यक्ति निर्माण, समाज निर्माण और राष्ट्र निर्माण का जो रिश्ता जोड़ा जाता है, वह चरित्र निर्माण की धूरी पर ही टिका हुआ है। आश्चर्य नहीं कि हर युग के विचारक, समाज सुधारक चरित्र निर्माण पर बल देते रहे हैं। चरित्र निर्माण के बिना अविभावकों की चिंता, शिक्षा के प्रयोग, समाज का निर्माण अधूरा है। 

मेरी समझ से सरकार द्वारा किये जा रहे या किये जानेवाले विकास कार्यों से भी जरूरी समाज के लिए चरित्र का विकास है। वो चरित्र ही है जो बड़े से बड़े लालच में भी व्यक्ति को अपने कर्तव्य पथ से डिगने नहीं देती। कोई भी व्यक्ति सत्कर्मों और अच्छे विचारों से अपने चरित्र का निर्माण कर सकता है... उसमें निरंतरता कायम रख सकता है।

जिस तरह जीवित रहने के लिए सांस चाहिए और पोषण के लिए शरीर को भोजन-पानी की जरूरत होती है, उसी तरह चरित्र बनाए रखने के लिए भी उसे अच्छे विचारों के खाद-पानी की जरूरत होती है और यह खाद-पानी खुद को अनुशासित रखने मात्र से ही मिलती है।

अनुशासन के अभाव में जब हम अपने नैतिक मूल्यों से तालमेल नहीं बिठा पाते हैं, तो हम भीतर से टूट जाते हैं और ऐसे में वह बाहरी समाज से भी समायोजन करने में नाकाम हो जाता है। चरित्र निर्माण में अच्छे विचारों और चिंतन से ज्यादा महत्व श्रेष्ठ आचरण का है। हमारे विचार, कर्म, व्यवहार, चरित्र और लक्ष्य प्राप्ति सभी कुछ एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। हम जैसा सोचते हैं, वैसा ही पाते हैं।

एक विचारक कह गए हैं - "अपने विचार का बीज बोओ, कर्म की खेती काटो। कर्म का बीज बोओ, व्यवहार की फसल पाओ। व्यवहार का बीज बोओ, चरित्र (कीर्ति) का फल पाओ। चरित्र का बीज बोओ, भाग्य की फसल काटो।"

एक चिट्ठी धैर्यकांत के नाम - अक्टूबर 2020


डिअर धैर्यकाँत, 

कल ४ महीने बाद तुमने अपने वाल पर लिखा। जब दिल से लिखते हो, लिखते ही हो....शानदार लिखा दोस्त।

ये जितना बड़ा सच है कि लिखने से मन हल्का होता है उतना बड़ा सच ये भी है कि सवाल जवाब और प्रतिउत्तर से वही मन फिर से उतना अधिक भारी भी हो जाता है। अच्छा करते हो की अब इन चक्करों में नहीं पड़ते तुम। 

ये सच है कि सोशल मीडिया पर जो दिखता है दरअसल निजी जिंदगी में वैसा कुछ कम ही होता है। यहाँ अपने सारे दुःख दर्द, सारी कमियां और फ़टे को छुपाकर आता है इंसान। हालाँकि इसके सही वजह का पता नहीं मुझे लेकिन शायद होड़ और प्रतिस्पर्धा सबसे बड़ी वजह लगती है मुझे जिसमें इंसान को जाना कहाँ हैं वो नहीं पता होता है। देख रहा हूँ सब भाग रहे हैं... कोई किसी से बेहतर दिखने में तो कोई खुद को बड़ा ज्ञानी साबित करने में... कोई कोई तो अपनी ही जिंदगी के खालीपन को झुठलाने भर को लिखता है। 

मुझे लगता है हम सबने एक मुखौटा पहन रखा है और कहीं न कहीं यह मुखौटा शायद जरुरी भी है.... जिंदगी जीते रहने के लिए। बिना नकाब शायद आप नकार दिए जाएँ, आपके अपने भी आपको पहचानने से इंकार कर दें क्योंकि उनके लिए आपने जो चोला पहन रखा होता है वो आपको उसी में बने देखना चाहते हैं... कोई आपका वास्तविक रूप या फिर आपको आपके स्वयं की जरूरतों में नहीं देखना चाहता है। 

ऐसे में हम शायद जॉन के उस शेर को याद करके जिए जाते हैं की - कितने दिलकश हो तुम कितना दिलजूँ हूँ मैं, क्या सितम है कि हम लोग मर जाएंगे - हाँ शायद यही सोचकर की दुनियां तो दो दिन का मेला है, मर ही जाना है, कौन पंगे ले... तो दम घुटते हुए भी हम मुखौटा पहने रहते हैं।

हाँ, तुम सही हो की जब इंसान खुद को अपने ही द्वारा परिभाषित सांचें में गलत पाता है तो वो अलग अलग चीजें तलाशने और उनको आजमाने लगता है। जल्दी सबकुछ सही करने की कोशिश में वो आधा अधूरा छोड़ता जाता है सब... उसे लगता है कि ये तो बाद में कर लेंगे लेकिन ये सब अधूरे काम उसके कंधे पर बोझ बढ़ाते जाते हैं... वो झुक कर चलने लगता है, खोया रहता है, वो सिगरेट और शराब को अपना दोस्त समझने लगता है.... उसकी आँखों के निचे के गढ्ढे गहरे होते जाते हैं, उसका खुद का सिस्टम खराब हो जाता है सारा सिस्टम मैनेज करते करते। 

हाँ, रिश्ते चाहे घर के हों या फिर बाहर के या फिर सोशल मीडिया के, साले @#$@% सब स्वार्थ पर ही आधारित होते हैं। एक बार आपने स्वार्थ पूर्ति बंद किया नहीं की वो गधे के सर से सींग की तरह आपके जीवन से गायब। वो ये भी नहीं सोचते समझते की खुद तुम्हारा भी कोई स्वार्थ होगा... क्या पता लाचारी ही हो। उनके हिसाब से लाचारी तो हमारी अपनी है न... वो लोग चले जाते हैं, कहीं और... शायद किसी और की दुनियां में। हमारी बदकिस्मती की वहां वो बजाय हमारे किये की चर्चा के हमारी बदखोई करने में लग जाते हैं। वो हमारी बुराई तक ही शांत नहीं होते बल्कि हमारा ही वजूद ख़त्म करने की साजिश करने में लग जाते हैं... वो यह साबित करने में लग जाते हैं कि कैसे वो ही हमारे लिए जरुरी था, हम नहीं। इसमें एक स्टेप आगे और देखा है मैंने - जिसके सामने हमारी यह तारीफ़ हो रही होती है वो आदमी भी हमारे बारे में एक परसेप्शन बना लेता है... हमसे बिना बात किये कोई आदमी कैसे हमारे बारे में कोई विचार बना लेता है पता नहीं लेकिन आजकल ये नया ट्रेंड चला है कि आप किसी से कुछ सुनकर हमारे बारे में राय बना लो... सोशल मीडिया पर किसी को पढ़ कर उसे जज कर लो और फिर कब्जी सा मुंह फुला लो। 

तुमने लिखा की परिवार और रिश्ते आपके सामने गढ्डा खोद देते हैं। शत प्रतिशत तो ऐसा नहीं है किन्तु हम जहाँ से हैं वहां इसका प्रतिशत बहुत अधिक है। कई उदाहरण देखे हैं मैंने जब एक लड़का अपने परिवार के लिए खुद को ख़त्म कर लेता है और उसका परिवार बजाय शाबाशी के उसकी वजह से न हो पाए कामों के ताने भर देता है। उसने क्या किया ये न बताकर उसने क्या नहीं किया वही बताया गया उसे ताकि उसे याद रह सके की वो बस सहने, थोड़ा और करने और थोड़ा और करने को ही बना है। 

बड़े शहरों की प्रेमिकाएं.... अब इतने सारे उदाहरण देख लिए की इस पर मुझे लिखते हुए भी शर्म आती है। यह मान कर चलो की दिल्ली एन सी आर की प्रेमिकाएं प्रेम नहीं करती बल्कि आपके भोलेपन के हिसाब से आपकी जेब और मानसिक शक्ति (...) के खोखले होने का इंतजार भर करती हैं। बस इतना कहूंगा की प्रेम ही करना है तो बच्चे बच्चियों से करो... खुश महिलाओं को दोस्त बनाओ... ज्यादा जी करे तो केजरीवाल को चंदा दे आओ या फिर खुद को चॉकलेट, वाइन आदि गिफ्ट कर दो..... मगर दिल्ली की प्रेमिकाएं, न बाबा न। 

पता हैं मुझे इन सब बातों से कोई ख़ास मलाल भी नहीं और मैं भी तुम्हारी तरह परवाह भी नहीं करता अब किसी की। अगर भूखा हूँ तो हँसता हूँ, पेट भरे होने पर थोड़ा और हँसता हूँ... वजह की आपके भूखे होने की बात से सब... हाँ, सब के सब हँसेंगे और आपके पेट भरे होने पर हँसते देख कर लोग समझेंगे की इसको तो हंसने की बिमारी है.... असल में फ़िक्र कहाँ होती है कि इस वजह से कुछेक प्रतिशत जो अच्छे लोग हैं आपका भरोसा उनसे भी उठ जाता है... जैसे गेंहूं के साथ घुन पिसता है वैसे ही ये कुछेक प्रतिशत लोग भी पिस रहे... कोई इन पर भी भरोसा नहीं कर रहा... उन्हें उनकी नेकी का हक़ नहीं मिल रहा। 

तुम्हें तो पता ही है पिछले दिनों की कहानी जब बहुत कष्ट में था... थोड़ी झेंप भी रहती थी की जिन्हें मुझसे मदद की आशा रहती थी उन्हें कैसे कहूं की मैं खुद मदद लेने की हालत में पहुँच गया हूँ। हालाँकि फिर भी जो करीब थे वो आये, मेरा परिवार मेरे साथ खड़ा रहा... मेरे दुःख को समझा, मेरा दर्द साझा किया और पूछते रहे। कोई यहाँ था कोई अन्य बड़े शहरों में तो कोई विदेश में... पता है एक रात डेढ़ बजे किसी ने अमरीका से फोन किया और कहा - " प्रवीण, तुम्हे जो भी मदद चाहिए हम तैयार हैं... कहो तो आ जाऊँ" अच्छा लगा। 

हालाँकि मुझे उतना ही बुरा लगा जब पिछले १० महीनों के इस संघर्ष में और संभवतः जीवन की सबसे बड़ी लड़ाई में कुछ लोग या तो अनभिज्ञ बन गए या फिर सब जान बूझकर मुझसे किनारा कर लिया। पहले तो मेरी आदत के अनुसार मैंने इसकी वजह खुद को ही माना की शायद खुद की कोई कमी रही होगी मेरी। लेकिन बाद में अधिक मंथन पर पता लगा कि नहीं, ये तो बस मुझसे इसलिए जुड़े थे की मैं इनके किसी काम आ सकूँ। तुमने सही कहा था - "प्रवीण जी, सीधे नहीं बोलने वालों से दूर रहिये...." 

धैर्यकाँत, अब मैंने निर्णय ले लिया है कि सिर्फ और सिर्फ अच्छे दिनों वाले साथियों को त्याग दूंगा..... मुझे पता है तुम कहोगे की आप तो सबकुछ खुद पर लेकर किसी को जीवन भर त्यागना नहीं चाहते तो आपसे नहीं होगा ये सब। सो भाई - कोशिश करूँगा। क्योंकि पिछले दस महीनों ने (जिसे दस साल की तरह जिया है मैंने) मुझे सीखा दिया है कि मैं भी इंसान ही हूँ। वो इंसान जो सही गलत समझने में गलती कर सकता है... और उसे इस गलती को करेक्ट कर लेना चाहिए। कुछ पुराने को क्रॉस और कुछ नए को टिक करना ही चाहिए। परिणाम की चिंता किये बगैर मुंह पे कहना ही चाहिए की नहीं बॉस, आप नहीं चाहिए... भले कोई बुरा मान जाए, मुझे पागल समझे, एरोगेंट कहे या फिर कुलबोरन। 

लिखते रहो,
तुम्हारा शुभचिंतक,
प्रवीण