Tuesday, 27 February 2024

पाठकीय प्रतिक्रिया - 'भूतों के देश में - आईसलैंड' - प्रवीण झा


डॉक्टर प्रवीण झा रचित पुस्तक 'भूतों के देश में - आईसलैंड' पर रमेश चन्द्र झा जी की पाठकीय प्रतिक्रिया.

यूँ तो अभी तक कई पुस्तकों से साक्षात्कार हो चुका है, मगर, आज पहली बार किसी पुस्तक पर पाठकीय प्रतिक्रिया देने के लिए कलम उठाने का प्रयास किया है। दिलचस्प यह है कि जितना समय लेखक ने इस पुस्तक को लिखने के लिए नहीं लगाया होगा, उससे कई गुणा अधिक वक्त मुझे अपनी पाठकीय प्रतिक्रिया (अनुरोध है कि इसे समीक्षा नहीं समझा जाय) देने में लग गए ! तो प्रस्तुत है - डाॅक्टर प्रवीण कुमार झा द्वारा लिखित पुस्तक 'भूतों के देश में - आईसलैंड' पर मेरी पाठकीय प्रतिक्रिया !

पुस्तक का नाम : भूतों के देश में - आइसलैंड
लेखक : प्रवीण कुमार झा
प्रकाशन : ई-समाद

पुस्तक का नाम देखकर मन में सहज ही कौतुहुल जगता है कि, क्या सच में भूतों का भी कोई अलग से देश है ? यही कौतुहुल और लेखक की किस्सागोई वाली रोचक शैली ने मुझे यह किताब खरीदने और पढ़ने को विवश कर दिया। यह पुस्तक एक यात्रा-वृत्तांत है जिसे प्रवीण कुमार झा जी ने अपने चिरपरिचित रोचक अंदाज में लिखा है। यात्रा-वृत्तांत के बारे में श्री झा का ही कहना है (यह उन्होंने ही फेसबुक पर अपने एक पोस्ट के माध्यम से कहा है) कि यह लिखने वाले के शैक्षणिक पृष्ठभूमि पर निर्भर करता है कि उसका यात्रा-वृत्तांत कैसा होगा। दूसरे शब्दों में कहें तो - यात्रा के दौरान भ्रमण किए गए एक ही स्थान विशेष के बारे में, विभिन्न पृष्ठभूमि के व्यक्तियों द्वारा लिखा गया यात्रा-वृत्तांत, अलग-अलग अनुभव को समेटे होता है। मसलन, पत्रकार अपनी नजर से किसी स्थान का वर्णन करेगा तो पुरातत्ववेत्ता अपनी नजर से। विज्ञान के छात्र का दृष्टिकोण अलग होगा तो, प्रकृति-प्रेमी एवं पर्यावरणविद का अलग। कुल मिलाकर सात अन्धों और उनके द्वारा हाथी के बारे में बनी राय वाली कहानी है। सब अपनी जगह सही होते हैं, मगर पूर्ण कोई नहीं होता। हाँ, सभी मिलकर पूर्णता के नजदीक जरूर होते हैं। हालाँकि, उन्होंने अपनी पेशागत पृष्ठिभूमि का उनकी इस यात्रा-वृत्तांत लेखन पर हावी नहीं होने देने की भरपूर कोशिश भी की है और मेरी समझ से, इसमें उन्हें बहुत हद तक सफलता भी मिली है, मगर पूरी तरह नहीं। एक बात और - एक पाठक के लिहाज से मेरा यह सोचना है कि इस तरह के अंधविश्वास से जुड़े किस्से के पक्ष में अगर विज्ञान की पृष्ठभूमि से जुड़े किसी लेखक द्वारा लिखा गया है, तो वह महज अंधविश्वास नहीं हो सकता। मगर, मैंने पाया कि अनेक अविश्वसनीय दृष्टांतों का उद्धरण देने के बावजूद, लेखक अपनी वैज्ञानिक सोच की परिधि से अंततः बाहर नहीं निकल पाये।

इस किताब में भूतों से इतर बहुत सारी ऐसी रोचक और आश्चर्यजनक जानकारियाँ एवं संस्मरण हैं, जो इसे उपयोगी बनाती है। इन सारे संस्मरणों को उन्होंने कुल चैदह अध्यायों में पिरोया है। चाहे हजारों वर्षों से चली आ रही आइसलैंड की मूलभाषा का अभी भी जीवंत रहना हो या अत्यंत विषम प्राकृतिक परिस्थितियों से जूझते वहाँ के लोगों का जीवट। सबकुछ अद्भुत है। मगर इन सबके बावजूद, पूरी किताब पढ़ने के दौरान यह उत्सुकता बनी ही रही कि अब कुछ ऐसा पढ़ने को मिलेगा जिससे यह साबित हो जाएगा कि सचमुच भूत होते हैं। जिस प्रकार कुछ घाघ अभिभावक छोटे बच्चों को मेला का लोभ दिखाकर मेला में घुमाते तो हैं, मगर, उसे उसकी मनपसन्द की वस्तु न दिलाकर इधर-उधर टहलाकर वापस घर ले आते हैं, वैसी ही अनुभूति मुझे इस किताब को पढ़ने के बाद हुई। नही तो, दो-चार दिन की और छुट्टी लेकर आइसलैंड घूमते और वहाँ की, खासकर ‘होल्माविक‘ जैसे भुतहा शहर की उस रहस्यमयी बुढ़िया के बारे में और अधिक विस्तार से लिखते। मगर नहीं, तूफान के डर से वहाँ से तुरत वापस हो लिए और हम वहाँ के दिलचस्प किस्से से वंचित ही रह गए। मुझे लगता है, लेखक को भी इसका मलाल तो होगा ही, क्योंकि बुढ़िया द्वारा बिना इनके बताये, इन्हें रविवार की फ्लाइट से जाने की बात कहना, कैमरा भूलने पर उसके द्वारा इनको फोन करना (इन्होंने खुद लिखा है कि इन्हें याद नहीं कि इन्होंने उसे अपना मोबाइल नंबर बताया था) और इनके द्वारा लिए गए यंत्र के फोटो की काॅपियों का अदृश्य होना जैसी अचरज से भरी घटनाएं कम रहस्यमयी नहीं थी। हालाँकि, इन्होंने इन सब अचरज से भरी घटनाओं पर तार्किक लेप लगाकर इनको झुठलाने की भरपूर कोशिश अवश्य की है, परन्तु, उसे मानने को मन राजी नहीं होता। इसलिए, ऐसा लगता है कि ‘होल्माविक‘ जैसे रहस्यपूर्ण शहर के बारे में जानने की इच्छा अधूरी ही रह गई।

‘गर आदमियों के बीच हो-हल्ले में ही रहना होता, तो आखिर प्रेत क्यों बनते ?‘- जैसे गुदगुदाने वाले वाक्यों से भरपूर पुस्तक का पहला ही अध्याय, ‘प्रेत परिकथा‘, भूत-प्रेतों के विभिन्न प्रकारों, यथा-ग्रामीण भूत, शहरी भूत, विदेशी भूत आदि के रोचक वर्णन के साथ बड़ी सहजता से तंत्र-साधना के अंतर्गत आने वाले पंच ‘म‘कार साधना का संक्षिप्त उल्लेख करता है। इसके बाद शुरु होती है प्रेतों के देश, आईसलैंड की रोमांचक यात्रा जिसका वर्णन आगे के अध्यायों में है।

पुस्तक के दूसरे अध्याय, ‘प्रेत-लैंड के ऊपर‘ में आईसलैंड का संक्षिप्त किन्तु रोचक वर्णन है जिसमें वहाँ की अनोखी परम्परा और संस्कृति, यथा - लिंग-पूजा, नामकरण-पद्धति, आदि के अतिरिक्त मनुष्य से इतर विचित्र लोग, ‘एल्व‘ एवं डायन जिसे ‘ट्राॅल‘ कहा जाता है, का अद्भुत वर्णन है। लेखक का यह कहना कि कभी बलात्कारियों के वर्चस्व वाला देश, आज स्त्रियों के लिए सर्वोत्तम देश है - विस्मित करता है। नामकरण के बारे में यह रोचक तथ्य, कि इस देश में सभी का उपनाम एक ही है, अचंभित करने वाला है।

‘‘आईसलैंड में लोग पत्थर नहीं फेंकते, इस डर से कि किसी ‘एल्व‘ को न लग जाए‘‘- ऐसा क्यों कहते हैं, अगर जानना हो तो पुस्तक के तीसरे अध्याय, ‘छुपे हुए लोग (हुल्डुफोक)‘ को पढ़ना होगा जिसमें हुल्डुफोक के बारे में रोचक किस्सों के साथ वहाँ के खान-पान और मिलने वाली स्वादिष्ट समुद्री मछलियों के अलावा ‘गुन्नु‘ डायन के अविश्वसनीय किस्सों का भी जिक्र है ।

किसी पुस्तक के सभी अध्यायों का संक्षिप्त विवरण देने से उस पुस्तक को पढ़ने की उत्सुकता खत्म हो सकती है। अतः इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए अब आगे के अध्यायों में वर्णित रोचक एवं रोमांचक रहस्यों पर पर्दा रहने देना ही उचित है। अगर आप भी भूतोें की रहस्यमयी दुुनिया को जानने हेतु उत्सुक हैं, तो इस पुस्तक को पढ़ें और ‘मृत्यु के अखबार‘, ‘होल्माविक के कौवे‘, ‘आईसलैंड के औघड़', ‘लिंगों का घर‘, ‘ज्वालामुखी और नर्क का द्वार‘, भूतों का हवाई-जहाज‘, देवभाषी देश‘, ‘ब्लू लगून‘, ‘सड़ी मछलियों का भोग‘, ‘प्रेतिनों से भेंट‘ तथा ‘अलविदा प्रेत‘ जैसे रोचक अध्यायों से रू-ब-रू हों।

यूँ तो यह पूरी पुस्तक ही रोचक है, परन्तु मुझे जिस अध्याय ने सबसे अधिक प्रभावित किया वह है - ‘देवभाषी देश‘। इस अध्याय में बहुत ही रोचक ढ़ंग से यह बतलाया गया है कि कैसे आईसलैंड के निवासियों ने हजारों वर्षों से चली आ रही अपनी मूल भाषा को संजो के रखा है। यह तब है जब पूरे स्कैन्डिनैविया ही नहीं वरन पूरे विश्व मे सबसे युवा देश आईसलैंड ही है। यह सचमुच प्रेरक है और हमें उनसे इस बात को सीखने की जरूरत है। संस्कृत भाषा के साथ यहाँ के भाषा का तुलनात्मक विवरण गर्वित करने वाला है। मगर, लेखक का यह कहना कि ‘जिस देश का इतिहास सबसे छोटा है, वहाँ इतिहास ज्यों-का-त्यों है एवं जिन देशों का इतिहास प्राचीन और गौरवशाली है, उनका इतिहास मिट गया‘ - सोचने पर विवश करने वाला है।

अंत में मेरा एक सुझाव जो थोड़ा अटपटा सा हो सकता है, वह यह कि इस तरह के यात्रा-वृत्तांत संबंधी पुस्तकों के साथ उसमें वर्णित संबद्ध स्थानों एवं घटनाओं का विडियो भी किसी रूप में संलग्न करना चाहिए जिससे अध्ययन के साथ-साथ उन स्थानों का साक्षात् भी संभव हो सके।

आशा है, लेखक महोदय इस सुझाव पर अमल करेंगे और आईसलैंड की अपनी इस अधूरी यात्रा को पूरा करने पुनः वहाँ की सैर को जाएंगे। अंत में लेखक प्रवीण झा को शुभकामनाओं समेत इस प्रथम पाठकीय प्रतिक्रिया हेतु भुल-चूक लेनी देनी.

रमेश चन्द्र झा

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