एक वक़्त था जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सनातनी और देशभक्ति की विचारधारा में पलने वाले अमरीश पुरी जी ने कभी भी फिल्मों में काम न करने का निर्णय लिया था। बाद में मुंबई रहकर लगभग 18 वर्ष के संघर्ष के बाद फ़िल्मों की शुरुआत करते हुए उसी अमरीश पुरी ने हिंदी के अलावा कन्नड़, पंजाबी, मलयालम, तेलुगू, तमिल और हॉलीवुड समेत करीब 400 फिल्मों में काम किया।
जी हाँ, अमरीश पुरी संघी थे !
अमरीश पुरी का जन्म 22 जून 1932 को पंजाब प्रान्त हुआ था। उनके पिता का नाम लाला निहाल सिंह और माता जी का नाम वेद कौर था। चमन पुरी, मदन पुरी, बहन चंद्रकांता और उनके छोटे भाई हरीश पुरी समेत वो पाँच भाई बहन थे। पंजाब और फिर दिल्ली के अपने घरों में रहकर उन्होंने आरम्भिक शिक्षा प्राप्त की थी।
उनके बचपन की एक रोचक बात है कि चूँकि वो दिखने में सभी भाई बहनों में थोड़े काले थे, पहले तो काफी दूध पीया की शायद गोरा हो जाऊं फिर एक बार जब काली भैंस देखी तो कहा की इसके दूध से तो मैं और भी काला हो जाऊंगा, क्योंकि भैंस काली है - सो अपनी माता जी को आगे भैंस का दूध न देने का आग्रह कर दिया।
अमरीश के बड़े भाई चमन और मदन पुरी सिनेमा में पहले से थे। मदन तो कोलकाता से अपनी नौकरी छोड़कर मुंबई चले गए थे जिसपर अमरीश पुरी के पिता बहुत नाखुश थे। उनके हिसाब से उनके परिवार में सबको सरकारी नौकरी करनी चाहिए। बकौल निहाल सिंह, फ़िल्मी दुनियां पाप और पापियों का अड्डा है जहाँ सिर्फ राजा महाराजा टाइप लोगों को जाना चाहिए। वो अपने साथ रह रहे अमरीश को अक्सर ऐसा कहते कि फिल्मों से दूर रहो। नतीजतन अमरीश पूरी ने लगभग 15 साल की बाली उम्र में ही यह तय कर लिया कि था वो कुछ भी करेंगे, फिल्मों में नहीं जायेंगे।
निहाल सिंह जी की सोच के पीछे एक ख़ास वजह थी। उन्होंने अपने भतीजे और संभवतः बॉलीवुड के पहले सुपर स्टार के एल सहगल को मात्र 42 वर्ष की उम्र में मरते देखा था। कहते हैं, शहगल साहब ड्रम के ड्रम रम पी जाया करते थे... तो अमरीश जी अपने पिता को दुःख न पहुंचाने का और फिल्मों की ओर रुख न करने का प्रण लेते हुए बी एम् कॉलेज शिमला में मन लगा कर पढ़ने लगे... ताकि अच्छी सरकारी नौकरी मिल सके।
चूँकि वो वक़्त आजादी से पहले का था। कॉलेज के शुरूआती दिनों में ही देशप्रेम और आज़ादी की ओर आकर्षित होते हुए अमरीश पुरी ने आर. एस. एस. की सदस्यता ले ली। संघ के साथ जुड़कर अमरीश जी के साथ दो महत्वपूर्ण बातें हुयी। पहला की - उनके आदर्श बदल गए और "फ़िल्मी दुनियां गलत है" - अपने पिता के अलावा वो भी ऐसा मानने लगे। दूसरी बात - अमरीश पुरी देशभक्ति के रंग में रंग गए। उस वक़्त संघ की 'राष्ट्र के लिए बलिदान' की विचारधारा से प्रभावित अमरीश पुरी थोड़े दिनों में ही संघ के प्रशिक्षु से प्रशिक्षक बन गए। वो संघ के शिविरों में युवाओं को सैनिक प्रशिक्षण देने लगे। संभवत: आजीवन अनुशासित और सादगी भारी ज़िंदगी को जीना उन्होंने यहीं से सीखा।
संघ के सम्बन्ध में अपनी आत्मकथा में उन्होंने कहा है - "बहुत ईमानदारी से कहूंगा कि मैं हिंदुत्व की विचारधारा की ओर आकर्षित हुआ था, जिसके अनुसार हम हिंदू हैं और हमें विदेशी शक्तियों से हिंदुस्तान की रक्षा करनी है, उन्हें निकाल बाहर करना है ताकि अपने देश पर हमारा शासन हो। लेकिन, इसका धार्मिक कट्टरता से कोई सम्बंध नहीं था, यह मात्र देशभक्ति थी"
आगे जनवरी 1948 में महात्मा गांधी की हत्या और उसमें संघ के होने की सम्भावना ने अमरीश पुरी को संघ से थोड़ा विमुख कर दिया। वो इसके ख़िलाफ़ कभी कुछ न बोले किंतु धीरे धीरे अलग होकर कॉलेज में नाटक और गायन करने लगे। यही नहीं, शिक्षा पूरी कर वो मुंबई अपने भाई मदन पुरी के पास चले गए।
कई सारे स्क्रीन टेस्ट में फ़ेल होने के बाद अमरीश पुरी ने वहाँ मुफ़्त में थिएटर में काम करना शुरू किया। गुज़ारे के लिए यहाँ वहाँ नौकरी में हाथ मारते रहे। कभी माचिस के ब्राण्ड का कमीशन एजेंट बने तो कभी बीमा कम्पनी के लिपिक। बीमा कम्पनी में काम करते उसी दफ़्तर में उनकी जीवन संगिनी भी मिली। 27 वर्ष की उम्र में उन्होंने उर्मिला जी से शादी कर ली। ज़िम्मेवारी बढ़ी तो ध्यान ऐक्टिंग से हट कर नौकरी पर ही रहा। दफ़्तर के ही एक महानुभाव इब्राहिम अलका जी को न जाने कैसे उनमें ऐक्टर दिख गया और वो मुफ़्त में थिएटर करने लगे।
क़िस्मत देखिए की पहले नाटक में अंधे का रोल मिला और दूजे में मृत व्यक्ति का। दोनों रोल में आँखें निर्जीव और खुली रखनी थी। इस तरह लगभग 17-18 साल मुफ़्त में थिएटर करते अमरीश पुरी अपनी पहली फ़िल्म के मक़ाम पर पहुँचे। अपनी राष्ट्रवादी छवि और लॉबी न बना पाने की आज से उन्हें कोई नामचीन पुरस्कार तो नहीं मिल पाया किंतु दर्शकों का बेपनाह प्यार ऐसा मिला की लोग फ़िल्मी दुनियाँ के विलेन "मोगेम्बो" और "मिस्टर इंडिया" से प्रेम करने लगे। लोग हीरोईन के खड़ूस बाप बलदेव सिंह को दिल दे बैठे।
अमरीश पुरी के अभिनय से सजी कुछ मशहूर फिल्मों में 'निशांत', 'गांधी', 'कुली', 'नगीना', 'राम लखन', 'त्रिदेव', 'फूल और कांटे', 'विश्वात्मा', 'दामिनी', 'करण अर्जुन', 'कोयला' आदि शामिल हैं। उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म 'गांधी' में 'खान' की भूमिका भी निभाई थी। उनके जीवन की अंतिम फिल्म 'किसना' थी जो 2004 में ब्रेन ट्यूमर से हुई उनकी मौत के बाद 2005 में रिलीज हुई।
थिएटर से कोई पैसा न बना पाने वाले अमरीश पुरी ने कहा था - "मैंने जीवन में जो कुछ हासिल किया उसका श्रेय सिर्फ़ और सिर्फ़ थिएटर को जाता है।" अपनी आत्मकथा "एक्ट ऑफ़ लाइफ़" में अमरीश पुरी कहते हैं - "जीवन का सूक्ष्म अवलोकन ही एक अभिनेता को असाधारण बनाता है।"
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