Monday, 7 April 2025

हमारी अवधारणाओं से ऊपर - मिथिला की रणभूमि


हमारी छोटी उम्र में नग्नता हमें उत्तेजना दिया करती है। युवावस्था में यही मौज हमें भौतिक (शारीरिक) सुख देता है और प्रौढ़ावस्था में इसकी प्राप्ति के लिए हमें उपलब्धियां, सुकून और नयापन का साथ चाहिए होता है।

जी नहीं, न तो मैं काम शास्त्र पर कोई शोध कर रहा हूँ और न ही मुझे कोई खास चाहत या फिर कोई कमी ही है मेरे अंदर। मैं बस यह कहना चाहता हूँ कि उम्र के हिसाब से आपकी समझ बूझ, आपकी स्वीकार्यता और आपकी इच्छाएं बदलती हैं।

दरअसल यही बात मैंने साहित्य को पढ़ते महसूस किया है। एक ही तरह के साहित्य का अलग अलग अवस्थाओं में अलग अलग असर होता है। जैसे जैसे आपकी समझबबूझ बदलती है (बढ़ती है नहीं लिखा है मैंने), हमारे लिए पढ़ी  पुस्तकों के मायने बदलते जाते हैं। इसका एक बहुत ही सहज उदाहरण है - मैंने शिवानी को लगभग 16-17 वर्ष की उम्र में पढ़ा और फिर 40-45 साल की अवस्था में फिर पढ़ा (जी नहीं, मेरी उम्र 50 साल है), दोनों ही समय मुझे इसका अलग अलग भावार्थ लगा। संभवतः बाद के दिनों में पढे को मैं समग्रता से समझ भी सका या यूं कहिए कि मैं साहित्यकार द्वारा किये अटेम्प्ट के सही इन्टेन्ट तक पहुँच पाया (मुझे पता है, "प्रयास के मर्म को समझ पाया" लिखना था यहाँ)। यह अवस्था संभवतः वह होती है जब आप बाह्य आवरणों के अंदर की बात भाँपने लगते हैं, जब आप चमक-दमक से आकर्षित नहीं होते हैं।

खैर, ऐसा विरले ही होता होगा जब आपकी उम्र (समझबूझ) के हिसाब से साहित्य पढ़ने को मिला हो आपको जब आपका और साहित्य का लेवल समानांतर हो... उदाहरणार्थ वो पल जब आपके मूड के हिसाब से ही पैग और सुट्टा मिल गया हो आपको।

संप्रति अभी मिथिला की रणभूमि पुस्तक को पढ़ते मुझे यही संयोग बनता दिखा। हमारी आम अवधारणायें हैं - हम विद्वान लोग, शास्त्र पुराण पढ़ने और सिखाने वाले लोग, भगवती को पूजने और महादेव से कार्य लेने वाले लोग, भगवान राम को गरियाने का अधिकार रखने वाले लोग, हमारी "अदृश्य" महानता का दंभ रखने वाले हम लोग। उफ्फ़ उफ्फ़ उफ्फ़ !  मेरी हो चुकी उम्र में भी जबकि कई बार उपेक्षा, अन्याय और सुविधाओं की अनउपलब्धता को देखकर मेरी भुजायें फड़कती हैं, कई बार ऐसा होता है जब खून की गर्मी सर तक जाती है किन्तु अपनी अवधारणाओं का ध्यान करके मैं चुप हो जाता रहा। 

ऐसे में इस किताब ने मुझे बल दिया जब मैंने पढ़ा कि हमारे मिथिला महान वाले इतिहास में इन अवधारणाओं के अलावा योद्धाओं और शस्त्र विद्या का पुट भी है। हमने न केवल मैथिली के माध्यम से संस्कृत पढ़ा है बल्कि हमने अस्त्र चलाना भी सीखा था। शास्त्र मात्र पढ़ने का लेबल लिए हमने वस्तुतः आत्मरक्षार्थ शस्त्र भी चलाया है।

जैसा कि मिथिला के सुपरिचित इतिहासकार अवनिन्द्र सर ने पुस्तक के प्राक्कथन में लिखा है - लेखक ने वैज्ञानिक तरीके से संदर्भों की प्रस्तुति तो की ही है, रेफ्रन्स देकर उसे प्रामाणिक भी किया है। लेखक (वस्तुतः शोधकर्ता) सुनील कुमार झा "भानु" जी सहरसा (मुझे दरभंगा वालों, गैर-मैथिल न कहना) के निवासी हैं। भोजपुरी, हिन्दी, अंग्रेजी, जापानी और मैथिली भाषा के जानकार भानु जी ई-समाद के प्रबंध न्यासी भी हैं जो इससे पहले "मंटुनमा" और "प्रेमक टाइमलाइन" लिख चुके हैं। 

कुल जमा 126 पृष्ठ की इस आकर्षक छपाई वाली इस पुस्तक की कीमत बिहार में मिलने वाले एक बियर बोतल के बराबर यानि मात्र 249 रुपया है जिसे ई-समाद बिना डाक खर्च के आप तक पहुंचाता है।

अन्य पुस्तक समीक्षाओं की तरह इसकी अधिक व्याख्या कर मैं पुस्तक का रोमांच कम नहीं करना चाहता... आप इसे पढ़ें, पढ़ाएं और कुछेक गरिष्ठ लोगों के बपौती से इतर और अवधारणाओं से ऊपर अपने वास्तविक मिथिला को जानें !

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