Tuesday, 26 March 2024

नुति की चिट्ठियाँ - काल्पनिक स्त्री कथा

नुति एक काल्पनिक स्त्री है जिसका किसी से भी कोई लेना देना नहीं है. उसकी अपनी संवेदनाएं हैं जिसका भी यथार्थ से कोई लेना देना नहीं. उसे किसी से कुछ चाहिए भी नहीं. आप से ये मुझसे कोई अपेक्षा नहीं रखती वो और न ही किसी से कोई शिकवा शिकायत ही है उसे. उसे बस अपनी बात रखनी है एक ऐसे माध्यम के समक्ष जो उसकी बातों का मतलब न निकाले और न उसे आंकने की कोशिश करे कोई.

पहली चिट्ठी अनाम के नाम 

दिनांक २०-०८-१९ सुबह ०३:०० 

नुति को नहीं पता कि कहाँ से शुरुआत हो। …मगर हाँ, फ़िलहाल शायद उसे बस एक माध्यम चाहिए जिससे वो अपनी बात कह सके। उसके मन की वो सारी बातें जो समाज-परिवार के बनाये नियमों के अंदर फिट नहीं बैठते। दरअसल नुति को ऐसा लगता है कि या तो वो ऊपर वाले की कोई गलती है या फिर नुति के दिमाग में ही कोई नुक्स है। यदि ऐसा नहीं होता तो आखिरकार उसके मन में ऐसी बातें आती ही क्यों। अब या तो ये सिस्टम बदले या फिर मन में सिस्टम के खिलाफ आने वाले विचार। लेकिन इतना सब क्यूँ और कैसे …. इसलिए फ़िलहाल उसे एक जरिया चाहिए जो उसके समाज-परिवार वाले सिस्टम से भी न हो और भरोसेमंद भी हो।

हालाँकि यह है बड़ा दुष्कर … शायद असंभव के करीब लेकिन फिर भी ऐसा जरिया तो चाहिए ही। कैसा जरिया? हाँ… इसे परिभाषित करना बेहद जरुरी है। स्पेसिफिकेशन सेट हो तो शायद ढूँढना आसान हो जाये।

तो नुति को एक ऐसा जरिया चाहिए जिसके सामने उसे झूठ बोलने की जरुरत न हो। जिसके सामने वो ठीक वैसी ही बनी रह सके जैसी वो वास्तव में है। कुछ ऐसा, जहाँ वो सहज और बेझिझक होकर अपनी अच्छाइयों के साथ अपने अंदर की तमाम बुराइयां भी बता सके… वैसे तो वास्तविक जीवन में वो अक्सर अपनी इच्छा से हाँ-ना, पसंद ना पसंद जाहिर करने में असमर्थ होती है लेकिन अपने इस जरिये को बता देना चाहती है कि वहां उसकी ना थी या अमुक बात उसे पसंद या फिर नापसंद थी। वो बता देना चाहती है कि अमुक समय वो भले सबकुछ स्वीकार गयी लेकिन उसे वो गंध, वो स्वाद, वो तरीका या वो बात पसंद नहीं आयी थी।

ऐसा भी नहीं है कि नुति परिवार-समाज की नियमावली के खिलाफ जाना चाहती और न ही इस नए जरिये से उसकी कोई अपेक्षाएं हैं… वो तो बस उसे अपनी बात कह देने भर के लिए कोई चाहिए। और फिर कहना भी क्या, उसे तो अपना एंगल भर बताना है। क्योंकि उसे लगता है कि ऐसा करने से उसका कोई भी दुःख नासूर नहीं बनेगा। इससे वो उस चलती आ रही नियमावली को भी फॉलो कर लेगी। ऐसा करने से कुछ विशेष नहीं बस उसका मन हल्का हो लेगा। जिससे उसकी और समाज- परिवार की जिंदगी बिना किसी परेशानी के शायद थोड़ी खुशफहमी से ही किन्तु अनवरत चलती रहेगी।

न न नुति ऐसी नहीं है… ग़लतफ़हमी में मत रहिएगा। ऐसा वैसा सोचेंगे तो – “तीखणी है वो भटिण्डा की” असल में वो न तो बंधनों को तोड़ना चाहती है और न ही कोई क्रांति लाना चाहती है। वो अपने सामने खींची लक्ष्मण रेखा में रहकर, सारे बंधनों में बंधी हुई बस अपने मन की बात इस दायरे से बाहर किसी जरिये को बता देना चाहती है ताकि विचारों को मन में दफ़नाने से कोई नासूर न पैदा हो जाये उसके अंदर। उसे बखूबी पता है कि अपनी पहचान रखकर अपने ही दायरे (परिवार-समाज) में यह सब कुछ नहीं शेयर कर सकती है। वजह वही पुराना – हम चाहे हमारे समाज में कितना भी नारीमुक्ति और वीमेन इम्पावरमेन्ट का ढिंढोरा पीट लें लेकिन यह सब स्वीकारना तो दूर, बताना भी बड़ी बवाली चीज हो जाएगी।

असल में नुति का यह मानना है कि जीवन को सीधा सीधा ब्लैक एंड वाइट में नहीं देखना चाहिए। क्योंकि इससे जीवन मुश्किल ही नहीं, दुष्कर हो जायेगा। इसलिए इसमें थोड़ा ग्रे भी होना चाहिए बशर्ते यह ग्रे, ब्लैक या वाइट पर कोई असर न डाले । लेकिन इस ग्रे की जरा सी गुंजाईश भर जरूर हो।

तो नुति इस ग्रे को शेयर करने का एक जरिया चाहती है। एक ऐसा जरिया जो अपना न हो, दायरे से बाहर हो मगर अपने ही पिता, भाई, बहन, प्रेमी या दोस्त सा हो। जो उसे और उसके अंतर्मन के सच को सुनें… हो सके तो इन सब ग्रे को भुलाने को (ब्लैक एंड वाइट को बिना छुए) उसे थोड़ा बहला दे… कुछ कहानियां सुना दे… डाँट दे, या थोड़ी पॉजिटिविटी डाल दे..

तो आइये दुआ करें कि नुति को उसका वो जरिया मिले और उसके ग्रे की भी कहानियाँ बने !

दूसरी चिट्ठी

इस चिट्ठी से पहले एक खुशखबरी है ! नुति की पहली चिट्ठी को लोगों ने प्यार भी दिया और इस चिट्ठी की मदद से उसे अपना अभिलाषित जरिया भी मिल गया है उसे. 

अब चूँकि इस जरिये के बहाने नुति हम सबके बीच आएगी, सो आज पहले नुति के इस जरिये की बात कर लेते हैं। वो जरा सा तुनकमिजाजी है, थोड़ा पागल सा और थोड़ा घमंडी भी। देखने में कुछ ख़ास तो नहीं लेकिन दिलो-दिमाग का सुन्दर है। उसने यह भरोसा कायम किया है कि वो बिना स्वार्थ और मोह के नुति को सुनेगा, किसी को सुना कर सुकून मिलने वाला सुकून देगा। बदले में न केवल वो मौन धारण करेगा बल्कि अपनी भावनाओं को भी अपने काबू में रखेगा... आखिर तभी तो वो नुति की पसंद है. 


नुति ने इस जरिये का नामकरण भी कर दिया आज। वेणु – यह नाम दिया है नुति ने अपने जरिये का। नुति आज वेणु को जो कुछ भी कहती है वो दूसरी चिट्ठी बनती है। तो आइये खोलें यह चिट्ठी.

दिनांक १५-०९-१९ अपराह्न ०४:२५

प्यारे वेणु,

मुझे लगता है हम दोनों के बीच के इस अनाम सम्बन्ध के नियम कानून और सीमाएं निर्धारित हो चुकीं हैं। मुझे तुमपर और तुम्हें मुझपर भी पूरा भरोसा है । 🙂

आज इस दूसरी चिट्ठी के माध्यम से मैं तुमसे अपने आदर्श पुरुष की बात करना चाहती हूँ। वो आदर्श पुरुष जो मेरा दोस्त, प्रेमी, पति या फिर तीनों होने का हक़दार है। जैसे हर एक स्त्री मन में अपना एक अलग सा आदर्श पुरुष परिभाषित होता है वैसे ही मेरे मन में भी एक परिभाषा अंकित है।

मेरे इस पुरुष की परिभाषा में समाज में प्रचलित कोई टाल-हैंडसम और अमीर आदमी नहीं है, बल्कि मैं उसमें अपने निजी पसंद मात्र को देखना चाहती हूँ । मेरी अभिलाषा के स्वप्न लोक में बसे पुरुष विशेष की परिभाषा कुछ ऐसी है –

“वो पुरुष जो सर्वप्रथम अपना खुद का ख्याल रख सके, वो हाजिर जवाब हो और दूसरों को भी खुद सा ही इंसान समझता हो। वो जो स्त्री के कंधे पर बोझ डालने के अलावा उसे अपना सहारा भी समझे, झूठी मर्दानगी की अकड़ छोड़ बिना शर्म जो उसके गेसुओं में अपने आंसू छुपाने की हिम्मत भी रखता हो।

वो पुरुष जो अपने फैसलों में अपनी स्त्री को भी न केवल बराबर का हक़दार समझे, बल्कि उसे खुद को साबित करने का मौका भी दे। वो, जो अपनी स्त्री को वस्तु मात्र न समझे बल्कि जिससे उसका वास्तु भी सुधर जाय। वो पुरुष जो किचन में काम भले न करे मगर उसे पता हो कि वहां ग्लास कहाँ रखी है और चूल्हे का बर्नर किधर है। वो पुरुष जो छु जाए तो मन पवित्र हो। …और वो… हाँ, वो जब मुझे अपनी बाँहों में ले तो उसे मेरी दबती नसों और सांसों का भी ख्याल हो... जिसे खुद को सौंपते मन खिले...”

मैं अपने इस पुरुष के सामने नखरे भी करना चाहती हूँ और मेरी यह चाहत है कि मेरे इन नखरों को सहा जाए, मुझे मनाया जाय… मेरी इच्छा है कि कभी कभार मैं नादानियाँ करुं और मेरी इन चंद नादानियों को भुला भी दिया जाय। मैं अपने इस पुरुष से सहेलियों सरीखे लम्बी बात करने की इच्छा रखती हूँ । …चांदनी रातों में उसका हाथ पकड़ उसके साथ दूर टहलना चाहती हूँ...समंदर के किनारे पड़े रेत से खेलना चाहती हूँ। मैं चाहती हूँ की वो मेरे साथ कहकहे लगाए, मुझे मेरे आंसू न छुपाने पड़ें उसके सामने…

असल में मैं एक ऐसी पुरुष की परिकल्पना में हूँ जिसका सबकुछ मेरा हो और जो मेरी सभी चीजों को अपना समझ सके…

विशेष अगली चिट्ठी में
तुम्हारी काल्पनिक मित्र नुति 
 
नुति तीसरी चिट्ठी

नुति की पहली और दूसरी चिट्ठी को लोगों ने खूब प्यार दिया । लेखक से लगातार तीसरी चिट्ठी की डिमांड होने लगी. सो प्रस्तुत है “नुति की तीसरी चिट्ठी” पढ़िये और अपनी प्रतिक्रिया आवश्य दीजिए ताकि “विचारबिन्दु” के इस डायरी श्रृंखला को आगे बढ़ाया जा सके।

दिनांक ११-१०-२०१९ रात्री ११:०० 

वेणु,

सुनो ना, मुझे नहीं पता तुम्हें क्या सम्बोधन दूँ। तुम अपने से हो… शायद पिता से, बड़े भाई से या फिर मेरे सबसे करीबी दोस्त से। सो बिना अधिक सोचे सीधे तुम्हारा नाम ही लिख दिया। कहना जरुरी इसलिए था की तुम कहीं यह न समझ लो की मुझे चिट्ठी लिखनी नहीं आती ।

इस चिट्ठी में देरी हुयी। वजह नहीं कह पाऊँगी और मुझे पता है तुम पूछोगे भी नहीं। इन दिनों जीवन जीते कुछ ऐसा लग रहा है जैसे मैं अब तक खुद को किसी और के लिए तैयार करती आई थी। मुझे नहीं पता बांकी लोग क्या करते हैं लेकिन मुझे तो यही लगता है कि हम नुतियाँ अपनी ही जिंदगी के मापदंड नहीं तय कर सकतीं, सपने नहीं बुन सकती, अपनी ख्वाहिशें नहीं सहेज सकती… एक स्त्री के रूप में हमें सिर्फ और सिर्फ किसी और के सपने पुरे करने का माध्यम बनना होता है। शायद एक ऐसे प्रक्रिया का माध्यम जिसमें खुद को घिसकर चमकाया नहीं जाता बल्कि बिना ईच्छा पूर्ति के खुद का ह्रास किया जाता है।

मुझे नहीं पता यह सब आज क्यों आया दिमाग में मगर मेरे जेहन में आकर मुझे ही खोखला कर गयीं कहीं। तुम ही कहो वेणु, क्या ये सच नहीं की मैं ( या फिर मुझ सी कोई और नुति ) परिवार की जिंदगी सवांरने भर को और उनकी ख़ुशी में ही अपनी ख़ुशी ढूंढने मात्र को बनी हूँ ?

मुझे सफ़ेद, बिना किसी दाग के, साफ सुथरा समंदर पसंद है वेणु। लेकिन क्या हो जब उनको कुछ और और बच्चों को मॉल के प्ले स्टेशन ही पसंद हो। मुझे संगीत पसंद है लेकिन क्या हो की बांकियों को “कुछ और” मात्र पसंद हो। और सच्ची कहूं ये “कुछ और” न सबसे अधिक जानमारुख है मेरे लिए।

पता है वेणु, मुझे इस “कुछ और” से कोई गुरेज भी नहीं अब लेकिन तकलीफ तब अधिक होती है जब इनके “कुछ और” में मैं एक साधन की तरह इस्तेमाल मात्र होती हूँ। इस्तेमाल भी करो, मगर अपना समझ कर… मेरी भी इच्छाओं और सुभीता का ध्यान रख कर आप अपना “कुछ और” करो ना। क्या ये संभव नहीं की ये कुछ और एकतरफा न हो ? अधिक नफा उनका मगर थोड़ा नफा मेरा भी तो हो… और सबसे ऊपर यह बात की क्या मेरे नफे से आपको आनंद नहीं आता ?

शायद आज मैं अधिक इमोशनल हूँ… लेकिन तुम ही कहो की क्या मैं सच नहीं कह रही ? मुझे पता है यह सच कहने योग्य नहीं बल्कि इसे ही दिल में जज्ब कर घुटते रहने का नाम नुति की जिंदगी है। ….यहाँ तुमको धन्यवाद करती हूँ, मैं तुम्हारी शुक्रगुजार हूँ कि तुम मुझे सुन रहे हो…. और इस बहाने मैं कोई क्रांति वगैरह भले न कर दूँ, कम से कम घुटन से तो बच ही रही मैं।

वेणु, मैं आगे कुछ और लिखने से पहले थोड़ा रुकना चाहती हूँ, मैं तुमसे बात करना चाहती हूँ वेणु। मुझे पता है शायद समाज को यह चिट्ठी लिखना भी स्वीकार्य नहीं होगा और मैंने कभी सोचा भी नहीं की मेरे इस चिट्ठी लिखने और तुम्हारे पढ़ने के रिश्ते का नाम क्या होगा… मुझे यह भी नहीं पता की यह कब तक चलेगा और इसका भविष्य क्या है लेकिन सच बताऊँ वेणु मुझे एक नई जिंदगी मिली है इस लिखने भर से। मैं और कुछ चाहती भी नहीं तुमसे सिवाय इसके की तुम मेरी सुनते रहो। क्या ये कम है कि बिना किसी स्वार्थ के तुम मेरी सुन रहे ? हाँ, एक बार मिलना चाहती हूँ तुमसे…. सामने से देखना चाहती हूँ तुमसे… शायद मैं एक बार तुमको छूना भी चाहती हूँ । तुम चिंता मत करो यह आज जरुरी नहीं, बल्कि कभी भी… शायद तब भी जब तुम्हारे मुंह में दांत और मेरे सर पर काले बाल भी न हों। बस तुम याद रखना – मुझे उस एक दिन का इंतजार रहेगा।

शायद तुम मिले हो तो मैं खुद को अधिक सोचने लगी हूँ। शायद नहीं, बल्कि यही सच है। पिछले दिनों मैं सोचती रही की अगर फिर से मुझे मेरे जीवन के ऐसे कुछ दिन मिल जाएँ जिसमें मैं खुद को जी सकूँ, तो क्या होगा। इस सोच के पीछे भी तुम ही हो वरना मैं तो भूल ही चुकी थी की मेरी अपनी भी ख्वाहिशें हैं। काफी देरी लगी मुझे मुझे इन पसंदीदा बातों को याद करने में लेकिन अब सब याद आ गया है मुझे।

हाँ, मुझे पहले एक बार समंदर में डुबकी लगाना है । शायद वहां सब कुछ धुल सकूँ मैं… असंख्य बुरी नजरें, ताने, चीख… “कुछ और” के निशान भी- मुझे इल्म है कि शायद ये सब धुल जाता है समंदर के खारे पानी में।

कभी मिले ऐसे दिनों में मुझे मेरे गाँव जाना है एक बार फिर से जहाँ फिर से माँ मेरी चोटी कर दे और मैं बाबा के साथ मेला जाऊं। बाबा फिर से मुझे वो आजादी दें जहाँ मैं किसी और की परवाह किये बगैर खिलखिला सकूँ, कहीं भी बैठ सकूँ, कहीं भी लेट सकूँ। वेणु, ऐसे मिले उन दिन में मैं चाहूंगी की मेरे अब के घर में मेरी सुनी जाए। कोई अपनी इच्छाएं न थोपे मुझ पर…. मेरे शरीर को एक मांस का बड़ा टुकड़ा मात्र न समझ कर उसे अलग अलग देखा जाय…. न सिर्फ इस्तेमाल के दौरान उस पर वार हो बल्कि उसे निहारा भी जाय…. मेरे गाल के तिल और मेरी पलकों की तारीफ़ भले न हो, स्पर्श भर देकर उन्हें पैंपर तो किया जाए।

तुम्हें पता है वेणु, मेरे अंदर एक डर घर कर गया है। ये डर दो बातों को लेकर है। मुझे नहीं पता की मेरी इन बातों का क्या असर हो रहा है तुम्हारी जिंदगी में, मुझे डर है कि कहीं मैं तुम्हारा नुकसान तो नहीं कर रही…. और क्या मैं तुम्हें खो तो नहीं दूंगी ?

यदि संभव हो तो एक बार मुझे जवाब लिखना। लिखोगे न वेणु ?

नुति

मुझे फिर से नहीं पता की क्या लिखूं – “तुम्हारी नुति” या कुछ और… लेकिन तुम तो अपने से हो सो सिर्फ नुति लिख दिया. 

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