Saturday, 3 February 2024

पुस्तक समीक्षा - बकर पुराण - अजीत भारती


बकर पुराण मुझे ख़ुद का लिखा सा लगा. जो कुछ दिनों से मुझे पढ़ रहे हैं वो यह किताब पढ़ें तो ख़ुद ही मेरी इस बात का सबूत पाएँगे. बक़ौल बकर पुराण, दरअसल हमें स्वीकारना चाहिए की हम कम ही वो लिखते हैं जो हमारे दिल में चलता या होता है... आम बोल चाल वाला मनुष्य लिखते वक़्त सोफ़िस्टिकेटेड हो जाता है... बनावटीपन ले आता है लिखने में... ठीक वैसे ही जैसे सबको बीवी माधुरी और पड़ोसन सनी लेओन अच्छी लगती है... हाथी के दाँत खाने के और दिखाने के...

लेखक ने वास्तविक बोलचाल और लेखन के बड़े से गैप को कम या ख़त्म करने की कोशिश की है... और इससे कई बार यूँ लगता है जैसे इग्ज़ैक्ट्ली मेरे साथ भी ऐसा ही तो हुआ था... ऐसे ही तो बोला था उसने... ऐसे ही तो मैंने उल्लू बनाया था... या फिर साला ये तो हम भी लिख सकते थे टाइप फ़ीलिंग... (हालाँकि लिखने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हम)

अब देखिए आप किसी सरकारी दफ़्तर के पीउन के पास गए और आप बोलते हैं - 'अरे भैया, क्या तुम्हारे साहब अंदर हैं..., साला छोटे से काम के लिए कितना चक्कर लगाओगे..., बैंचो तुम लोग..., कुछ लेना है तो मुँह खोलो न भर देते हैं' - अब इसी बात को यदि आपको लिखना हो या किसी को बताना हो तो आप बताते/लिखते हैं - मैं दफ़्तर में पीउन से मिला और उसे कहा - 'भैया, कितना चक्कर काटना होगा यार, कोई और रास्ता हो तो बताओ जिससे तुम्हारे साहब काम कर दें' बताइए अब कि... आख़िर क्यों ये ढोंग और फ़रेब है कम्यूनिकेशन में. बकर पुराण इसी अंतर को ख़त्म करती लगती है और इसलिए अधिकांश घटनाएँ आस पास की या फिर आपबीती लगती है.

पुस्तक के पहले चैप्टर या बकैती में आम आदमी को ढूँढने की असफल कोशिश की गई है... हालाँकि मेरा मानना है कि आम आदमी और सभ्य आदमी के अलावा एक और तीजा आदमी होता है जो होता तो सभ्य है पर मौक़ा पाते ही आम आदमी हो जाता है.

बकर पुराण शायद यह संदेश भी देता है कि अगर कभी... कहीं अपना शर्ट खोलकर या कमर हिला कर नाचने का मन हो तो नाचो ना... किसने रोका है. शरीर तुम्हारा... मन तुम्हारा.. मौक़ा-ख़ुशी तुम्हारी.. फिर किसी और की परवाह क्यूँ. हाँ, यहाँ ध्यान ये रखना है कि कुछ भी फूहड़ और अश्लील न हो.

'किताब में सब कुछ व्यंग और मौज मस्ती का है' - मेरी यह ग़लतफ़हमी इतनी ज़ोर से टूटी की एक बार तो मैंने किताब को अलट पलट कर देखा की मैं बकर पुराण ही पढ़ रहा हूँ ना. आप ख़ुद ही ग़ौर फ़रमाएँ पहली कहानी की एक लाइन - 'इस देश का दुर्भाग्य है की सेंसिबल लोग रात का शो देखने आते हैं और उधर भरी दोपहरी और भरे बाज़ार में किसी नवयुवक की पीट पीट कर हत्या कर दी जाती है... '

एक और बात जो इस किताब को पढ़ कर पता चलती है वो ये की लेखक ने कामु, क़ाफा, ग़ालिब, प्रसाद, प्रेमचंद ... हिंदी, अंग्रेज़ी, संस्कृत... अच्छा, घटिया... सब साहित्य को न सिर्फ़ पढ़ रखा है बल्कि आत्मसात भी किया हुआ है. बिना पढ़े आसान नहीं है मिका के किसी गाने को शेक्सपियर और ग़ालिब की रचना से जोड़ पाना.

किताब अभी ख़त्म नहीं हुई है किंतु मैं अपनी बकलोली फ़िलहाल यह कह कर ख़त्म करता हूँ की - "आज की भाग दौड़ वाली ज़िंदगी में जहाँ लोगों को बड़ी कहानियाँ या उपन्यास पढने का न तो वक़्त है और न पेशेंस, बकर पुराण छोटे पैकेट का बड़ा मजा है... छोटे छोटे अध्याय के द्वारा एस ज़मीनी लेखक ने बड़े बड़े रोचक अनुभव लिख डाले हैं जो गुदगुदाते हैं, अपना सा अहसास देते हैं, सिखाते हैं.... सबको इस नए टाइप के साहित्य को एक बार ज़रूर पढ़ना चाहिए'


किताब में युवाओं से जुड़े करीब 47 प्रसंग हैं जिसकी शुरुआत सिनेमा से होती है. आम आदमी जब सिनेमा जाता है प्रसंग में लेखक ने सिंगल स्क्रीन सिनेमा हॉल जाने वालों, खासकर युवाओं की अल्हड़बाजी को व्यंग्य की शक्ल में जीवंत करने की कोशिश की है. कैसे वे बातों-बातों में बहस-झगड़ा, धक्का-मुक्की करते हैं और दृश्यों के दौरान कमेंट्स कर मजे करते हैं. फिर हिंदी फिल्मों में ऐसा ही क्यों होता है लेख में खासकर '90 के दशक के बॉलीवुड की मसाला फिल्मों में बार-बार नजर आने वाले ट्रेंड के बारे में लिखा गया है कि कैसे इनमें अमूमन हीरो शहरी बाबू होता था, हीरो गरीब और ससुर अमीर होता था, गुंडे बलात्कारी होते थे, जो सफल नहीं हो पाते.



अंत में लम्बे बालों वाले वाले लेखक को दो सलाह है - १) कृपा करके इसकी अगली कड़ी प्रस्तुत की जाय और २) एक बार वाइन को ज़रूर चखें.. ख़ुद को नहीं बल्कि दूसरों के मजे के लिए.. क्या पता लेखनी में और मजा आ जाय 😊

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