डिअर धैर्यकाँत,
कल ४ महीने बाद तुमने अपने वाल पर लिखा। जब दिल से लिखते हो, लिखते ही हो....शानदार लिखा दोस्त।
ये जितना बड़ा सच है कि लिखने से मन हल्का होता है उतना बड़ा सच ये भी है कि सवाल जवाब और प्रतिउत्तर से वही मन फिर से उतना अधिक भारी भी हो जाता है। अच्छा करते हो की अब इन चक्करों में नहीं पड़ते तुम।
ये सच है कि सोशल मीडिया पर जो दिखता है दरअसल निजी जिंदगी में वैसा कुछ कम ही होता है। यहाँ अपने सारे दुःख दर्द, सारी कमियां और फ़टे को छुपाकर आता है इंसान। हालाँकि इसके सही वजह का पता नहीं मुझे लेकिन शायद होड़ और प्रतिस्पर्धा सबसे बड़ी वजह लगती है मुझे जिसमें इंसान को जाना कहाँ हैं वो नहीं पता होता है। देख रहा हूँ सब भाग रहे हैं... कोई किसी से बेहतर दिखने में तो कोई खुद को बड़ा ज्ञानी साबित करने में... कोई कोई तो अपनी ही जिंदगी के खालीपन को झुठलाने भर को लिखता है।
मुझे लगता है हम सबने एक मुखौटा पहन रखा है और कहीं न कहीं यह मुखौटा शायद जरुरी भी है.... जिंदगी जीते रहने के लिए। बिना नकाब शायद आप नकार दिए जाएँ, आपके अपने भी आपको पहचानने से इंकार कर दें क्योंकि उनके लिए आपने जो चोला पहन रखा होता है वो आपको उसी में बने देखना चाहते हैं... कोई आपका वास्तविक रूप या फिर आपको आपके स्वयं की जरूरतों में नहीं देखना चाहता है।
ऐसे में हम शायद जॉन के उस शेर को याद करके जिए जाते हैं की - कितने दिलकश हो तुम कितना दिलजूँ हूँ मैं, क्या सितम है कि हम लोग मर जाएंगे - हाँ शायद यही सोचकर की दुनियां तो दो दिन का मेला है, मर ही जाना है, कौन पंगे ले... तो दम घुटते हुए भी हम मुखौटा पहने रहते हैं।
हाँ, तुम सही हो की जब इंसान खुद को अपने ही द्वारा परिभाषित सांचें में गलत पाता है तो वो अलग अलग चीजें तलाशने और उनको आजमाने लगता है। जल्दी सबकुछ सही करने की कोशिश में वो आधा अधूरा छोड़ता जाता है सब... उसे लगता है कि ये तो बाद में कर लेंगे लेकिन ये सब अधूरे काम उसके कंधे पर बोझ बढ़ाते जाते हैं... वो झुक कर चलने लगता है, खोया रहता है, वो सिगरेट और शराब को अपना दोस्त समझने लगता है.... उसकी आँखों के निचे के गढ्ढे गहरे होते जाते हैं, उसका खुद का सिस्टम खराब हो जाता है सारा सिस्टम मैनेज करते करते।
हाँ, रिश्ते चाहे घर के हों या फिर बाहर के या फिर सोशल मीडिया के, साले @#$@% सब स्वार्थ पर ही आधारित होते हैं। एक बार आपने स्वार्थ पूर्ति बंद किया नहीं की वो गधे के सर से सींग की तरह आपके जीवन से गायब। वो ये भी नहीं सोचते समझते की खुद तुम्हारा भी कोई स्वार्थ होगा... क्या पता लाचारी ही हो। उनके हिसाब से लाचारी तो हमारी अपनी है न... वो लोग चले जाते हैं, कहीं और... शायद किसी और की दुनियां में। हमारी बदकिस्मती की वहां वो बजाय हमारे किये की चर्चा के हमारी बदखोई करने में लग जाते हैं। वो हमारी बुराई तक ही शांत नहीं होते बल्कि हमारा ही वजूद ख़त्म करने की साजिश करने में लग जाते हैं... वो यह साबित करने में लग जाते हैं कि कैसे वो ही हमारे लिए जरुरी था, हम नहीं। इसमें एक स्टेप आगे और देखा है मैंने - जिसके सामने हमारी यह तारीफ़ हो रही होती है वो आदमी भी हमारे बारे में एक परसेप्शन बना लेता है... हमसे बिना बात किये कोई आदमी कैसे हमारे बारे में कोई विचार बना लेता है पता नहीं लेकिन आजकल ये नया ट्रेंड चला है कि आप किसी से कुछ सुनकर हमारे बारे में राय बना लो... सोशल मीडिया पर किसी को पढ़ कर उसे जज कर लो और फिर कब्जी सा मुंह फुला लो।
तुमने लिखा की परिवार और रिश्ते आपके सामने गढ्डा खोद देते हैं। शत प्रतिशत तो ऐसा नहीं है किन्तु हम जहाँ से हैं वहां इसका प्रतिशत बहुत अधिक है। कई उदाहरण देखे हैं मैंने जब एक लड़का अपने परिवार के लिए खुद को ख़त्म कर लेता है और उसका परिवार बजाय शाबाशी के उसकी वजह से न हो पाए कामों के ताने भर देता है। उसने क्या किया ये न बताकर उसने क्या नहीं किया वही बताया गया उसे ताकि उसे याद रह सके की वो बस सहने, थोड़ा और करने और थोड़ा और करने को ही बना है।
बड़े शहरों की प्रेमिकाएं.... अब इतने सारे उदाहरण देख लिए की इस पर मुझे लिखते हुए भी शर्म आती है। यह मान कर चलो की दिल्ली एन सी आर की प्रेमिकाएं प्रेम नहीं करती बल्कि आपके भोलेपन के हिसाब से आपकी जेब और मानसिक शक्ति (...) के खोखले होने का इंतजार भर करती हैं। बस इतना कहूंगा की प्रेम ही करना है तो बच्चे बच्चियों से करो... खुश महिलाओं को दोस्त बनाओ... ज्यादा जी करे तो केजरीवाल को चंदा दे आओ या फिर खुद को चॉकलेट, वाइन आदि गिफ्ट कर दो..... मगर दिल्ली की प्रेमिकाएं, न बाबा न।
पता हैं मुझे इन सब बातों से कोई ख़ास मलाल भी नहीं और मैं भी तुम्हारी तरह परवाह भी नहीं करता अब किसी की। अगर भूखा हूँ तो हँसता हूँ, पेट भरे होने पर थोड़ा और हँसता हूँ... वजह की आपके भूखे होने की बात से सब... हाँ, सब के सब हँसेंगे और आपके पेट भरे होने पर हँसते देख कर लोग समझेंगे की इसको तो हंसने की बिमारी है.... असल में फ़िक्र कहाँ होती है कि इस वजह से कुछेक प्रतिशत जो अच्छे लोग हैं आपका भरोसा उनसे भी उठ जाता है... जैसे गेंहूं के साथ घुन पिसता है वैसे ही ये कुछेक प्रतिशत लोग भी पिस रहे... कोई इन पर भी भरोसा नहीं कर रहा... उन्हें उनकी नेकी का हक़ नहीं मिल रहा।
तुम्हें तो पता ही है पिछले दिनों की कहानी जब बहुत कष्ट में था... थोड़ी झेंप भी रहती थी की जिन्हें मुझसे मदद की आशा रहती थी उन्हें कैसे कहूं की मैं खुद मदद लेने की हालत में पहुँच गया हूँ। हालाँकि फिर भी जो करीब थे वो आये, मेरा परिवार मेरे साथ खड़ा रहा... मेरे दुःख को समझा, मेरा दर्द साझा किया और पूछते रहे। कोई यहाँ था कोई अन्य बड़े शहरों में तो कोई विदेश में... पता है एक रात डेढ़ बजे किसी ने अमरीका से फोन किया और कहा - " प्रवीण, तुम्हे जो भी मदद चाहिए हम तैयार हैं... कहो तो आ जाऊँ" अच्छा लगा।
हालाँकि मुझे उतना ही बुरा लगा जब पिछले १० महीनों के इस संघर्ष में और संभवतः जीवन की सबसे बड़ी लड़ाई में कुछ लोग या तो अनभिज्ञ बन गए या फिर सब जान बूझकर मुझसे किनारा कर लिया। पहले तो मेरी आदत के अनुसार मैंने इसकी वजह खुद को ही माना की शायद खुद की कोई कमी रही होगी मेरी। लेकिन बाद में अधिक मंथन पर पता लगा कि नहीं, ये तो बस मुझसे इसलिए जुड़े थे की मैं इनके किसी काम आ सकूँ। तुमने सही कहा था - "प्रवीण जी, सीधे नहीं बोलने वालों से दूर रहिये...."
धैर्यकाँत, अब मैंने निर्णय ले लिया है कि सिर्फ और सिर्फ अच्छे दिनों वाले साथियों को त्याग दूंगा..... मुझे पता है तुम कहोगे की आप तो सबकुछ खुद पर लेकर किसी को जीवन भर त्यागना नहीं चाहते तो आपसे नहीं होगा ये सब। सो भाई - कोशिश करूँगा। क्योंकि पिछले दस महीनों ने (जिसे दस साल की तरह जिया है मैंने) मुझे सीखा दिया है कि मैं भी इंसान ही हूँ। वो इंसान जो सही गलत समझने में गलती कर सकता है... और उसे इस गलती को करेक्ट कर लेना चाहिए। कुछ पुराने को क्रॉस और कुछ नए को टिक करना ही चाहिए। परिणाम की चिंता किये बगैर मुंह पे कहना ही चाहिए की नहीं बॉस, आप नहीं चाहिए... भले कोई बुरा मान जाए, मुझे पागल समझे, एरोगेंट कहे या फिर कुलबोरन।
लिखते रहो,
तुम्हारा शुभचिंतक,
प्रवीण
जितनी बार पढ़ा लगा कुछ सिखा हमने, अद्भुत
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